(फेसबुक पर यह कथन कविता के फार्म में है लेकिन इसकी पठनीयता यहां पाठकीय दृष्टि से इस रूप में ज्यादा अभीष्ट लगी। इसलिए सीधे सीधे प्रस्तुत है)
दैनिक जागरण ने वेतन नहीं बढ़ाया- हम कुछ नहीं बोले। दैनिक जागरण ने फोर्स लीव पर भेजा- हम कुछ नहीं बोले। दैनिक जागरण ने प्रताडि़त किया- हम कुछ नहीं बोले। दैनिक जागरण ने तबादला कर दिया- हम कुछ नहीं बोले। दैनिक जागरण ने हमला करा दिया- हम कुछ नहीं बोले। दैनिक जागरण ने मजीठिया वेतनमान नहीं दिया- हम कुछ नहीं बोले। सादे कागज पर हस्ताक्षर करा लिया- हम कुछ नहीं बोले।
ये तो अंग्रेजी शासन आ गया है। इतनी गुलामी तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं रही होगी। आखिर सहन करने की भी एक सीमा होती है।
अब समय आ गया है- हम बोलेंगे और दैनिक जागरण सुनेगा। हम कुछ करेंगे और दैनिक जागरण देखेगा। इनसे तो अखबार छापने का हक छीन लिया जाना चाहिए। क्या अखबार की ताकत से ये जनता को गुलाम बनाने चले हैं- सोचिए, तोड़ दीजिए कारा।
श्रीकांत सिंह के एफबी वॉल से