अतुल चौरसिया-
सार्वजनिक जानकारी में Uday Prakash जी का यह दूसरा विचलन है. जरूरी नहीं हर व्यक्ति इसे विचलन ही माने. इससे पहले एक बार वो योगीजी के हाथों पुरस्कार लाभ लेते धरे गए थे. फिर वापसी आदि की रस्मी रवायत निभाई गई थी. उदयजी उस पांत में सबसे आगे खड़े थे जिन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी की घोषणा की थी. अब वो चंदा दे रहे हैं. उदयजी असली वाले कौन हैं यह बात उन्हें साफ करनी चाहिए. दोनों पालों की तरफ से बल्लेबाजी करने का कोई नियम फिलहाल नहीं है. उदयजी की इस बात के लिए जरूर तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने यह बात छुपाई नहीं.
अभिषेक श्रीवास्तव-
प्रिय कथाकार उदय प्रकाश से सुबह लंबी बात हुई। उस वक़्त वे गाड़ी में थे, मैजिस्ट्रैट के सामने पेशी के लिए अदालत जा रहे थे। बताए कि तीन दिन से अदालत के चक्कर काट रहे हैं। हँसते हुए बोले- I am a born fighter!
रसीद क्यों चिपकाए चंदे की? इस पर एक लाइन में उनका जवाब था- “मैं कोई मैनेजर पांडे थोड़ी हूँ? कहीं और अखबार आदि में तस्वीर आ जाती तो लोग बखेड़ा करते। मैंने खुद ही चिपका दी। उन लोगों की तरह छुपाया नहीं।”
चन्दा क्यों दिए? इसका जवाब वन लाइनर नहीं हो सकता। जटिल समाज है। जटिल लेखक है। पाठक और जड़ियल है। दोस्त-यार तो सबसे जटिल। इतने जटिल, कि बरसों पुराने उनके एक मित्र ने फोन कर के कह दिया है कि अब मैं तुमसे कभी बात नहीं करूंगा। कह रहे थे, अब मैं क्या करूं? मैं तो वही हूँ, वो बात न करें तो क्या किया जा सकता है!
9 मार्च को उन्हें गाँव गए पूरा एक साल हो जाएगा। हमारे जैसे लोगों को शहर में बंधे हुए पूरा एक साल। हो सकता है शहर से गाँव साफ न दिखता हो। हो सकता है गाँव से शहर कुछ ज्यादा साफ दिखता हो। कौन जाने! दोनों के बीच जो धुंधलका पसरा है, उसमें 5400 की एक रसीद लहरा उठी है। सबने सवारी गाँठ ली है। पूरी मौज है!
(पुनश्च: उदय जी ने एक और गौरतलब वाक्य कहा: We have been reduced to subjects.)
सत्येंद्र पीएस-
उदय प्रकाश जी चर्चा में हैं। जिस वजह से चर्चा में हैं, तमाम लोग नाराज हैं। चंदा गैंग जिस तरह से सक्रिय है, कोई भी सामाजिक व्यक्ति बच जाए, यह बहुत मुश्किल है। मेरे एक मित्र ने एक रोज निकालकर 100 रुपये दे दिया। निश्चित रूप से उनकी इस दान की कोई इच्छा नहीं थी। इत्तेफाक से मैं बचा हुआ हूँ, लेकिन कब तक बचा रहूंगा, यह कह पाना थोड़ा मुश्किल है।
इससे विपक्षी दलों को सीखना चाहिए। तमाम लोग बुद्ध बुद्ध करते हैं। कहा जाता है कि कुंगफू से लेकर कराटे तक बुद्ध की देन है। आप इसे चाइनीज फिल्मों में देख सकते हैं।
क्या किसी दल में इतना साहस था कि चड्ढा गैंग की तरह हर पार्क हर मोहल्ले में कुंग फू या कराटे हेल्थ परेड सुबह सबेरे कराए और मजबूत संगठन हो? कम से कम इससे शेष डरे हुए लोग कह पाते कि हम उस टोले वाले हैं।
आखिर विकल्प क्या है? मोहल्लों में यह हाल हो गया है कि अगर आप चंदा नहीं देते, जय श्री राम का जयकारा नहीं लगाते तो आपका सामाजिक बहिष्कार हो जाएगा।
बहरहाल उदय प्रकाश को मुझे कुछ कहना ही नहीं है। वह दबाव के बगैर मौज में भी किसी को 5000 पकड़ा सकते हैं। भैरवनाथ को वह अपना कुल देवता मानते हैं। निजामुद्दीन दरगाह में वह मेरे लिए दुआएं करते हैं मनौती मानते हैं कि ठीक हो गया तो साथ लेकर आऊंगा।
उनको किसी आलतू फालतू के दायरे में मैं नहीं बांधता। बकिया सब माया है। अगर उदय प्रकाश खिलाफ लिखने पर कोई क्रांति आ रही हो तो वह रुकनी नहीं चाहिए।
भारत माता की जय।
मानवेन्द्र जय-
Uday Prakash जी ने जो किया मुझे बिल्कुल फर्क नहीं पड़ा और न ही कोई हैरानी हुई? क्योंकि यह उनका निजी मसला है कि उनके किचन में क्या बनता है। वे किसके रिश्तेदार हैं? वे किस धर्म में आस्था रखते हैं? वे कब किसको चंदा देते हैं? क्योंकि हमने उनके बारे कोई मुगालते नहीं पाल रखे हैं।
लेकीन इस पूरे मसले पर मजेदार यह है कि उन्होने चंदे के पर्चे का मीना बाजार क्यों लगाया? यह उनका खिलंदड़पन है या बदमाश दिमाग की हरकत…!!
मुझे उनकी पोस्ट पढ़कर बार बार यही लगा कि वे हिंदी समाज और फेसबुकिया जनता को चिढ़ा रहे हैं। मजे ले रहे हैं कि कर लो जो करना है।
दूसरी बात किसी भी इंसान को आप उस पायदान पर बिठाते क्यों हैं, जिसका वो हकदार है या नहीं? किसी को भी आप हीरो बनाते हैं फिर जब वह आपके मन मुताबिक से इतर कोई हरकत कर बैठता है तो तुरंत आप उसके खिलाफ़ स्खलित होने लगते हैं…!!
किसी के विचलन से इतना दिल क्यों लगाना भई? हां अगली बार के लिए यह सनद जरूर रखें कि उसके किसी लफ्फाजी पर उसे आईना जरूर दिखाएं…!!
डिस्क्लेमर- हां इस सबके बावजूद उदय प्रकाश मेरे प्रिय लेखक रहेगें। उनके किसी भी विचलन या हिपोक्रेसी का हिसाब इतिहास स्वयं करेगा।
अनु रॉय-
कल से हिंदी के प्रगतशील लेखक गण और कुछ महान पत्रकार पानी पी-पी कर हिंदी के एक नामचीन लेखक Uday Prakash जी को कोस रहें हैं. ये वही बुद्धिजीवी लेखकों का झुंड है जिनको अपने हिंदू होने पर शर्मिंदगी होती है. हिंदू धर्म और उससे जुड़े लोग, मंदिर और पूजा पाठ सब ढोंग-ढकोसला लगता है. लेकिन इन्हीं लेखकों और पत्रकारों को अमेरिकी राष्ट्रपति ‘जो बाईडेन’ का चर्च जाना और बाइबल को कोट करना कूल लगता है. इन्हीं सो-कॉल्ड छद्म-लिबरल को फ़ैज़ साहेब पसंद आते हैं और उनकी नज़्म,
“बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो”
को हर मौक़े पर गाते भी हैं अपने आप को सेक्यूलर दिखाने के लिए. तब इन महान हस्तियों को फ़ैज़ साहेब कट्टर नज़र नहीं आते हैं. अल्लाह का ज़िक्र करते हुए और उनकी शान में लिखते हुए फ़ैज़ साहेब पिछड़े नहीं लगते. इनको नमाज़ी होना कूल लगता है, चर्च जाना फ़ॉर्वर्ड होना लगता है लेकिन जैसे ही एक हिंदू लेखक यानि उदय प्रकाश जी अयोध्या में बनने जा रहे ‘श्री राम मंदिर’ के बनने के लिए चंदा देते हैं वैसे ही ये गिद्ध की तरह उन पर टूट पड़ते हैं. हर तरह से उनको अति पिछड़ी सोच का साबित करने पर तूल जाते हैं. वाह-वाह क्या महान सोच के मालिक हैं आप सब. नतमस्तक हूँ आप सबके सामने. कैसे इतना उम्दा सोच लेते हैं आप सब. ख़ैर. मुझे ताज्जुब नहीं होना चाहिए क्योंकि आप यही करते आए हैं सालों से. आपको अपने धर्म की हर चीज़ बुरी और गँवार वाली लगती है और दूसरे धर्म की हर चीज़ कूलत्व से भरी हुई. सड़िए आप अपनी महान सोच के साथ.
उदय सर आप प्रिय लेखक है और सदा रहेंगे. किसी मंदिर में चंदा देने या न देने से आप में जो कला है वो न कम होगी और न आपकी इज़्ज़त. ईश्वर आपको सलामत रखे.
जय सिया राम!
चंदन पांडेय-
अगर हजारों का चंदा देकर मनबढई से रसीद प्रदर्शित करना ईमानदारी की श्रेणी में आता है तब तो राष्ट्रपति बड़े ईमानदार हुए जिन्होंने पाँच लाख का चंदा देकर रसीद झलकाया था।
अजीब किस्म के लोग उदय प्रकाश का बचाव कर रहे हैं जैसे उदयजी कितने मासूम और निर्दोष हैं।
चंदे की रसीद लहराना इस बात का द्योतक है कि आप किसके साथ हैं। राम मंदिर अगर भगवान राम का मंदिर भर होता तब किसी को ऐतराज नहीं होता। धार्मिक लोग धर्म के नाम पर दान करते रहते हैं, यह मानी हुई बात है, इससे किसी को दुःख नहीं होता। लेकिन यह मंदिर वर्तमान समय में बहुसँख्यावाद के शक्ति प्रदर्शन का द्योतक भी है, उसमें चंदा देते हुये आप उन सभी शक्तियों का समर्थन करेंगे।
ताकि सनद रहे, इस रसीद प्रदर्शन का सच्चाई या ईमानदारी से कोई लेना देना नहीं है।
वीरू सोनकर-
उदय प्रकाश जी के इस कदम से असहमत हुआ जा सकता है और होना भी चाहिए. पर इससे किसी को भी उदय जी को अपमानित करने का हक नहीं मिल जाता है. उदय जी ने जो किया, खुलेआम किया और उसे छिपाया नहीं. जबकि उन्हें उस किये-धरे को छुपाने की पूरी सुविधा हासिल है. हिंदी के कितने लेखक ऐसा पारदर्शी साहस कर सकते हैं?
जो लोग उदय जी के लेखन के आगे अपना कद बड़ा नहीं कर पाए और व्यक्तिगत प्रहारों में शामिल रहे. जिन्होंने उदय प्रकाश के ‘व्यक्ति’ को हर हद तक जाकर आहत किया. वे अब अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन न ही करें तो बेहतर है. दुनिया देख रही है. उनसे असहमत होइए. यह हमारा-आपका अधिकार है पर उन्हें गालियाँ देने से पहले एक बार जरूर देखिए. उदय प्रकाश के जूते का नाप भी आपके सर से बहुत बड़ा है.
पुनश्च : असहमत होइए, अपमानित न कीजिये. मैं भी आहत हूँ पर विरोध करने की भाषा नहीं भूला हूँ.
(जूते और सर के नाप वाली बात किसी ‘एक’ के लिए कही गई है वह उस तक पहुँच ही जाएगी. बाकी लोग बाकी पोस्ट से कनेक्ट करें)