पूरे पाँच वर्ष लोकसभा सदस्य और उससे पूर्व इतने ही साल विधायक रहते प्रदीप टम्टा ने गैरसैंण को उत्तराखण्ड की राजधानी बनाने के लिए कभी कुछ नहीं किया, परन्तु अब इन्हें उत्तराखण्ड की आत्मा के गैरसैंण में बसने के सपने आ रहे हैं। आजकल ये कहते हैं कि ‘राजधानी गैरसैंण में स्थापित किये बगैर प्रदेश के समग्र विकास व प्रदेश गठन की जनाकांक्षाओं को साकार नहीं किया जा सकता। उत्तराखण्ड की तमाम समस्याओं का समाधान प्रदेश की राजधानी गैरसैंण में बनाकर ही किया जा सकता है।’ जबकि इन्हीं महाशय की कारगुजारियों के कारण भाजपा ने वर्ष 2000 में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पूरा हरिद्वार लोकसभा क्षेत्र ‘उत्तरांचल’ में मिला कर इसके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया था।
स्मरणीय है कि पृथक उत्तराखंड राज्य गठन से पहले उ.प्र. की तत्कालीन मुलायमसिंह यादव सरकार ने उत्तराखंड राज्य बनने पर उसकी स्थाई राजधानी के लिए सुझाव देने हेतु जिस कौशिक समिति का गठन किया था, उसने कुमाऊँ तथा गढ़वाल का दौरा कर विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों तथा आमजन से सीधा संवाद कायम करने के बाद 4 मई, 1994 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में गौशाला (रामनगर), पशुलोक (ऋषिकेश) तथा गैरसैंण को इसके लिए उपयुक्त बताया था। उसमें हरिद्वार जिला या इसके कुंभ क्षेत्र का कोई उल्लेख नहीं था। राज्य गठन हेतु तत्कालीन केन्द्र सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से जब उ.प्र. सरकार के पास विचार के लिए प्रस्ताव भेजा था, तब उसे प्रदेश विधानसभा ने उत्तराखण्ड विरोधी 26 संशोधन लगा कर दिल्ली भेजा। जिस पर उत्तराखण्ड के 17 विधायकों ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और चुपचाप इस आशा में हस्ताक्षर कर दिये कि नया राज्य बनने पर उन्हें ही मंत्री बनाया जायेगा। तब तक भी हरिद्वार जिला इसमें शामिल नहीं था, लेकिन जब 9 नवंबर, 2000 को पृथक ‘उत्तरांचल’ राज्य गठन की घोषणा हुई तब उसमें कुंभ क्षेत्र ही नहीं बल्कि पूरे हरिद्वार जिले को ही ‘उत्तरांचल’ में शामिल कर दिया गया था।
इस महापाप में इस पावन देवभूमि के अपने ही ‘सपूत’ शामिल थे। धोखाधड़ी का यह ‘खेल’ कैसे हुआ, आइये समझते हैं। 8 नवंबर, 2000 की शाम तक कुमाऊँ के तीन तथा गढ़वाल के पाँच जिलों को मिलाकर ही पृथक ‘उत्तरांचल’ राज्य बनाना प्रस्तावित था और उसी के अनुरूप केन्द्र सरकार के स्तर पर सभी तैयारियां की जा रही थीं, परन्तु इसी बीच तत्कालीन गढ़वाल सांसद भुवन चन्द्र खंडूड़ी तथा रमेश पोखरियाल के नेतृत्व में देहरादून तथा ऋषिकेश के कतिपय बड़े व्यापारियों तथा बिल्डरों का एक समूह तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी से मिला। जिसने उन्हें यह समझाने में सफलता पा ली कि कुमाऊँ तथा गढ़वाल की दो लोकसभा सीटों पर परंपरागत रूप से ब्राह्मणों तथा राजपूतों का वर्चस्व रहा है। जिससे वहाँ के दलितों में गलत संदेश जा रहा है। उन्हीं दिनों कांग्रेसी नेता प्रदीप टम्टा हरिद्वार जिले को प्रस्तावित राज्य में शामिल करने का मुद्दा बड़े जोर-शोर से उठाये हुए थे और तब हरिद्वार लोकसभा सीट आरक्षित भी थी। आडवाणी को निर्णय लेने में अधिक देर नहीं लगी। उन्होंने तत्काल पूरे हरिद्वार जिले को ही शामिल करते हुए पृथक ‘उत्तरांचल’ राज्य गठन की घोषणा करा दी। जिसमें अस्थाई राजधानी देहरादून बनाने का भी उल्लेख शामिल था। यदि हरिद्वार जिला उत्तराखंड में शामिल नहीं किया गया होता तो निश्चित रूप से यह अपने पड़ोसी हिमाचल की तरह एक पर्वतीय राज्य होता और तब इसकी राजधानी गैरसैंण ही बनती।
दो तरफ से अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से घिरे इस पर्वतीय क्षेत्र का प्रारंभ से ही यह दुर्भाग्य रहा कि यहाँ की उन्नति को राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से जोड़ कर देखने-दिखाने में सक्षम व इसकी चिंता करने वाले नेतृत्व का सर्वथा अभाव रहा। जो एकाध हुए भी तो उनकी राष्ट्रीय राजनीति में छाने की आतुरता और प्रबल महत्वाकांक्षा को यहाँ के अभावग्रस्त लोगों के दुख-दर्द दिखाई-सुनाई ही नहीं पड़े। इन तथाकथित बड़े जन-नेताओं ने ही जब अपनी जन्मभूमि के प्रति कर्तव्यबोध त्याग दिया तब फिर भला किसी दूसरे को इसकी परवाह क्योंकर होती।
इस कमजोरी के कारण ही केन्द्र में भाजपा नीत सरकार ने बिना कोई ‘होम वर्क’ किये ही रातों-रात आनन-फानन में अपने राजनैतिक अल्प-लाभ के लिए समूचे हरिद्वार जिले को शामिल करते हुए पृथक ‘उत्तरांचल’ राज्य का गठन कर दिया। उत्तराखण्ड के कांग्रेसियों में भी दूरदृष्टि वाले, योजनाकार तथा पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व से अपनी बात मनवा सकने में सक्षम नेताओं का सर्वथा अभाव रहा। यह विडंबना ही रही कि 2001 के चुनाव में विजयी कांग्रेस ने उसी ‘चमचों के विकास पुरुष’ और ‘खड़ाऊँ पुजारी’ को नवगठित राज्य की बागडोर सौंप दी जो पृथक राज्य तथा समूचे पर्वतीय क्षेत्र के विकास का जीवनभर खांटी विरोधी रहा था। भला ऐसा व्यक्ति हिमाचल के स्वनामधन्य नेता डॉ. यशवंत सिंह परमार से प्रेरणा लेकर इस नवसृजित पहाड़ी राज्य के साथ भी छलपूर्वक चिपका दिये गये मैदानी क्षेत्र को वापस मूल प्रदेश को लौटाने की बात कैसे कर सकता था? जबकि मुलायमसिंह यादव तथा भाजपा के मदनलाल खुराना आदि नेता मैदानी भाग को वापस उ.प्र. में मिलाने को पूरी ताकत के साथ जुटे हुए थे।
उधर, 15 अप्रैल, 1948 को 30 देसी रियासतों का विलय कर एक चीफ कमिश्नर के अधीन केन्द्र शासित हिमाचल प्रदेश का गठन हुआ जिसे बाद में ‘ग’ श्रेणी के राज्य का दर्जा मिला और 1952 के आम-चुनावों के बाद डॉ. यशवंतसिंह परमार प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। इसी बीच एक जुलाइ 1954 को बिलासपुर रियासत का हिमाचल में विलय हो गया। फिर राज्य पुनर्गठन आयोग ने 1955 में हिमाचल को पंजाब में मिला देने की सिफारिश कर दी। जिससे इसे ‘ग’ श्रेणी से अवनत कर पुनः केन्द्र शासित बना दिया गया। इससे आहत डॉ. परमार और उनके मंत्रिमंडल ने इस्तीफे दे दिये जो जवाहरलाल नेहरू के रुतबे के आगे बहुत बड़ा दुस्साहसिक कदम था। डॉ. परमार और उनके साथियों ने हार न मानी और वे लोकतांत्रिक ढांचे की बहाली के लिए निरंतर संघर्षरत रहे। अंततः गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री की पहल पर हिमाचल टैरिटोरियल कौंसिल को विधानसभा में परिवर्तित करते हुए 1 जुलाइ 1963 को डॉ. यशवंतसिंह परमार के मुख्यमंत्रित्व में राज्य सरकार का गठन हुआ।
डॉ. परमार को शिमला, कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल, स्पीति तथा अनेक हिन्दीभाषी पर्वतीय क्षेत्रों का पंजाब में शामिल होने से इनका अपूर्ण विकास तथा हिमाचल के ही चंबा और महासू जिलों में जाने के लिए पंजाब के कांगड़ा तथा शिमला से होकर जाने की मजबूरी बहुत पीड़ा देती थी। उन्होंने 1965 में राज्य पुनर्गठन आयोग के सम्मुख इन क्षेत्रों को हिमाचल में मिलाने के जोरदार तर्क रखे। परन्तु पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो किसी भी सूरत में नहीं चाहते थे कि पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र हिमाचल में शामिल कर दिये जायें। बल्कि वे हिमाचल का भी विलय कर ‘महा पंजाब’ या ‘विशाल पंजाब’ राज्य बनाने की कोशिश में जुटे हुए थे। जिसका मुख्यमंत्री डॉ. परमार को बनाने का प्रस्ताव भी कैरो ने रखा, परन्तु उन्होंने इसे विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। इससे उपजे मतभेद के फलस्वरूप डाॅ. परमार तथा कैरो के बीच बहुत कड़वाहट बढ़ गई।
राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप 1966 में पंजाब के उपरोक्त कांगड़ा आदि क्षेत्रों के अलावा अंबाला का नालागढ़, होशियारपुर की ऊना तहसील, गुरुदासपुर के डलहौजी व बहलोह के क्षेत्रों को मिलाकर हिमाचल को वृहद रूप दे दिया गया। इसके बाद डॉ. परमार हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की कोशिश करते रहे जिसे 25 जनवरी 1971 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरा किया।
यह था हिमाचल को एक शुद्ध पर्वतीय और पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने हेतु डॉ. परमार की संघर्ष गाथा का संक्षिप्त वर्णन जिसे यहाँ केवल इस विचार से दिया गया है कि वे तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच हिमाचलवासियों की सेवा व समृद्धि का अपना संकल्प पूरा करने में सफल हुए। इसीसे वे हिमाचल के निर्माता ही नहीं वरन् इसका सटीक रूपाकार गढ़ने वाले एक चतुर वास्तुकार भी कहलाते हैं। जिला एवं सैशन जज का पद त्यागने के बाद अपने राजनैतिक जीवन में वे सदैव गरीबी में जीये। यहाँ तक कि वे 18 वर्ष तक मुख्यमंत्री और 8 साल तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए भी अपने पैतृक घर जो उनका इकलौता निजी निवास भी था, की मरम्मत तक नहीं करा सके। जीवन-पर्यंत तड़क-भड़क, शानो शौकत व दिखावे से कोसों दूर रहे डॉ. परमार में प्रशासनिक कुशलता के साथ-साथ कर्तव्य-परायणता, सेवा, परोपकार, विनम्रता, सच्चाई, ईमानदारी आदि जैसे तमाम मानवीय मूल्य कूट-कूट कर भरे हुए थे जिनका पालन उन्होंने स्वयं किया और अपने सहयोगियों से करवाया भी।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. यशवंत सिंह परमार ने हिमाचल को केन्द्र में रखते हुए ‘हिमाचल पोलिएण्ड्री इट्स शेप एण्ड स्टेटस’, ‘हिमाचल प्रदेश केस फॉर स्टेटहुड’ और ‘हिमाचल प्रदेश एरिया एण्ड लेंग्वेजिज’ नामक शोध आधारित अनेक पुस्तकें लिखी हैं लेकिन 1944 में उनके लखनऊ विवि. से पी.एचडी. के शोध प्रबंध ‘हिमालय में बहुपति प्रथा की सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि’ के वृहत्तर स्वरूप–‘पोलिएण्ड्री इन हिमालयाज’ को अत्यधिक सराहना मिली। इसके अतिरिक्त उनकी ‘स्ट्रेटेजी फॉर डेवलेपमेंट ऑफ हिल एरियाज’ को हिमालयी विकास की दृष्टि से मील का पत्थर माना जाता है।
उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य कहिए या विडंबना कि यहाँ के अब तक के सभी नेता मिलाकर भी डाॅ. परमार के पासंग के बराबर भी नहीं बैठते। ये कितने पुंसत्वहीन, बौने, अदूरदर्शी और स्वाभिमानरहित हैं इसका पता केवल इसी बात से चल जाता है कि ये लोग तमाम तरह की राजनैतिक सकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद अंग्रेज कमिश्नर हेनरी रैम्जे द्वारा लगभग 150 वर्ष पूर्व बनाये गये रामनगर-कालागढ़-कोटद्वार-लालढाक-हरिद्वार कंडी मार्ग पर यातायात चालू करने की केन्द्र सरकार से स्वीकृति तक प्राप्त नहीं कर सके। जबकि यह मार्ग सम्पूर्ण कुमाऊँ मंडल को प्रदेश की राजधानी से जोड़ने वाला प्रमुख और 80 किमी. छोटा रास्ता है। पृथक राज्य बनने के 15 वर्षों के बाद आज भी राज्य के आधे लोगों को अपनी राजधानी तक पहुँचने के लिए उ.प्र. के मुरादाबाद व बिजनौर जिलों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है।
उत्तराखण्ड के नेता कितने चालबाज हैं इसकी बानगी देखिये–अभी पिछले रविवार 22 नवम्बर को उत्तराखण्ड शिल्पकार चेतना मंच द्वारा दिल्ली के गढ़वाल भवन में आयोजित एक दिवसीय सम्मेलन में ‘उत्तराखण्ड की समस्याऐं तथा समाधान’ विषय पर अपने विचार रखते हुए मुख्य अतिथि व उत्तराखण्ड शिल्पकार चेतना मंच के संस्थापक पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा ने कहा–“उत्तराखण्ड की आत्मा गैरसैंण में बसती है। जिस प्रकार बिना शरीर के आत्मा भटकती रहती है, उसी प्रकार प्रदेश की सर्वसम्मत व न्यायोचित राजधानी गैरसैण में स्थापित किये बगैर प्रदेश के समग्र विकास व प्रदेश गठन की जनाकांक्षाओं को साकार नहीं किया जा सकता। उत्तराखण्ड की तमाम समस्याओं का समाधान प्रदेश की राजधानी गैरसैंण में बनाकर ही किया जा सकता है।”
अब कोई इनसे पूछे कि श्रीमान जब आपकी पार्टी कांग्रेस नीत केन्द्र सरकार के जमाने में आपको अल्मोड़ा से लोकसभा सदस्य के तौर पर पूरे पाँच वर्ष काम करने का अवसर दिया गया था तब आप केवल उपरोक्त कंडी मार्ग को खुलवाने का ही काम कर देते तो इस राज्य का कितना भला हो सकता था या गैरसैंण को राजधानी बनाने हेतु आपने तब क्या प्रयास किये जब आप सोमेश्वर से पहले ही पाँच वर्ष विधायक रहे और आपको चमचों के ‘विकास पुरुष’ का नेतृत्व तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की ‘किचन-कैबिनेट’ की विशिष्ट सदस्यता भी प्राप्त थी?
इस प्रकार यदि देखा जाये तो उत्तराखण्ड के ये नेतागण अपने घर को खुद ही आग लगाकर कितनी निर्लज्जता के साथ अपनी ड्योढ़ी पर हरदम हाथ बांधे खड़े कुछेक पालतू चमचों के सहारे जनता को बरगलाने की हिमाकत करते हैं। इसीलिए इसका पृथक राज्य बनने के बाद का इतिहास इसके नेताओं के घपलों-घोटालों, भाई-भतीजावाद, जन-सरोकारों की उपेक्षा, कुप्रशासन, लापरवाही, अकर्मण्यता, संसाधनों की लूट आदि से अटा पड़ा है। जिसका जीता-जागता प्रमाण है इसी दौरान यहाँ से तीव्रता से हुए पलायन के कारण खण्डहरों के कब्रिस्तान में तब्दील हो गये लगभग 1,500 गाँव; जिनकी संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। उत्तराखण्ड की बदहाली के कारण ही आज प्रत्येक प्रदेशवासी यही कहने को विवश है–काश, हमारे पास भी कोई यशवंतसिंह परमार होता।
लेखक श्यामसिंह रावत उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.