उत्तर प्रदेश की लॉयब्रेरियों के लिए सरकारी पुस्तकों की खरीद में पिछले वर्षों की तरह इस बार भी पुस्तकालय प्रकोष्ठ के अधिकारियों और माध्यमिक शिक्षा विभाग के सचिव स्तर के एक वरिष्ठ अफसर की साठ-गांठ से भारी गड़बड़ी और मनमानी किए जाने की सूचना है। बताया गया है कि मुंह पर भरपूर कमीशन मार कर अपनी किताबें चयनित करा लेने वाले भ्रष्ट प्रकाशकों, उर्दू-हिंदी साहित्य अकादमियों तक पहुंच रखने वालो और राजनेताओं-अफसरों की चापलूसी करने वाले लेखकों की कानाफूसी से इस बार लुगदी साहित्य की ऊंचे दामों पर भरपूर खरीदारी हुई है। इससे सुपठनीय पुस्तकों के लेखकों-साहित्यकारों में भीतर ही भीतर प्रदेश सरकार की पुस्तक खरीद नीति पर भारी रोष है। कुछ पिछलग्गू किस्म के साहित्यकारों, विरुदावली गाने वाले रचनाकारों को ही खरीद में तरजीह दी गई है।
यही हाल प्रदेश सरकार से साहित्यकारों-पत्रकारों की पुरस्कार-नीति का भी है। पाठकों के साथ अन्याय की ये लगाम शीर्ष पदों पर बैठे बौने दिमाग वाले जी-हुजूरियों के हवाले कर दी गई है। दूसरी तरफ मानव संसाधन मंत्रालय से भी पिछले तीन वर्षों से पुस्तक खरीद के लिए बजट जारी न होने से प्रकाशक और लेखक समुदायों में केंद्र सरकार को लेकर भी काफी गुस्सा है। मानव संसाधन मंत्रालय व नवगठित नीति-आयोग की उदासीनता ने लोगों में भारी नाउम्मीदी भर दी है। राष्ट्रीय पुस्तकालय मिशन को पर्याप्त वित्तीय साधन एवं स्वायत्तता से सरकार जी चुरा रही है। हालात किसी और सिरे पर तब्दील जरूर हो रहे हैं, लेकिन जंगल में मोर नाचा किसने देखा। इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति के बेटे रोहन मूर्ति ने 300 करोड़ लगाकर पुस्तक प्रकाशन की योजना हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के साथ शुरू की है, जिससे आम भारतीय पाठकों का लाभान्वित होना ही संभव नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार की पुस्तक खरीद नीति संबंधी कुव्यवस्थाओं का खामियाजा आम पुस्तक प्रेमियों ही नहीं, लाखों विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों को भी भोगना पड़ रहा है। 25-30 प्रतिशत छूट पर उपलब्ध किताबें स्कूली लाइब्रेरियों के लिए हैरतअंगेज ऊंची कीमतों पर खरीदी जा रही हैं। मीडिया से छनछन कर आ रही सूचनाओं के मुताबिक ” भारत सरकार ने प्रदेश के 1584 राजकीय स्कूलों को वार्षिक विद्यालय अनुदान के रूप में प्रत्येक को 50 हजार रुपए दिए हैं। यह पैसा सीधे स्कूल के खाते में आता है। इसमें से 10 हजार रुपए से लाइब्रेरी के लिए किताबें खरीदी जानी है। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा अभियान राज्य परियोजना कार्यालय से 10 मार्च को किताबों की खरीद के संबंध में एक आदेश जारी किया गया। स्कूलों को 43 से ज्यादा किताबों की एक सूची (प्रकाशक और कीमतों के साथ) दी गई और 31 मार्च तक किताबें खरीदने को कहा गया।
”लाइब्रेरी के लिए जिन किताबों की खरीद के आदेश दिए गए हैं वह राजधानी के खुले बाजार में उपलब्ध ही नहीं है। यहां के कई राजकीय स्कूल प्रिंसिपल ने इस संबंध में जिला विद्यालय निरीक्षक को पत्र भी लिखा है। पड़ताल में सामने आया है कि इनमें से 80 प्रकाशकों की किताबें नोएडा के एक वितरण द्वारा उपलब्ध कराई जा रही हैं। यह वितरक 10 प्रतिशत की छूट देकर सरकारी स्कूलों को इनकी सप्लाई कर रहा है। हैरानी की बात है कि जिन किताबों को यह सरकारी स्कूलों को 10 प्रतिशत की छूट पर बेच रहा है। उसी किताब को निजी स्कूल संचालकों को 25 प्रतिशत की छूट पर देने को तैयार है। इसी तरह, एक अन्य प्रकाशक अपनी किताबों को 35 से 40 प्रतिशत की छूट पर निजी स्कूल को देने के लिए तैयार हो गया। ”
समाजवादी होने का ढोंग करने वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने किताबों के साथ ऐसा घिनौना खेल कर अच्छी पुस्तकों के माध्यम से सामाजिक बदलाव के सपने बुझा दिए हैं। ज्ञानोन्मुख समाज बनाने और भारतीय गणतंत्र को और अधिक जनोन्मुख बनाने के लिए पब्लिक लाइब्रेरी से बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता। एक तरफ पाठकों का सरकारी पुस्तक खरीद नीतियों से विश्वास उठने लगा है, दूसरी तरफ उन्हें ले-देकर अब पुस्तक मेलों का ही भरोसा रह गया है। देश भर में लगभग 60 साहित्यिक समारोह हर साल आयोजित किए जाने लगे हैं, जिनके आयोजन पर 65 लाख से लेकर 10 करोड़ रुपये तक खर्च होते हैं। फ्रैंकफर्ट, जर्मनी का पुस्तक मेला दुनिया में सबसे प्रसिद्ध माना जाता है, जिसमें तीन लाख दर्शक हर बार आते हैं। 12 दिनों तक चलने वाले कोलकाता पुस्तक मेले में पिछली बार 18 लाख दर्शक आए थे, जो दुनिया के लिए एक रिकॉर्ड था।
सिक्के का दूसरा पहलू हैं उत्तर प्रदेश की पब्लिक लायब्रेरियां, जिनके लिए पुस्तकें खरीदने और उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकार की रहती है। इसके लिए सराकारी योजना पर भ्रष्ट नेता, नौकरशाह, प्रकाशन माफिया और दलाल कुंडली मार कर बैठे हुए हैं। प्रदेश के लगभग सभी जिलों में जिला स्तरीय पब्लिक लाइब्रेरियां मिल जाएंगी, किंतु वहां पाठकों का आना इसलिए असंभव हो गया है कि कमीशन के आधार पर खरीदी गईं किताबों की आवक नब्बे प्रतिशत से अधिक हो गई है। बात इतनी भर नहीं। प्रदेश के सार्वजनिक पुस्तकालय बीते युग की निशानी बनकर रह गए हैं। जजर्र भवन, टूटे फर्नीचर, फटी-पुरानी और कामचलाऊ किस्म की किताबें, अप्रशिक्षित लाइब्रेरी स्टाफ ने पाठकों के दिल पर गहरा आघात किया है। प्रदेश के उन्नाव, बाराबंकी, लखीमपुर खीरी, रायबरेली, बलिया आदि जनपदों में सार्वजनिक पुस्तकालयों के जीर्णोद्धार व आधुनिकीकरण काम में भी बताया जाता है कि कमीशनबाजी का घिनौना खेल चला है। सरकारी पुस्तक प्रकाशन प्रक्रिया के तहत निविदाओं को लेकर भी बड़ी वित्तीय अनियमितताओं का खुलासा हो चुका है।
अब तो बच्चों के लिए पाठ्य पुस्तकों की खरीद में भी लेखकों को धता बताकर बेशर्म प्रकाशक, नेता, अफसर और माफिया चोरी-बटमारी कर रहे हैं। बताया जाता है कि इस बार जिन पुस्तकों की खरीद की गई, उनकी अंतिम सूची तैयार करने में महीनो इसलिए गुजर गए कि जिस अधिकारी के हस्ताक्षर से खरीद योजना इस बार परवान चढ़नी थीं, उसने अपनों अथवा नेताओं-मंत्रियों के चापलूसों को उपकृत करने के लिए अंतिम समय तक बार बार सूची में काट-पीट की। इससे पुस्तकालय प्रकोष्ठ के कर्मी भी आजिज आ गए थे। उन दिनो पुस्तकालय प्रकोष्ठ के बाहर तरह तरह के दलालों और थैला भर-भर रुपए लेकर टहल रहे भ्रष्ट प्रकाशकों का जमघट सा लगा रहा। यह सब लंबे समय से चल रहा है। वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय बताते हैं कि इसी तरह की हरकतों के कारण एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ने जब कठोरता बरती, पुस्तक प्रदर्शनी में पाठकों की राय लेकर पुस्तक खरीद की योजना बनाई तो उनको रातोरात प्रकाशन माफिया ने स्थानांतरित करा दिया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मकड़जाल कितने गहरे तक है और अच्छी पुस्तकें और अच्छे लेखक किस तरह हाशिये पर फेक दिए गए हैं। प्रदेश में सैकड़ों ऐसे प्रकाशक हैं, जिन्होंने हजारों की संख्या में जाली फर्म बना रखी हैं। पुस्तक माफिया उसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं। उन्हें पता है कि जो पुस्तकें खरीदी जा रही हैं, उसमें किस-किस से कितना कितना कमीशन मिलना है। जाली प्रकाशनों की छानबीन की जरूरत न तो सरकार महसूस करती है, न अफसरशाह। कारण साफ है, खुल कर भ्रष्टाचार। इसके अलावा पुस्तक प्रकाशन और खरीद में और भी कई स्तरों पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। मसलन, किताबों में घटिया पेपर का इस्तेमाल मगर उच्च क्वालिटी के पेपर की कीमत दर्शाना, अधिकारियों और नेताओं द्वारा अथवा उन पर लिखी गई किताबों को प्राथमिकता से खरीदना, किताबों के जिल्द बदल कर अपने प्रकाशन संस्थान के नाम से किताबें सरकारी खरीद में थोक के भाव ठिकाने लगा देना, अधिकारियों, प्रकाशकों एवं मुद्रक समूहों की साठगांठ से एक ही खरीद की कई कई निविदाएं जारी हो जाना, री-साइकिल्ड कागजों पर पुस्तकें प्रकाशित कर देना, हर वर्ष पाठ्यक्रम बदल देना आदि आदि।
शिक्षा माफिया उत्तर प्रदेश सरकार पर इस तरह हावी हैं कि प्रदेश में सपा की सरकार बनते ही पुस्तक प्रकाशन के नाम पर झांसी के प्रकाशकों ने सरकार से करोड़ों रुपये का भुगतान भी ले लिया, जबकि उन प्रकाशकों पर पहले भी यह आरोप लग चुके हैं कि निविदा होने के पहले ही वे घटिया कागज पर किताबें छापते रहे हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार का स्पष्ट आदेश है कि पाठ्य पुस्तकें बांस और लकड़ी से बने वर्जिन पल्प के कागज पर ही प्रकाशित होंगी। रि-साइकिल्ड कागज पर पुस्तकें नहीं छपेंगी। इसका बाकायदा शासनादेश भी है और इस संबंध में उच्च न्यायालय का भी आदेश है। चूंकि बांस और लकड़ी से बने इको फ्रेन्डली कागज और रि-साइकिल्ड कागज के दर में काफी अंतर है, इसलिए शिक्षा विभाग के अफसरों और शिक्षा माफिया ने घटिया काजग पर पुस्तकें छपवानी शुरू कर दी हैं।
एक बार तो इसी तरह के भ्रष्टाचार की ओर ध्यान दिलाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता राजनाथ शर्मा ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बेसिक शिक्षा मंत्री, मुख्य सचिव आलोक रंजन, बेसिक शिक्षा के प्रमुख सचिव आमोद कुमार समेत अन्य कई अधिकारियों से इसकी औपचारिक शिकायत की और इसे मीडिया के समक्ष भी उजागर किया मगर जांच की शोशेबाजी कर बात आई, गई, हो गई। मीडिया से जुड़े कुछ लोग भी इसका फायदा उठा रहे हैं। एक अन्य पुस्तक खरीद घोटाले में लोकायुक्त रहते हुए न्यायमूर्ति एनके महरोत्रा अपनी रिपोर्ट उत्तर प्रदेश सरकार को सौंप चुके हैं। सपा सरकार पर माध्यमिक शिक्षा की पुस्तकों में हजार करोड़ का घोटाला करने का गंभीर आरोप लग चुका है जिसमें माध्यमिक शिक्षा विभाग के अधिकारियों और मेरठ के प्रकाशन माफिया की साठगांठ उजागर हो चुकी है। पाठ्यपुस्तकों के भ्रष्टाचार पर अभिभावकों का कहना है कि प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता व स्कूल प्रबंधन की साठगांठ से पुस्तकों की सूची सार्वजनिक नहीं की जाती है। स्कूल में पुस्तक खरीदने के बाद जो बिल (मूल्य सूची) थमाते हैं उसमें विषय का नाम व मूल्य दिया होता है। टाइटल व प्रकाशक के नाम का खुलासा नहीं किया जाता। सारा खेल कमीशन का है। नौनिहालों की शिक्षा और अभिभावक इस मकड़जाल में फंस गए हैं।