सम्पादकीय पर विज्ञापन इस कदर हावी है कि लगता ही नहीं कहीं पत्रकारिता हो रही है। ये दौर ऐसा है कि हर कुछ को चाटुकारिता की चाशनी में बार-बार डुबाया जाता है और इसे ही सच्चा बताकर पेश किया जाता है। पत्रकार बनने का सपना लिए हमने 5 साल माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल में गुजारे। काफी गुर भी सीखे। पत्रकारिता की बारीकियों को हमारे गुरुओं ने हमें दम भर सिखाया। इंटर्नशिप ट्रेनिंग के लिए हमें दिल्ली आजतक भी भेजा। लेकिन पढ़ा था कि विज्ञापन और सम्पादकीय दो अलग चीजें होती हैं। लेकिन जब सच्चाई का सामना हुआ तो दिल के टुकड़े हजार भी हुए। हर समय विज्ञापन हावी रहा सम्पादकीय पर।
कोई भी खबर लिखी जाती है तो हमेशा विज्ञापन वाली खबर और बिना विज्ञापन वाली खबर का ध्यान देना पड़ता है। ऐसा न करने की सूरत में अच्छी खासी डांट पिलाई जाती है। हर खबर में अगर आपने विज्ञापनदाता का ध्यान नहीं रखा तो बस आप की शामत आई समझो। कई बार बवाल तो नाम छापने और ना छापने को लेकर हो जाया करता है। ऐसा लगता ही नहीं की पत्रकारिता कर रहे हैं, लगता है की बस पूंजीपतियो के सम्मान में निकल रहे एक अखबार में टाइपराईटर बन दिन भर लिखे जा रहे हैं। ऐसे में जिस पत्रकारिता का सपना देखा था वो आज विज्ञापन की बेड़ियों में जकड़ दिया गया है। टीस तो दिल में रोज़ उठती है..। लेकिन करें क्या सिर्फ लिखना ही सीखा है, और कोई काम आता ही नहीं।
प्रवीण श्रीवास्तव
Praveen Srivastava
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