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सुख-दुख

क्या विनोद दुआ औसत क़िस्म के पत्रकार थे?

जे सुशील-

मैं बहुत दिन से कहना चाह रहा था जबकि मुझे पता है कि कई लोगों को बुरा लगेगा फिर भी…..

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मैं देश के लिए खाता हूं ये जुमला निहायत ही घटिया है. पत्रकारिता की दृष्टि से भी और भाषा के हिसाब से भी. बाद बाकी वो जायका इंडिया का भी एक औसत कार्यक्रम था. उस कार्यक्रम की स्क्रिप्ट निकाल कर देख लीजिए. भाषा के नाम पर वही चार पांच लाइनें हैं- वाह वाह..इसमें अदरक की छौंक है. लहसन का तड़का है. वाह वाह. सौंधी जो गमक है. आदि आदि आदि.

(भोजन पर ही कार्यक्रम देखना हो तो एपिक चैनल पर पुष्पेश पंत के कार्यक्रम गूगल कर के देख लीजिए. समझ में आ जाएगा कि भोजन को लेकर जानकारी कैसे शेयर की जाती है. भाषा और भोजन पर पकड़ किसे कहते हैं आदि आदि आदि)

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बाद बाकी उन्होंने पूर्व में जो बढ़िया एंकरिंग की है नब्बे के दशक में वो अच्छा है. मैंने एकाध क्लिप देखी पिछले दिनों. उस ज़माने में मेरे घर में टीवी नहीं था तो मैंने देखा नहीं था तब और वैसे भी जब वो अकेले ही हिंदी में थे एंकर करने वाले चुनाव के दौरान तो आप उन्हें हिंदी का ब्रम्हा घोषित कर लें और साथ में प्रणय राय को विष्णु या जैसा आपको सहूलियत लगे.

परख कार्यक्रम के एकाध एपिसोड देखे थे मैंने और उस कार्यक्रम से कई अच्छे पत्रकार निकले बाद में.

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मैंने जो एनडीटीवी के उनके कार्यक्रम देखे आठ बजे वाले वो न तो पत्रकारिता के आदर्श कार्यक्रम थे और न ही किसी और स्तर पर वो महान कहे जाने लायक थे. उससे बेहतर कार्यक्रम उसी चैनल पर रवीश कुमार कर रहे थे.

जन गण मन और भी औसत कार्यक्रम था. लेकिन हिंदी में कुर्सी पर बैठ कर ज्ञान देना और उसे देखना कई लोगों को पसंद है तो इसमें क्या किया जाए. जब हिंदी के लोगों को ध्रुव राठी के वीडियो पसंद आ रहे हों तो देश का कुछ नहीं हो सकता ये मैं पहले भी कह चुका हूं.

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बाद बाकी वो गाना गाते थे. बुलेट खरीद चुके थे. शेरो शायरी करते थे. ये सारे काम दुनिया में बहुत सारे पत्रकार करते हैं. सबके जाने के बाद ये सब पता चल ही जाता है.

कायदे से मुझे ये सब लिखना नहीं चाहिए था क्योंकि मैं जानता हूं कि……….लेकिन फिर वही सोचता हूं कब तक औसत को औसत न कहा जाए.

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नोट- मैंने मी टू का जिक्र नहीं किया जानबूझकर क्योंकि उस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है. एक लाइन जो लोगों ने नहीं बताई वो ये कि वायर ने जब दफ्तर में कमिटी बनाकर जांच शुरू की तो उस कमिटी के सामने हमारे दिग्गज पत्रकार पेश नहीं हुए थे.

इसी तरह के दूसरे मामले में आप सभी को वरूण ग्रोवर याद होंगे जो कोर्ट गए और उनके खिलाफ आरोप लगाने वाला ही कोर्ट में नहीं आया. इस मामले में मैं वरूण ग्रोवर का फैन हूं.

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मेरे अंदर मवाद भरता जा रहा था तो लगा कि निकाल देना चाहिए.

चुनिंदा प्रतिक्रियाएँ-

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डाक्टर चंदन शर्मा- बुराई ढूंढने निकलेंगे तो बुराई ही दिखेगा। सोशल मीडिया ने यही दिखाया-सिखाया है। लता से सचिन तक, मदर से सत्यार्थी तक, गांधी से कलाम तक सबमें बुराई खोज ली गई। बाकी आलोचना से परे कोई नहीं है न ही होना चाहिए। हां, दुआ साब की तमाम खूबियों में एक यही काफी है कि वो शांत व सौम्य तरीके से कैमरे पर अपनी बात जीवनपर्यंत रखते रहे। सत्ता से सवाल पूछने का पत्रकारीय धर्म भी निभाते रहे।

जे सुशील- अगर आपको इस पोस्ट से ऐसा लग रहा है कि मैं किसी की बुराई खोज रहा हूं तो आपसे यही कह सकता हूं कि खुशवंत सिंह की लिखे कम से कम पांच लेख पढ़ें जो उन्होंने सेलिब्रिटियों के मरने के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है. …….उन्होंने जो अच्छा काम किया वो अपनी जगह है लेकिन ये कहना कि उनका हर काम महान था मसलन उनका जन गण मन या जायका इंडिया का निहायत ही बकवास बात है. बाद बाकी पिछले बीस साल में जी हां बीस साल में उन्होंने जो कार्यक्रम किए उसमें किस नेता से उन्होंने कठिन सवाल पूछे हैं ये बताइए. एनडीटीवी में उनका कार्यक्रम था आठ बजे का शो. उसमें कोई नेता नहीं आता था. प्रवक्ता आते थे. जन गण मन कुर्सी पर बैठकर ज्ञान देने का कार्यक्रम हुआ करता था. आदि आदि आदि. नब्बे के दशक में दूरदर्शन के समय मे में उन्होंने नेताओं से सवाल पूछे हैं. वो बहुत अच्छा काम रहा.

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डाक्टर चंदन शर्मा- किसी पोस्ट पर कमेंट करने में समस्या यह भी है कि लोगबाग कई बार व्यक्तिगत ले लेते हैं। खुशवंत सिंह को पढ़ा है। यह एक विधा भी और ट्रेंड भी है। दुआ साहब ने भी अटल जी पर ऐसा ही कुछ कहा था। पर व्यक्तिगत तौर पर मैं किसी के इह लोक से चले जाने के बाद भी बुराई देखना पसंद नहीं करता। बाकी आप बेलाग लपेट लिखते हैं, और मुझे पसंद भी हैं।

जे सुशील- इस हिसाब से दुआ साहब को मेरी ये श्रद्धांजलि अच्छी लगनी चाहिए. वैसे आप तो जानते ही है- Personal is Political. ट्रेंड है ऐसा कहना ठीक नहीं है लेकिन इस तरह की पोस्टों के जिम्मेदार हमारे समय के बड़े पत्रकार और सोशल मीडिया सेलिब्रिटी लोग हैं जो बाल ठाकरे जैसे नेताओं को भी मरने के बाद महान से नीचे नहीं बताते हैं. अतिशयों के दौर में किसी को तो कहना होगा कि हर मरने वाला महान नहीं होता है. ट्रेंड के हिसाब से मुझे इरफान पर भी ऐसा लिखना चाहिए था लेकिन उस आदमी के जाने का दुख समझ में आता है. ऐसी कई और मौतें हैं जब मुझे ऐसी पोस्ट लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ी.

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मनोज कुमार- आपने एक कार्यक्रम का जिक्र नहीं किया – ‘जनवाणी’| दूरदर्शन पर यह कार्यक्रम प्रसारित हुआ करता था| राजीव गाँधी वाले कांग्रेस का दौर था| मेरी पीढ़ी ने पहली बार देखा कि बड़े मंत्रियों और नेताओं से सीधे सपाट हिन्दी में भी बेलाग प्रश्न पूछे जा सकते हैं| वह पहला न्यूज़ कार्यक्रम था जिसने दूरदर्शन पर दर्शकों का सशक्तीकरण किया – वह भी उस दूरदर्शन पर जिसे तब ‘राजीवदर्शन’ कहा जाता था| वह सेटेलाइट टीवी के पदार्पण से पहले का भारत था जिसे हमारी पीढ़ी ने देखा और महसूस किया है| विनोद दुआ की शुरुआत ‘जनवाणी’ से हुई थी, ‘परख’ से नहीं| वह प्रिंट पत्रकारिकता से आगे और सेटलाइट टेलीविजन से पहले के पत्रकार थे| आपने व्यंग्य में कहा है, लेकिन विनोद दुआ उस पत्रकारिता के ब्रह्मा जरूर थे जो नेताओं से लाइव टीवी पर सपाट, बेलाग हिन्दी में सवाल पूछने वाली पत्रकारिता थी, जिसे आगे चलकर लपंट पत्रकारों ने विद्रूप और तमाशे में तब्दील कर दिया| मैं पत्रकारिता का प्रोफेशनल नहीं, quintessential दर्शक और पाठक हूँ| इस टिप्पणी को उसी सन्दर्भ में पढ़िएगा|

जे सुशील- जनवाणी का जिक्र कुछ और लोगों ने किया है. नब्बे के दशक में मेरे घर में टीवी बहुत देर से आया था और जब टीवी आया तब तक जीटीवी आ चुका था. हमारे जैसे लोग हिंदी पट्टी के भी अत्यंत पिछड़े इलाके से आते हैं. चुनाव कवरेज के दौरान दूसरे के घरों में फिल्में देखने के लिए जाते थे. बीच में चुनाव परिणाम आते तो हम लोग भाग जाते थे क्योंकि बहुत छोटे थे हम लोग उस समय. इस कारण जनवाणी पर टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा मेेरे लिए. मैंने इसी आधार पर लिखा है- “बाद बाकी उन्होंने पूर्व में जो बढ़िया एंकरिंग की है नब्बे के दशक में वो अच्छा है.मैंने एकाध क्लिप देखी पिछले दिनों. ” इस संदर्भ में ये कहना भी उचित होगा कि जब वो एनडीटीवी पर आठ बजे एक शो करते थे तब भी वो ये काम कर सकते थे लेकिन उस कार्यक्रम की पहचान ये बन गई थी कि वो कार्यक्रम के अंत में कौन सा पुराना हिंदी का गाना बजाते हैं.

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Manoj kumar- Janwani programme in the DD was the idea of a DD staffer Kuber Dutt, a sort of Hindi poet also. HKL Bhagat was the I&B minister. Kuber Dutt was shunted out to Lucknow to make space for Bhagat’s candidate Dua.

Priyamvad Ajaat- ज़ायका इंडिया का वाले कार्यक्रम को लेकर मेरी राय भिन्न है… उसमें केवल लहसुन प्याज़ की छौंक वाली बात ही नहीं थी…बाक़ी जो है वो है ही…

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जे सुशील- निहायत ही औसत कार्यक्रम है. आप पुष्पेश पंत के कार्यक्रम देख लें. हर भोजन को मुंह में डालने के बाद वही स्क्रिप्ट- इसमें सौंफ की गंध और इलायची का जायका है आदि आदि आदि.

Priyamvad Ajaat- पुष्पेश पंत के कार्यक्रम निश्चित ही बेहतर हैं…देखा है।

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जे सुशील- मैं तो पुष्पेश पंत के कार्यक्रमों को भी महान नहीं मानता और उनसे कह चुका हूं. उनके कार्यक्रम में भी गुंजाइश होती है बेहतरी की. उनके कार्यक्रमों की तुलना में जायका इंडिया का औसत कार्यक्रम था है और रहेगा. बाद बाकी मैं देश के लिए खाता हूं निहायत ही वाहियात लाइन है……not at all funny. full of himself kind of a line. something like Ravish saying- I write for country. How obnoxious is that.

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