Avinash Mishra : मैं वीरेन डंगवाल की छाया से मिला। यह अलग तथ्य है कि उनकी कविता से आश्नाई पुरानी थी। लेकिन इस आश्नाई के साये में कभी उन तलक पहुंचने की सूरत नहीं बनी। साल 2009 में जन संस्कृति मंच के एक तीन दिवसीय फिल्म समारोह को देखने जब मैं दिल्ली से लखनऊ तक गया था, तब कहां पता था कि महज हवा बदलने के लिए की गई यह यात्रा वीरेन दा से मेरी पहली मुलाकात का सबब बनेगी। वहां ‘हिरावल’ समूह द्वारा प्रस्तुत वीरेन दा की कविता ‘हमारा समाज’ का प्रभाव अब भी कभी-कभी याद आता है। यह पढ़ते ही जुबान पर चढ़ जाने वाली कविता है। वीरेन दा की कविता-सृष्टि में ऐसी कविताओं की संख्या और उनका पाठकों पर पड़ने वाला प्रभाव समकालीन हिंदी कविता में अद्वितीय है।
इस फिल्म समारोह और इस कविता की प्रस्तुति के अवसर पर वीरेन दा मौजूद थे। उनका तीसरा और अब तक अंतिम कविता-संग्रह ‘स्याही ताल’ भी इसी समय आया था। यह संग्रह सभागार के बाहर बिक्री के लिए मौजूद था। मैंने इस संग्रह की एक प्रति खरीदी और इस पर वीरेन दा के दस्तखत के बहाने उनसे मिलने की सोच ससंकोच उनकी ओर बढ़ा। वह कुछ युवाओं और कुछ युवतमों से घिरे थे। इस घेराव के किंचित कम होते ही मैंने सलाम कर उनकी कविता से अपनी आश्नाई के बारे में उन्हें बताया। इस पर उन्होंने कस कर मेरे हाथ को अपने हाथों से दबाया और कहा कि ‘‘बस हौसला बढ़ा देते हो यार तुम लोग…।’’
इस कथ्य की शुरुआत ‘मैं वीरेन डंगवाल की छाया से मिला’ जैसे वाक्य से करने की जरूरत यूं हुई कि जब उनसे मुलाकातों और बातचीत का सिलसिला ठीक-ठीक बनना शुरू हुआ, तब तक वह एक गंभीर बीमारी की चपेट में आ चुके थे। मैं अपने आस-पास के परिचितों से बस यही सुनता रहा कि एक समय के वीरेन डंगवाल से अगर तुम मिले होते तब जानते कि वीरेन दा किस तरह की शख्सियत हैं। उन्हें लेकर मेरे आस-पास इतने अनूठे संस्मरण और किस्से होते कि मुझे लगता कि मैं वीरेन डंगवाल से नहीं उनकी छाया से मुखातिब हुआ।
साल 2009 की उस पहली मुलाकात के चार साल बाद जब उनसे दूसरी बार मिला तब पहली बार वाले वीरेन दा लगभग आधे हो चुके थे। कैंसर ने उनकी देह को बहुत कमजोर कर दिया था। लेकिन उनकी जिंदादिली और सब हालात में खड़े रहने, लड़ते रहने का जज्बा उनमें पहले की तरह ही बरकरार था, बल्कि पहले से भी कहीं ज्यादा। इस मौके पर उन्होंने कहा कि ‘‘ये दुनिया बहुत नागवार लगती है, लेकिन है बहुत सुंदर…।’’
इसके बाद भी बीच-बीच में उनसे मिलना-जुलना होता रहा। हर बार कोई ऐसा वाक्य, कोई ऐसी बात, कोई ऐसा अनुभव वह देते जो बहुत काम का और बहुत मार्मिक लगता। कहीं किसी कवि के बारे में उसके ही समकालीन एक कवि का बयान पढ़ा था जिसमें उसने अपने उस दिवंगत साथी-कवि के लिए कहा था कि उसे केवल कवि बने रहने से ही संतोष नहीं था, वह मनुष्य भी बने रहना चाहता था। वीरेन दा भी ऐसे ही कवियों में से थे जिनके लिए केवल कवि होना भर पर्याप्त नहीं था, बल्कि मनुष्य बने रहना भी उनके लिए एक जरूरी कार्यभार था।
वीरेन दा के न रहने पर जैसा शोक हिंदी-जगत में उमड़ा और जैसे तरीकों से उन्हें याद किया गया, यह प्रमाण है कि वीरेन दा के चाहने वालों का विस्तार कहां-कहां तक था। उनकी स्मृति में आयोजित शोकसभाओं में बोलने वालों की कतार इतनी लंबी नजर आई कि ये सारी शोकसभाएं अपनी तय समयावधि से बहुत प्रदीर्घ हो गईं, जबकि यह भी एक तथ्य है कि वीरेन डंगवाल अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से एक ऐसा असर छोड़कर गए कि उन्हें अलविदा नहीं कहा जा सकता…।
(वीरेन दा पर कुछ कहने के आग्रहों और दबावों के बीच 28 सितंबर 2015 से 28 सितंबर 2016 के बीच लिखी जाती रही एक अब तक अप्रकाशित और अधूरी टिप्पणी)
चर्चित युवा कवि अविनाश मिश्रा की एफबी वॉल से.
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