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उत्तरकाशी के टनल में फंसे मजदूरों को निकालने में देरी और गलतियां मीडिया संस्थानों के लिए खबर नहीं है?

संजय कुमार सिंह

यह विकास है या विकास की कीमत?

21 जुलाई 2006 को प्रिंस नाम का एक बच्चा 60 फीट गहरे बोरवेल में गिर गया था। भारतीय सेना ने 23 जुलाई को उसे बाहर निकाल लिया था। टेलीविजन पर इस घटना का इतना शोर था कि किसी के लिए किसी चूक की गुंजाइश नहीं थी और सब कुछ फटा-फट हुआ। इसके बाद भी ऐसी घटनाएं हुईं पर उनकी चर्चा वैसे नहीं हुई। यहां तक कि हाल में प्रिंस नाम का एक और बच्चा बोरवेल में गिरा था। उसे भी बचा लिया पर उसकी चर्चा नहीं हुई।

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वैसी चर्चा तो उनकी भी नहीं है जो दिहाड़ी कमाने के लिये विकास के काम में लगे थे और इतवार से फंसे हैं। ये एक-दो नहीं, 40 लोग हैं जो झारखंड, उत्तर प्रदेश, उड़ीशा, बिहार, बंगाल, उत्तराखंड, असम और हिमाचल प्रदेश के हैं। ये खेलते हुए नहीं फंसे हैं, बच्चे नहीं हैं और सरकार व देश के लिए काम कर रहे थे। फंसना उनकी किस्मत हो सकती है लेकिन संभव है कारण किसी की लापरवाही रही हो और उन्हें निकालने की कोशिशों में लापरवाही तो दिख ही रही है। उसपर आने से पहले बता दूं कि आज के अखबारों में खबर है, आदिवासियों के लिए 24,000 करोड़ की योजनाएं, प्रधानमंत्री का यह दावा कि हमने पांच साल में 13 करोड़ लोगों को गरीबी से निकाला है। 80 करोड़ लोग मुफ्त के सरकारी राशन पर पल रहे हैं तो क्या हुआ?    

आइये, इन दावों और घोषणाओं के बीच देखें कि विकास में योगदान देने वाले लोग कहां फंसे हैं और उन्हें निकालने के लिए क्या कुछ हो रहा है और उसी से समझिये कि क्या नहीं हो रहा है और ऐसे में प्रचार कितना जबरदस्त हो रहा है। जाहिर है, यह सब खबरों की कीमत पर हो रहा है और आप मान सकते हैं कि यह विकास की कीमत है। पर हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक कुछ और बताता है। हिन्दी में यह कुछ इस तरह होगा – देरी, गलतियों के कारण राहत अभियान बाधित, मजदूर अभी भी उत्तरकाशी के टनल में फंसे हुए हैं। खबर के अनुसार बचाव के दो अभियान नाकाम हो चुके हैं। फंसे मजदूरों के परिवार और सहयोगियों को विरोध प्रदर्शन करना पड़ा। कारण चाहे जो हो यह तथ्य है कि चांद पर पहुंचने का दावा करने के कुछ ही समय बाद मौत के मुंह में फंसे लोगों को निकालने की कोशिशें नाकाम हो जा रही हैं। उसमें देरी और गलतियां हुई हैं तथा यह मीडिया संस्थानों के लिए खबर नहीं है या सबसे प्रमुख खबर नहीं है। 

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द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार उत्तराखंड के बरकोट के बीच 4.5 किलोमीटर का सुरंग बनाने का काम चल रहा था। यह चार धाम प्रोजेक्ट का भाग है और दुतरफा सड़क है जो गंगोत्री और यमुनोत्री के बीच सड़क मार्ग को 26 किलोमीटर छोटा करेगा। सुरंग का व्यास 14 मीटर है। 12 नवंबर को सुबह 5.30 बजे इसका एक हिस्सा धंस गया और इसमें 40 मजदूर फंसे हुए हैं। सड़क बनाने का काम एक प्राइवेट कंपनी कर रही थी लेकिन फंसे हुए मजदूरों को निकालना देश का काम है। इसमें नेशनल डिजास्टर रिलीफ फोर्स और उत्तराखंड डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी लगे हुए हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स के अनुसार बुधवार शाम 5.00 बजे मजदूरों को फंसे हुए 84 घंटे हो चुके थे।

निर्माणाधीन सुरंग का धंस जाना सामान्य नहीं है पर धंस जाने की स्थिति में क्या किया जाना है यह पहले ही तय होना चाहिये था और उसकी तैयारी होनी चाहिये थी पर द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार धंसने का कारण नहीं मालूम है पर प्रभाव का आकलन टाला गया है। जो भी हो, राहत और बचाव के लिए  मलबे को हटाना है तथा और मलबा गिरने से रोकना है। बचाव कार्यकर्ताओं ने 20 मीटर तक के मलबे से रास्ता बनाया पर वह धंस गया। अब योजना है कि एक के बाद एक पाइप लगाकर निकलने का रास्ता बनाया जाये। इस दिशा में तीन कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। फंसे मजदूरों तक पाइप के जरिये ऑक्सीजन, खाने के पैकेट आदि भेजे जा रहे हैं। चिन्ता में पड़े लोगों से वॉकी टाकी के जरिये बात की जा रही है। पर कोशिशें नाकाम हो जा रही हैं और तब दूसरी कोशिश शुरू हो रही है। यह राहत कार्यों की कमजोरी है। फंसे लोगों के प्रति गंभीरता की कमी है।

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यही नहीं, घटना के कई दिनों बाद दिल्ली से एक ड्रिलिंग मशीन ले जाई गई ताकि नाकाम हो चुकी मशीन की जगह ले सके। यह मशीन बेहद धीमी थी सो अलग। यही नहीं, सुरंग के अंदर गिरते मलबे से न सिर्फ मशीन क्षतिग्रस्त हुई बल्कि दो राहत कार्यकर्ता घायल भी हुए। इससे आप राहत कार्यों का स्तर और उसकी गुणवत्ता का अनुमान लगा सकते हैं। खबर से लगता है कि राहत के लिए मशीनों की व्यवस्था कंपनी ही कर रही है और अगर ऐसा है तो इसमें समय लगना और एक-एक कर व्यवस्था होना सामान्य बात है। कायदे से 40 लोगों की जान बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी जानी चाहिये जो होता नहीं लग रहा है। और दुर्भाग्य से यह खबर भी नहीं है।

दिलचस्प यह भी है कि मजदूरों को निकालने के लिए तीन प्लान बनाये गये थे और तीनों नाकाम हो चुके हैं। क्या इसी तरह योजना बनती रही और नाकाम होती रही तो मजदूर सुरक्षित निकाले जा सकेंगे? तीन-तीन योजनाओं का नाकाम होना और उसके बाद चौथी की व्यवस्था करना वैसे भी खबर है लेकिन वह भी नहीं हो रही है।  वैसे सरकार का काम है विकास करना और सरकार उसमें कोई कसर नहीं छोड़ रही है। मुद्दा यह है कि खबर कहां छप रही है या क्यों नहीं महत्व पा रही है। क्या यह साधारण है कि सबके बावजूद उत्तराखंड की यह खबर द टेलीग्राफ और हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर है।  

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