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सियासत

75 साल इप्टा के

‘जो पुल बनाएंगे

वे अनिवार्यतः पीछे रह जाएंगे

सेनाएं हो जाएंगी पार

मारे जायेंगे रावण

जयी होंगे राम

जो निर्माता रहे

इतिहास में बंदर कहलायेंगे’।

-‘अज्ञेय’

<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({ google_ad_client: "ca-pub-7095147807319647", enable_page_level_ads: true }); </script><p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">‘जो पुल बनाएंगे</span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">वे अनिवार्यतः पीछे रह जाएंगे </span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">सेनाएं हो जाएंगी पार</span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">मारे जायेंगे रावण </span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">जयी होंगे राम </span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">जो निर्माता रहे </span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">इतिहास में बंदर कहलायेंगे'।</span></strong></p> <p style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: 12pt;">-'अज्ञेय'</span></strong></p>

‘जो पुल बनाएंगे

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वे अनिवार्यतः पीछे रह जाएंगे

सेनाएं हो जाएंगी पार

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मारे जायेंगे रावण

जयी होंगे राम

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जो निर्माता रहे

इतिहास में बंदर कहलायेंगे’।

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-‘अज्ञेय’

‘अज्ञेय’ की इन पंक्तियों से बात शुरू करने पर कुछ लोग की पेशानी पर बल पड़ सकते हैं लेकिन इन पंक्तियों से सटीक कोई और पंक्ति जन संस्कृति दिवस की अहमियत को इंगित करने के लिए मेरे पास नहीं है| 25 मई को भारतीय जन नाट्य संघ, ‘इप्टा’ का स्थापना दिवस रहा। इसे देश भर में संस्कृति कर्मी जन संस्कृति दिवस के रूप में मनाए। हालांकि आज संस्कृति पर जिस तरह से एक ख़ास वर्ग का फासीवादी प्रभुत्व स्थापित हो चुका है वहां संस्कृति की हटकर कोई भी विवेचना राष्ट्र द्रोही और संस्कृति द्रोही घोषित किये जाने के खतरे तक ले जा सकती है लेकिन राष्ट्र और संस्कृति दोनों को बचाने के लिए हर संस्कृति कर्मी को इस खतरे से टकराना ही होगा। ठीक उसी तरह जिस तरह से आज से ७५ बरस पहले “इप्टा” अपनी स्थापना के समय औपनिवेशिक सत्ता के उत्पीडन से टकराई थी।

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‘इप्टा’ मात्र रंगकर्मियों, संगीतकारों, साहित्यकारों, कलाकारों का संगठन मात्र नहीं था बल्कि एक संगठन  बतौर यह राष्ट्र और समाज की मुक्ति का स्वप्न भी था। 25 मई १९४३ को मुम्बई में इप्टा की जब औपचारिक स्थापना की गई तब उस समय के कला और लेखन के क्षेत्र के आइकान समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित करते हुए “इप्टा” के आन्दोलन से जुड़े थे, जैसे- ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रविशंकर, कैफी आजमी, ए के हंगल, साहिर लुधियानवी, दीना पाठक, विमल रॉय, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, शंभू मित्रा, होमी भाभा, बलराज साहनी, प्रेमधवन, सलिल चौधरी, चित्तो प्रसाद, हेमंत कुमार, उत्पल दत्त, रित्विक घटक, तापस सेन, उदयशंकर, आदि।

एक आन्दोलन के रूप में इप्टा औपनिवेशिक शासन से आजादी के साथ सामाजिक और आर्थिक असमानता से भी आजादी का सवाल उठाते हुए देश की सांस्कृतिक फिज़ानव निमार्ण कर रही थी। अछूत और कलात्मक समझे जाने वाले विषय और लोग दोनों ही कला की दुनिया में केंद्र में स्थापित हो रहे थे। श्रम और श्रमिक की मंच पर प्रतिष्ठा हो रही थी कला और साहित्य का नया सौन्दर्य शास्त्र रचा जा रहा था। कला और मंच पर अभिजात्य की इजारेदारियां टूट रही थी। विपन्न, शोषित वर्ग जब कला का सृजन करता है उसमे एक द्रोह और दुःख होता है प्रतिशोध की धमक होती है। ‘इप्टा’  पुरानी संवेदना से अलग नये जमाने के स्वप्न और सम्वेदना से कला को आंदोलित कर रहा था। कला अपनी जकड़न से मुक्त होकर सम्भावना के  नये क्षितिज तलाश रही थी।

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आज भी ‘इप्टा’ की स्प्रिट वही है। बकौल शबाना आजामी- “इप्टा सिर्फ रंगमंच नहीं है विचार है। ऐसा विचार जो कला के माघ्यम से दुनिया को बदलना चाहती है।“ इसी विचार की पृष्ठ भूमि से जन संस्कृति दिवस की अवधारणा ने जन्म लिया है| जन और संस्कृति दोनों एक दूसरे से असम्पृक्त होकर अपनी शक्ति और सम्भावना से स्खलित होते हैं। दोनों की मुक्ति एक दूसरे में निहित है।

जन की तरह संस्कृति भी जंजीरों में जकड़ी जाती है। उसे उसके मूल से विछिन्न कर कृत्रिम वातावरण में विकसित किया जाता है और वह विपणन का पण्य होकर उपभोक्ता तैयार करने की मशीन बना दी जाती है। संस्कृति के  छाते के नीचे उस समाज के समूचे सामाजिक आचार व्यवहार और मानक समाहित होते हैं इस तरह से हर संस्कृति के दो रूप हैं  भौतिक और अधिभौतिक। भौतिक रूप में संस्कृति में समाज की समूची भौतिक उपलब्धियां शामिल है जिसे एक अर्थ में हम सभ्यता भी कहते हैं अधिभौतिक रूप में हमारे सभी जीवन मूल्य , कला, संगीत, साहित्य, दर्शन, धर्म, रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व विचार , आदर्श , आदि सम्मलित किये जा सकते हैं | इस तरह से यह हमारे जीने और सोचने का समग्र संकुल होकर हमारे देशकाल के मूर्त-अमूर्त की अभिव्यक्ति भी है।

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संस्कृति जैसा कि अपने नाम से ही ध्वनित है बनायी हुई होती है। यह सामाजिक प्रक्रिया द्वारा अर्जित और निरंतर विकसित की जाती हैं | यह प्रकृति का विलोम नहीं तो उसका पूरक अवश्य रचती है | पीढ़ी दर पीढ़ी सामाजिक व्यवहार की विशिष्टताओं के रूप में इसका निगमन होता है। यह संचय, विकास और क्षरण में गतिमान रहते हुये हमारी सामाजिक सरंचना और वैयक्तिक जीवनपद्धति का व्यवस्थापन करती चलती है। आदिम रूप में इस तरह जन अपनी संस्कृति को रचते है और संस्कृति अपने जन को रचती है। मैक्सिम गोर्की इसे ही लक्ष्य कर कहते हैं –‘संस्कृति की निर्मात्री जनता है।’

लेकिन आदिम समाज की टूटन के साथ जैसे जैसे वर्ग समाज का उदय होता है जन और संस्कृति का यह सीधा सरल सम्बन्ध टूटने लगता है और  शासक वर्ग संस्कृति पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए उसे अपने वर्गीय हितो का औजार तक बना डालता है | इस प्रक्रिया और आंतरिक संघर्ष में संस्कृति के दो छोर निर्मित हो जाते हैं एक पर आभिजात्य संस्कृति होती है तो दूसरे पर लोक संस्कृति | कालान्तर में मीडिया और जन संचार के माध्यमो ने संस्कृति का एक और स्वरूप विकसित किया जिसे लोकप्रिय संस्कृति यानी पापुलर कल्चर या पॉप कल्चर कहा गया | हमारे देश में इसकी ताज़ा मिसाल फ़िल्मी कल्चर है जिसने शादी –ब्याह,नाच-गाने के नये पैटर्न सर्व ग्राह्य बना दिये |

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मैथ्यू आर्नल्ड अपनी पुस्तक ‘कल्चर और एनार्की’ पुस्तक में पॉपुलर  कल्चर को विद्यमान प्रमुख संस्कृति के संदर्भ में रेखांकित करते हुए पॉपुलर कल्चर के उदय को ब्रिटेन की उद्योग क्रांति या आर्थिक क्राति के संदर्भ में देखते हैं। वर्ष 1860 तक ब्रिटेन की संसद में वोट का अधिकार नगर के कुछ संभ्रान्त-कुलीन एवं शिष्ट लोगों को ही प्राप्त था लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के साथ मध्यवित्तीय वर्ग के महत्व एवं कामगार वर्ग के उदय के कारण इस व्यापक वर्ग ने भी ब्रिटेन संसद में वोट के अधिकार की मांग की। मैथ्यू आर्नल्ड इसके पक्ष में नहीं थे। उनका तर्क था कि इस वर्ग के पास पर्याप्त अनुभव नहीं है और इस अनुभवहीन, अपरिपक्व बौद्धिकता को यदि यह अधिकार मिलता है तो अराजकता की स्थिति संस्कृति में भी आ सकती है। अतः आर्नल्ड की कुलीन चेतना शिष्ट संस्कृति से बाहर की समस्त संस्कृति को ‘एनार्की’ के रूप में ही देख पाती है।

मैथ्यू आर्नल्ड ही नहीं वरन् उस युग के सभी प्रतिष्ठित संस्थानों ने पॉपुलर  कल्चर को शंका  की दृष्टि से देखा।मैथ्यू अर्ल्नाल्ड से आगे जाकर वाल्टर बिन्जामिन  पापुलर कल्चर के प्रतिरोधी प्रभाव को रेखांकित करते हैं। हम दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी देशो में संगीत में ‘ब्लूज’ का जो उभार देखते है उसमे अश्वेतो की पीड़ा और प्रतिरोध सहज चिन्हित है। लोकप्रिय संस्कृति पर आरोपो के जवाब में वाल्टर बेंजामिन कहते  हैं ‘पॉपुलर कल्चर जीवन का संस्कार करने वाली रही हैं, लोगों ने उसे और उसमें से बहुत कुछ चुना है। सब कुछ नकारात्मक होता तो लोग उसे आनंद का कारण न समझते।

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‘फासीवादी संस्कृति और सेकूलर पॉप संस्कृति’ में सुधीश पचौरी एंजेला मैकरोवा के मार्फत लिखते हैं-‘पॉपुलर कल्चर उत्तर आधुनिक स्थितियों में उन आवाजों का कलरव है, जिन्हें आधुनिकतावादी महावृत्तान्तों में दबा दफना दिया था जो मूलतः साम्राज्यवादी और पितृसत्तात्मक थे।‘ यहां उच्च और निम्न का भेद जाता रहता है। लेकिन लोक प्रिय संस्कृति को लोक या जन संस्कृति समझना भूल होगी।

एडार्नो इसी पापुलर कल्चर को मॉस कल्चर में देखते है और इसके उस चरित्र को रेखांकित करते है जिसे  सांस्कृतिक उद्योग की संज्ञा दी जाती है। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया में यह सांस्कृतिक उद्योग खूब फलता –फूलता है और स्थानिकता को प्रतिगामी बताकर हटाता चलता है | स्थानीय और लोक संस्कृति को हीन ठहरा दिया जाता। आज बाज़ार की सर्वग्रासी लोलुपता से संस्कृति और कला भी नहीं बच सकी है | और उसने कला-संस्कृति को भी उपभोग का विषय बना दिया है।

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रेमंड विलियन जहाँ संस्कृति के सामाजिक आधारों और उसके उपभोगवादी चरित्र की मीमांसा करते हैं | वे बताते है कि उपभोक्ता वादी संस्कृति के प्रभुत्व से कला और काव्य भी विच्छिन्न  (एलियनेशन) का शिकार हुए हैं और वे व्यापक सामाजिक प्रक्रिया से विच्छिन्न होकर उपभोग या आस्वाद की एक वस्तु बनकर रह गये हैं | वो धीरे से ‘आनर प्राइड’ में बदल जाती है और ‘विश करो डिश करो’ के  इंद्रजाल में बदल जाती है।  वहीं अन्तानियों ग्राम्शी ‘हेजीमनी’ की अवधारणा से यह बताते हैं कि किस तरह संस्कृति में लोक के जीवन मूल्य  प्रभु वर्ग यानी एलीट क्लास के मूल्यों द्वारा विस्थापित कर दिए जाते हैं।

‘इप्टा’  उस संस्कृति की वाहक है जिसका असली नायक श्रमजीवी और समाज की मुक्ति के लिए संघर्षरत कलाकार ,बुद्धिजीवी है | इस संस्कृति में व्यक्तिवादी आग्रह नहीं सामूहिक चेतना है। ‘आई शेल ओवर कम ‘ को पीटर सीगर जब ‘वी शेल ओवर कम’ बनाकर जन गीत बना देते हैं तो सर्व जन हिताय की यही सामूहिक चेतना अभिव्यक्त होती है | यहाँ कला विगत के विवेचन के साथ बेहतर भविष्य का आह्वान बन जाती है। जो समाज अपने विगत और भविष्य से प्रेम करता है वही अपनी संस्कृति से प्रेम कर सकता है और उसके लिए जोखिम भी उठा सकता है जैसा कहा जाता है – brave do not abndon their culture .

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इस तरह जनता की संस्कृति के प्रतिरोधी तत्वों की पहचान कर  जीवन विरोधी संस्कृति से मुकाबिला किये जाने की ज़रूरत है | इसके लिये संस्कृति कर्मी जनता की सामूहिक स्मृति में उतरता और उस स्मृति से प्रतिरोध रचना होगा   | औपनेवेशिक , उपभोक्ता संस्कृति जहाँ स्मृति हीनता रचती है वहीँ जन संस्कृति स्मृति रचती है | जन संस्कृति अपनी जीवन शक्ति लोक और विचार से ग्रहण करती है लोक में आज भी दीपक बुझाया नहीं बढ़ाया जाता है |वहां नदी-वृक्ष-पहाड़ का मानवीयकरण है|

रात को वृक्ष को सूना मना है क्योंकि वह सोया होता है | पृथ्वी पर पाँव रखने से पहले पृथ्वी की क्षमा याचना की जाती है | लोक इस तरह अपनी संस्कृति में अपने परिवेश को जीवंत बनाकर संस्कृति को भी जीवंत इकाई बना देता है | लेकिन लोक के अपने अन्तर्विरोध भी है अपना श्रेणीकरण और विभेद हैं | सामन्ती मूल्यों की प्रतिष्ठा है |जन संस्कृति इस श्रेणीकरण और विभेद का प्रतिवाद रचते हुए, प्रगतिशील मूल्यों को केंद्र में प्रतिष्ठित करती है | जन संस्कृति में कला का एक सामाजिक स्पेस है जिसमे सृजनात्मक आनन्द और सामाजिक सरोकार आपस में सम्पृक्त हैं।

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सर्वग्रासी और एलियेनेट करने वाली संस्कृति के विरुद्ध सम्भावना सिर्फ इसी जन संस्कृति में निहित है और कलाकारों ,बुद्धिजीवियों , लेखकों के लिए जन संस्कृति दिवस का संदेश भी है | कम से कम आज के दिन तो बकौल मेक्सिम गोर्की पूछा जा सकता है –

“कला के कर्ण धारों
तुम किस ओर हो ?
फासीवादियों के साथ
या
फासिवादियों से लड़ने वालों के साथ।”

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