Nadeem : ईमानदारी की जैकेट में बेईमीनी की जेब… लिखना नहीं चाह रहा था। अपनी ही ‘बिरादरी’ का मामला है, इसलिए दुविधा में था लिखा जाए या नहीं लेकिन उबाल मन में बार-बार इसलिए आ रहा था कि अगर किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में कुछ पता चले जो खुले तौर पर ‘धंधे-पानी’ के खेल में हो और वह खुद भी कुछ न छुपाता हो तो उसके बारे में मिली कोई जानकारी न आश्चर्य पैदा करती है और न ही कोई गिला शिकवा। लेकिन अगर यही जानकारी ऐसे शख्स के बारे में हो जो जो ऊपर से ईमानदारी की जैकेट पहने हो लेकिन अंदर बेईमानी की जेब लगाए हो तब गुस्सा आना लाजिमी हो जाता है।
घटनाक्रम कुछ यूं है कि दूसरे राज्य से निकलने वाले एक मंझाले दर्जे के अखबार के प्रबंधतंत्र ने मेरे एक दिल्ली के मित्र के माध्यम से मुझसे सम्पर्क किया। वह बस मेरी इतनी मदद चाह रहे थे कि उनके अखबार को यूपी सरकार से विज्ञापन का जो आरओ मिला है, वह सही है या नहीं? मुझे अजीब सा लगा। मैंने पूछा कि यूपी सरकार अगर विज्ञापन छापने के लिए आरओ दे रही है तो वह फर्जी कैसे होगा? उन्होंने बताया कि उनका सीधे यूपी सरकार से कोई सम्पर्क नहीं है, वह विज्ञापन एक शख्स के जरिए लेते हैं। अकेले वह ऐसा नहीं करते हैं बल्कि उनके राज्य के और कई अखबार वाले भी ऐसा करते हैं।
मैंने बात बात में पूछ लिया कि वह आदमी आरओ देने के लिए कितना लेता है तो उन्होंने कहा कि दस लाख का यह आर्डर है, तीन लाख उसको पहले दे दिये थे तब उसने दिया था। 30 परसेंट एडवांस का उसका खुला रेट है। मैंने कहा कि यह आदमी फ्राड होगा, तुम लोगों को ठग कर निकल गया तो उसने कहा कि ऐसा नहीं है, हम लोग उसी के जरिए विज्ञापन लेते हैं। वह अपना कट पहले लेता है। हमने कहा कि फिर इस बार शक कहां पैदा हुआ तो वह बोला कि हमने विज्ञापन छाप तो दिया लेकिन पेमेंट नहीं आ रहा है।
मैंने कहा कि फिर उस आदमी को फोन करो तो उन्होंने बताया कि वह फोन ही नहीं उठा रहा है पिछले कई हफ्तों से। मैंने कहा कि उस आदमी का नाम बताओ मैं अपने लखनऊ में बैठे क्राइम रिपोटर्स अंकुर या ज्ञानू को देता हूं, इस आदमी का सारा बैक ग्राऊंड सामने आ जाएगा तब वह बोले कि वह क्रिमनल नहीं, वह तो पत्रकार हैं, उनका खुद का भी अखबार है। फिर उन्होंने उनका नाम बताया। सच में उनका खुद का अखबार है। वह ईमानदारी का इतना जबरदस्त ढिढोरा पीटते हैं कि लगता है कि जिस रोज उनका अखबार बंद हो जाएगा निष्पक्ष पत्रकारिता अतीत का हिस्सा हो जाएगी।
हर रोज किसी न किसी से उसकी ईमानदारी का प्रमाण मांगते ही रहते हैं और एक प्रचार (दुष्प्रचार) यह भी कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के वह बिल्कुल खासुलखास हैं। दोनों लोग एक ही चारपाई पर बैठकर खाना खाते हैं। नाम मत पूछियेगा उस पत्रकार का, दिमाग पर जोर डाल कर सोचिएगा तो खुद ही जेहन में नाम आ जाएगा। मैं उस पत्रकार का तो कुछ नहीं कर सकता बस मैंने यह जरूर ठान लिया कि यूपी के मुख्यमंत्री से मेरी जब भी मुलाकात होगी लखनऊ से लेकर दिल्ली तक मैं उनसे यह सवाल जरूर पूछूंगा कि उनकी सरकार ने ऐसा कौन सा सिस्टम विकसित कर दिया है कि कोई एक अकेला बंदा 30 परसेंट कट पर राज्य सरकार के विज्ञापन बांटने की हैसियत में आ गया हो?
नवभारत टाइम्स दिल्ली के पॉलिटिकल एडिटर नदीम की एफबी वॉल से.