Mukesh Kumar : कई लोगों ने पूछा है कि आपने भारत रत्न पर कुछ क्यों नहीं लिखा। मेरा जवाब ये है कि ये विषय मुझे लिखने लायक ही नहीं लगता। बरसों से मेरी मान्यता रही है कि ये इनाम ओ इकराम सत्ता के खेल के हिस्से हैं, इनका योग्यता और योगदान से कोई संबंध नहीं होता। भारत रत्न से लेकर पद्मश्री तक और साहित्य अकादमी पुरस्कारों सेलेकर छोटे-मोटे पुरस्कारों तक की अंदर की राजनीति को अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि ये पक्षपात, पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के अखाड़े हैंं।
सरकार चाहे किसी की हो, उसके दिमाग़ में यही चलता है कि कैसे अपने लोगों को सम्मानित-प्रतिष्ठित किया जाए। वे इसके ज़रिए अपनी नीतियों और विचारधाराओं को वैधता प्रदान करने की जुगत में रहती हैं। इसलिए इ्न्हें गंभीरता से लिया ही नहीं जाना चाहिए। कुछ साल बाद लोगों को याद भी नहीं रहता कि किसे भारत रत्न दिया गया या नहीं। मेरा तो सुझाव है तत्काल प्रभाव से ये कुपरंपरा बंद कर दी जानी चाहिए।
और हाँ, धन्ना सेठों द्वारा बाँटे जाने वाले पुरस्कारों का भी यही हाल है। मीडिया हाउसों ने तो पुरस्कारों को पीआर एक्सराइज का ज़रिया बना लिया है। वे बड़ी-बड़ी इवेंट करती ही इसलिए हैं कि सेलेब्रिटी आएँ और वे उनके ज़रिए अपना शक्ति प्रदर्शन करें। कारवाँ के अंक में शेखर गुप्ता की घरेलू पार्टी और उसके ज़रिए संबंध बनाने का बढ़िया वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर ये व्यवस्था को चलाने वाले शासक वर्ग का हथकंडा है, जिससे पब्लिक को बेवकूफ बनाया जाता है और हम हैं कि बनते चले जा रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के फेसबुक वॉल से.