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वेब-सिनेमा

इरफ़ान तुमको याद करते हैं गुरु!

अनुराग अनंत-

रफ़ान को पहली बार चंद्रकांता में देखा था। उस समय सिर्फ देख सकता था समझना ढंग से नहीं आया था। ना अभिनय की कुछ समझ थी। ना आर्ट का सेंस। पर इरफ़ान की आंखों में दुनिया भर का चुम्बक था। इतना आकर्षण कि आपकी रगों में दौड़ता सारा लोहा वो अपनी ओर खींच ले। पर माया नगरी की अपनी ही माया है। इरफ़ान चंद्रकांता के बाद ढंग से हासिल में ही दिखे। साल 2001-2002 का रहा होगा। शूटिंग हो रही थी। हमारा घर इलाहाबाद के दारागंज में है। यहाँ बड़ी कोठी में उसकी कुछ शूटिंग हो रही थी। तिग्मांशु का इंटरव्यू जो लोग देखते हैं, उनको मालूम होगा वो लगभग हर इंटरव्यू में इलाहाबाद में हासिल की शूटिंग के ज़िक्र करते हैं। इलाहाबाद में दारागंज सबसे ज़्यादा रंगबाज़ इलाका है। गंगा के कछार पर बसा एक पुराना कस्बा, दाराशिकोह का नाम जिसके नाम के साथ नत्थी है। यहाँ गंगा अर्थव्यवस्था के केंद्र में है। यादव कछार में गाय-भैंस चराते हैं, और दूध का धंधा करते हैं। पंडा पुरोहिती से आजीविका चलाते हैं और मल्लाह नाव, मछली, कछार में खेती और दर्शनार्थियों के सहारे जीवन गुजारते हैं। गंगा आजीविका को एक स्थायित्व प्रदान करती है, इसलिए जीवन और रोज़गार की अनिश्चितता से उस तरह का संबंध इन लोगों का नहीं रहा है। कम से कम उस समय तो नहीं ही था।

गंगा के कछार में दारू की भट्टियां हैं। बालू के कारोबार में राजनीति और अपराध का गठजोड़ मोर्चे पर है। कुल मिलाकर हर व्यक्ति उतना दबंग है जितना आपके लिए अपराधी कहलाने के लिए पर्याप्त हो सकता है। जीवन साहस और दुःसाहस का पाला बदलता रहता है। तिग्मांशु बताते हैं कि शूटिंग के दौरान उस समय एक दिन कैमरामैन की पीठ पर थपकी पड़ती है और एक आदमी कहता है “बेटा किनारे हटो, लौंडा देखेगा क्या झाँकते रहते हो इसमें” इसपर कैमरामैन ने थोड़ा तीन-पाँच किया तो कमर में खोंसा कट्टा दिखा कर आदमी कहने लगा “देख रहे हो का लगाए हैं” उसके बाद उसका बेटा जी भर कैमरे में झांकने के बाद ही हटा” ऐसा था उस समय का माहौल। रंगबाज़ी के किस्से कहानियों में शाम गुजरती थी। लोग किवदंतियों की तरह जीते और मर जाते थे।

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मैं उस समय यही कोई आठवीं नौवीं में था। के.पी.इंटर कॉलेज में पढ़ता था। लड़कों के बीच विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं का ग़ज़ब का क्रेज़ था। रिंकू राय उसी के बाद महामंत्री का चुनाव लड़े थे। जेल से पर्चा भरा था। हमारे पिताओं के उम्र के लोग छात्रनेता थे। गाड़ियों के काफ़िले से चलते थे और सरकारें उनकी मुट्ठी में लगती थीं। इन लोगों का एक नेटवर्क था। जो दुकानों-कोचिंगों से पैसे लेने और बिल्डरों से चंदे लेने का काम करता था। उस समय विश्वविद्यालय के अध्यक्ष की हैसियत जिले में विधायक से ज़्यादा थी। सीधे मुख्यमंत्री से मुलाक़ात होती थी। जहाँ-तहाँ लोग चंद्रशेखर और वीपी सिंह का का नाम लेकर प्रधानमंत्री तक बनने की बात कह जाते थे। हम लोग आठवीं तक आते आते ग्रुप बना चुके थे और विश्वविद्यालय के भइया जी लोगों का हाथ तलाशने लगे थे। कुछ ग्रुप लीडर टाइप लड़के ये हाथ इंतज़ाम करने में सफल भी रहे थे। लंच में उस समय लड़के लड़ाइयों की तैयारी करते थे। हाथ से बम बनाने की ट्रेनिंग दी जाती थी और पर्याप्त बम बना कर कुलभास्कर, जीआईसी, केपी के मैदानों में छिपाने लगे थे। कुछ गुंडे किस्म के लड़के आसपास की दुकानों और लड़कों से वसूली भी करते थे। कुछ साल पहले कोमल यादव या सोनल सिंह नाम का एक लड़का हमारे ही कॉलेज का जीआईसी के लड़कों के साथ लड़ाई में बमबाजी करते हुए मारा गया था। और उसके बाद भी अन्ना, मोनू थापा, सुनील लंगड़ा, बॉक्सर, बिल्लू सीआईडी नाम के कई लड़के गुंडाई की इबारत लिख रहे थे। मतलब जवानी आने से पहले ही अंगड़ाई ले रही थी। कमर में कट्टा खोसने का एक अलग ही क्रेज़ था। कट्टा लगाते ही एक ग़ज़ब की झुरझुरी सी छूटती थी। तो उस समय जीवन जादूई यथार्थवाद के फॉर्मेट में चल रहा था।

ऐसे में हासिल फ़िल्म की शूटिंग शहर में शुरू हुई थी। तब किसी फ़िल्म की शूटिंग इलाहाबाद जैसे शहर में होना बड़ी चीज़ थी। पूरे शहर में एक कौतूहल था। इरफ़ान शहर की धड़कन पकड़ लेना चाहते थे। शायद ये फ़िल्म और इलाहाबाद का अंदाज़ उनकी अदाकारी में निर्णायक था। उन्होंने तिग्मांशु से इलाहाबाद चलने को कहा और शूटिंग से पहले ही शहर में आ गए थे। इरफान समझना चाहते थे वो मनोदशा जो इस तिलिस्मी शहर में फूटती जवानी की रगों में दौड़ती है। कैसे राजनीति का शुरूर चढ़ता है। विचार कितना और आचार-व्यवहार कितना है इस पूरे ढाँचे में। हम लड़के अपना कॉलेज छोड़कर विश्वविद्यालय के यूनियन हॉल पर इकट्ठा होने लगे थे। भइया जी के इशारा हमारे लिए नियति संकेत हो रहा था। यूनियन हॉल के पीछे थियेटर वाले लड़के अपने जीवन को मेहनत की भट्टी में गलाते रहते थे। शायरी और साहित्य विश्वविद्यालय की हवाओं में घुला था। मतलब पूरी फ़ज़ा में एक मख़मली जादू तैरता था। ऐसे में मुझे याद है इरफ़ान हरे रंग का कुर्ता पहने कमर में बंदूक का पट्टा लगाए (संभवतः नकली बंदूक) और बुलट लिए शहर भर में महाविद्यालय, कॉलेज, विश्वविद्यालय कैम्पस और डेलीगेसी में टहलते रहते। लोगों से बात करते, छात्रनेताओं से उनकी राजनीति, जीवन, भाषा, भाव-भंगिमा पर बात करते, उसका अध्ययन करते रहते। शहर के आम लोगों से लेकर साहित्य और रंगमंच से जुड़े लोगों से भी बतियाते रहते। शहर की बनावट और बुनावट को समझने और उसमें विश्वविद्यालय की राजनीति और छात्रनेताओं को लोकेट करते रहते।

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एक क़िस्सा उस समय सुना था सही है या ग़लत मुझे नहीं मालूम पर उस समय हमारे दारागंज में बहुत आम था। नाम तो इरफ़ान का मालूम नहीं था। लोग उन्हें “मेढ़क जैसी आँख वाला” हीरो कहते थे। तो हमारे यहाँ एक शराबी था। कन्हई कहते थे सब उसे। वो शाम को दारू पीने के बाद अंग्रेज हो जाता था। और निराला चौक पर खड़े होकर देश भर की राजनीति और नेताओं की ख़बर लेता था। दारू पीने के बाद उससे बड़ा दूसरा कोई और रंगबाज़ नहीं होता था। लोग कहते थे कि चौधरी चायवाले की दुकान के पास चाय पीते हुए इरफ़ान इस आदमी से मिल गए। कमर पर वही पिस्तौल का पट्टा बंधा हुआ था। जिसे देख कर कन्हई उखड़ गया। और इरफ़ान से उलझ गया था। बात करते करते उसने बगल में पड़ा हुआ गाय का गोबर हाथ में उठा लिया। और इरफ़ान मौके की नज़ाकत समझते हुए वहाँ से चल दिए। कुछ लोग ये भी कहते हैं उसने उनपर गोबर फेंका भी था। ख़ैर बात आई गई हो गई। इतना बड़ा स्टार, इतना बड़ा कलाकार हमारे बीच था। इसका अंदाज़ा उस समय नहीं था। बाद के दिनों में बार बार हज़ार बार हासिल देखते हुए उस समय को जीता रहा, जो जिया था। और हर बार ऐसा मससूस होता रहा जैसे किसी ने उस समय को रिकॉर्ड कर लिया है। एकदम हूबहू, एक इंच, एक रत्ती गंवाए बगैर। लोग उस समय साइकिल में कट्टा लगा कर चलते थे। कट्टा कर्ण का कवच था। जिसे लगा कर लोग अभय हो जाते थे। शहर की इलाकों के उपनाम थे जैसे मन्फोर्डगंज को बम फोड़ गंज कहते थे, कीडगंज को ढीठगंज।

बाद में जब हासिल का क्लाइमैक्स शूट होना था। ये संगम के आसपास फिल्माया गया था। माघमेला बीत गया था पर अभी ठीक से उजड़ा नहीं था। क्राउड की जरूरत थी तो शूटिंग देखने के लिए हम सब भी गए थे। घर से ज़्यादा दूर नहीं था वो इलाका, मेरे घर के पास ही है संगम तो मैं भी उस क्राउड का हिस्सा था। एक बड़ा सा टॉवर था, शायद पुलिस का ही सर्विलांस टॉवर था जिसपर कोई माइक लेकर चढ़ा था और वहीं से निर्देश दे रहा था। उसके कहने पर इधर उधर भागना होता था। और ऐसे ही करते करते शूटिंग ख़त्म हो गई थी। क्लाइमेक्स शायद फिल्माया जा चुका था। हीरो-हीरोइन को हम दूर से भागते हुए देखते और इस “मेढ़क जैसी चुम्बकीय आँखों वाले” अभिनय के जादूगर को भी। यही सीधी स्मृति है इरफ़ान की जो मेरे खाते में है। बाकी बरास्ते फ़िल्म वो जब तब अनुभव और संवेदना के क्षेत्र में दाख़िल होते रहे।

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इरफ़ान इस तरह से संवाद बोलते थे। जैसे वो कोई कविता पढ़ रहे हों। शब्दों के बीच के मौन में प्राण फूँकते हुए। इतनी सहजता से अभिनय करते थे जैसे हम जीवन जीते हैं। इरफ़ान प्रत्येक पल में घुली काव्यात्मकता के साथ काव्यात्मक न्याय करते हुए अनिभय की कविता करने वाले जीवन के चितेरे थे। आज इरफ़ान हमारे बीच नहीं हैं। उनका ना होना जैसे कला के आकाश से एक तारे की तरह टूटना है। हम अपनी आँखें मूंदे हुए उस चुम्बकीय आँखों वाले अभिनेता को हाथ जोड़े हुए विदा करने की स्मृति में हैं। इरफ़ान हमारे लिए चाकू-छुरी धार करने वाले कारीगर का वो पत्थर जिसके स्पर्श से हम अपनी कला का धार देते थे। इरफ़ान तुम जीते-जी हमेशा से वहाँ थे जहाँ पहुंचने में लोगों की जिंदगी बीत जाती है। जिंदगी बिता कर जहाँ पहुंचे हो वहाँ न जाने कैसे पहुंचा जा सकता है। अलविदा इरफ़ान !! तुम बहुत याद आते हो गुरु! क्योंकि आई लाइक आर्टिस्ट, वी लाइक यू !

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