
ओम थानवी हरिदेव जोशी विवि के कुलपति बन रहे हैं। इस विश्वविद्यालय को राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने बंद कर दिया था। गहलोत लौटे और अब फिर से खुले विश्वविद्यालय की बागडोर ओम थानवी को सौंप दी गई। कई लोगों को इस एलान के बाद उदरशूल हो गया। उनके दर्द को समझ पाना मुश्किल नहीं है। ये होना ही था, लिहाज़ा हुआ। पीड़ितों में कई पत्रकार भी हैं, और कई दलगत रुझान वाले पत्रकार भी हैं, जो खुद थानवी पर दल विशेष की पत्रकारिता करने का आरोप लगाने में मुब्तिला हैं।
उनमें एक पत्रकार थानवी को ‘मोदी विरोधी’ पत्रकार कह रहे हैं। आगे वही महोदय थानवी को मिले इस दायित्व को रिश्वत बता रहे हैं। डेढ़ किलोमीटर की पोस्ट में पत्रकार महोदय ने साबित करना चाहा कि कैसे थानवी मोदी विरोध में इनाम पा गए और कैसे रवीश कुमार भी वही करते हैं जो थानवी कर रहे हैं।
अव्वल तो समझना ज़रा सा कठिन है कि थानवी द्वारा ली गई कथित रिश्वत को रवीश कुमार से जोड़कर अमुक पत्रकार जी खुद किसे साध रहे हैं? क्या वो मोदी विरोधियों का विरोध कर किसी भी हालत और हालात मे रवीश को नीचा दिखाने को आतुर मोदी समर्थक लॉबी को पटा रहे हैं या खुद उसमे जगह बना रहे हैं? इन दोनों में से वो क्या कर रहे हैं इसका फैसला आप ही कीजिए।
दूसरी बात, मोदी विरोध कब से जुर्म हो गया ये भी पत्रकार महोदय ज़रूर बता दें, क्योंकि उनके लेखनुमा पोस्ट पढ़ने से तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। नरेंद्र मोदी सत्ता के प्रतिनिधि हैं। सरकार के खिलाफ लिखना या बोलना पत्रकारीय धर्म है। सरकार के खिलाफ बोलना या मोदी के खिलाफ कहना तब तक पर्यायवाची है जब तक मोदी प्रधानमंत्री हैं। अब अगर सरकार की आलोचना का लाभ विपक्ष को मिलता है तो इसमें आलोचक की गलती कैसे हो गई? क्या 2014 से पहले की सरकार का आलोचनात्मक विश्लेषण तत्कालीन विपक्ष को लाभ नहीं पहुंचा रहा था?
पत्रकार जी का दर्द किसी पत्रकार के ह्रास से नहीं पैदा हुआ बल्कि एक पंक्ति ही उनके असली दुख का मूल कारण स्पष्ट कर देती है, पढ़ लीजिए- ‘सेक्युलर, बुद्धिजीवी और वामपंथी टाइप की ‘राय बहादुरी’ का तमगा अलग से मिलता है।’ अर्थात जिन्हें सेक्युलर, बुद्धिजीवी या वामपंथी कहा जाएगा उससे इन्हें दिक्कत है। अगर दिक्कत इन तीन प्रकार की श्रेणी से है तो आप स्पष्ट पहले ही कर दें, क्यों थानवी या रवीश का नाम लिख रहे हैं। साफ कहें कि आपको ये तीन बुरे लगते हैं और चूंकि थानवी और रवीश आपके अनुसार इनमें से किसी कैटेगरी मे पड़ रहे हैं तो ज़ाहिर है आपको इनसे समस्या तो होगी ही।
अब ज़रा आगे बढ़ते हैं। ये महोदय थानवी जी को मिला पद सरकार से मिली रिश्वत बताते हैं, मगर मेरे मन में सवाल कौंधता है कि जब ये खुद रजत शर्मा के यहां नौकरी कर रहे थे तब उन्हें मिले ‘पद्मभूषण’ को रिश्वत क्यों नहीं बता रहे थे। थानवी ने तो मुअनजोदड़ो जैसी किताब लिखी जिस पर वो कई जगह सम्मानित हुए। अज्ञेय पर स्मृतिग्रंथ रचा। शमशेर सम्मान हासिल किया, सार्क लिटरेरी अवॉर्ड लिया। पत्रकारिता के लिए कई मंचों पर सम्मान हासिल किया। देश का प्रतिष्ठित अखबार जनसत्ता सालों साल चलाया।
उन्हें अगर एक राज्यस्तरीय पत्रकारिता विवि का उपकुलपति बनाया जा रहा है तो कौन सा योग्यता के बाहर या उससे हटकर कुछ मिल गया, लेकिन पत्रकार महोदय बताएं कि उनके तत्कालीन बॉस को जब शिक्षा और साहित्य में योगदान के चलते पद्मभूषण मिल रहा था क्या तब उन्होंने पोस्ट लिखकर लोगों से पूछा था कि आखिर एक किताब भी ना लिखनेवाले उनके स्वामी ने कौन सा साहित्य रचा जिसके बूते वो मोदी सरकार से सम्मान पा गए? खैर, वो नहीं पूछ पाए होंगे। क्यों नहीं पूछ सके होंगे वो भी समझा जा सकता है।
सूत्रों के हवाले से पत्रकार महोदय बहुत खबर बताते हैं तो हाथ लगे मैं भी सूत्रों के हवाले आपकी जानकारी में इज़ाफा कर दूं। जिस विवि को वसुंधरा सरकार ने बंद किया था वो पत्रकारिता विवि है। सरकारें विवि खोलने का काम करती हैं लेकिन पत्रकारों को एक सर्कुलर से दबाने की कोशिश करनेवाली मैडम ने इसे बंद कर दिया था। उनके दरबारी चाटुकार रिपोर्ट दे रहे थे कि कांग्रेस के काल में खुली इस यूनिवर्सिटी में बीजेपी के खिलाफ लिखने-बोलनेवालों को तैयार किया जा रहा है। मेरे सूत्र बताते हैं कि महारानी का नजला उस यूनिवर्सिटी पर इसीलिए गिरा क्योंकि वहां से सरकार की आलोचना करनेवाले पत्रकारों के निकलने का बड़ा भारी खतरा उन्हें आसन्न दिखा।
आगे अपने लंबे लेख में वो फिर से रवीश को घेर रहे हैं। कह रहे हैं कि रवीश ने अपने भाई के खिलाफ निकली खबर दबा दी। इस वाहियात बात का जवाब आप मेरे कमेंटबॉक्स में पा लीजिएगा जहां मैं वो लिंक लगा रहा हूं जो एनडीटीवी का है। खबर में साफ बताया जा रहा है कि ब्रजेश पांडे ने अपने पद से इस्तीफा क्यों दे दिया।
ये पुराना शातिरपन है। जब अपने विरोधी को गिरा ना सको तो उसके सगे-संबंधी के सहारे कीचड़ उछालो। मुझे अचरज इस रणनीति पर नहीं लेकिन हैरानी उस कुंठा पर है जो टीवी पत्रकार पालकर बैठा है। रवीश को लेकर उड़ाया गया कीचड़ सूख चुका है। रवीश विरोधी तक नई वजहें खोज रहे हैं लेकिन कुंठित पत्रकार अब तक पुराने इल्ज़ामों के सहारे जी रहा है। बुरी बात तो ये है कि अपनी निजी कुंठाओं को फैलाने के फेर में आप अपने पढ़नेवालों को गुमराह कर दें।
ब्रजेश पांडे का मैं प्रवक्ता नहीं लेकिन सच कहने की मजबूरी है। उन्हें सुप्रीम कोर्ट से उस मामले में जमानत मिली है जिसे पत्रकार जी उठा रहे हैं, और मामला भी क्या.. सेक्स रैकेट चलाने का। जिस लड़की ने इल्ज़ाम लगाया और जिस लड़के के चक्कर में लगाया, दोनों ने शादी कर ली है। लड़की ने ब्रजेश पांडे को इसलिए घेरा क्योंकि वो आरोपी लड़के के दोस्त थे। लड़की लड़के से शादी करना चाहती थी लेकिन लड़का अपना पिंड छुड़ा रहा था। नतीजतन लड़की ने उस पर और उसके दोस्तों पर आरोप लगाए। मामला कोर्ट में है और अब तक दोष सिद्धि हुई नहीं है। मामला असल में बचा भी नहीं है। कानूनी फाइलों में भी समाप्ति की ओर है, मगर ये रवीश विरोधियों के लिए हमेशा जिंदा कारतूस रहेगा। तब तक तो रहेगा ही जब तक रवीश का भाई फिर कोई गलती ना कर दे या कांग्रेस का टिकट ना पा ले। जब तक कुछ नहीं है तब तक ये मरे हुए आरोप की लाश पर छाती पीटेंगे ही। खबर से संबंधित एक पुराना लिंक का स्क्रीनशाट चस्पा कर रहा हूं। खुद ही देखिए।

आखिर में पत्रकार महोदय रवीश और थानवी से से बेहतर बीजेपी और कांग्रेस के घोषित पत्रकारों को बता रहे हैं। उनकी इन अंतिम पंक्तियों से मैं भी खुद को सहमत पा रहा हूं। वाकई घोषित प्रवक्ता उन सभी ज़हरबुझे पत्रकारों से बेहतर हैं जो नौकरी के साथ-साथ मोदी दरबार को साध लेने की कुशलता हासिल कर चुके हैं। इनका ज़हर बना रहे, यही मेरी भी इच्छा है। कम से कम नए पत्रकारों को इस गुर की जानकारी मिलती रहनी चाहिए।
सोशल मीडिया के चर्चित लेखक और युवा पत्रकार नितिन ठाकुर की एफबी वॉल से.
अभिषेक उपाध्याय की मूल पोस्ट पढ़ें, जिसमें उन्होंने पानी पी-पी कर ओम थानवी जी समेत सभी मोदी-बीजेपी विरोधी पत्रकारों को गरियाया है….

Abhishek Upadhyay : ये साहब मोदी विरोधी पत्रकार हैं। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार आते ही इन्हें राज्य स्तरीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया गया। मैं इसे घूस से कम नहीं आकूंगा। मोटी घूस। इनका नाम है ओम थानवी। इससे पहले दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार में ऐसी ही घूस ले रहे थे। वहां ये साहब दिल्ली सरकार की गवर्नमेंट एडवरटाइजिंग कमेटी के चेयरमैन हो गए थे। आप खुद ही समझ लीजिए क्या रूतबा होता है, इस पद का। सारे के सारे गवर्नमेंट एडवरटाइजमेंट जेब में होते हैं। अब कोई पूछे थानवी जी से कि मालिक! आपने एडवरटाइजिंग में कौन सी डिग्री ली थी जो एक झटके में कुतबुद्दीन एबक वाली कुतुबमीनार से भी ऊपर बिठा दिए गए? इसीलिए फिर से कह रहा हूं कि ये घूस थी। इस तरह की घूस की शर्तें बड़ी बेबाक सी होती हैं। एक पार्टी विशेष के खिलाफ अपने विचार बेचिए और बदले में महीने दर महीने मोटी आमदनी का थैला उठाइए। मालामाल हो जाइए। सेक्युलर, बुद्धिजीवी और वामपंथी टाइप की “राय बहादुरी” का तमगा अलग से मिलता है। अब सोचिए ये लोग क्या खाकर मोदी का विरोध करेंगे? मटर पनीर खाकर या फिर केले का कोफ्ता खाकर? और किस मुंह से करेंगे?
अजब है ये मोदी विरोध का टिटंबा भी। जनसत्ता जैसे जिस महान अखबार को प्रभाष जोशी जी ने अपनी प्रतिभा और ईमानदारी से ऊंचाइयों के आसमान पर पहुंचा दिया था, उसी जनसत्ता को इन्हीं थानवी जी ने अपनी घोर पत्रकारीय अयोग्यता के चलते लगभग दीवालिया बना दिया। ये प्रभाष जी के बाद लंबे समय तक जनसत्ता के संपादक रहे। अखबार डुबो दिया, विचारों को कांग्रेस के “मन की बात” के हाथों गिरवी रख दिया, फिर भी सिर्फ मोदी और आरएसएस के विरोध के चलते पत्रकारों की कांग्रेसी लॉबी के सिरमौर बने रहे। आप इनका ट्विवटर और फेसबुक अकाउंट चेक कीजिएगा। इस तरह से मोदी सरकार को गालियां बकते हैं मानो दस जनपथ पर कोई काउंटिंग मशीन लगी हुई है जिसमें गिनकर “क्रेडिट प्वाइंट” इनके खाते में स्टोर किए जा रहे हों। फिर एक रोज आता है जब राजस्थान में कांग्रेस की सरकार लौटती है। और इन्ही्ं क्रेडिट प्वाइंट्स के चलते रिटायरमेंट्स के सालों बाद ये बुजुर्ग (पत्रकार?) राज्य के हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति बना दिए जाते हैं। ऐसा लगता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के कर्मफल का सिद्धांत इनकी ही आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया था। अब इस राज्य स्तरीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय का इतिहास भी पढ़ लीजिए। इसे अशोक गहलोत की कांग्रेसी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम दिनो में मंजूरी दी थी। वसुंधरा राजे की भाजपा सरकार ने इसे बंद करवा दिया। इस समय राजस्थान में फिर से अशोक गहलोत की कांग्रेसी सरकार आ चुकी है। सो पहली मलाई जिस शख्स के हिस्से आई है, उसका नाम ओम थानवी है। इनका बस इतना ही परिचय है।
यही हाल एनडीटीवी के रवीश पांडेय का है। सगा भाई बिहार कांग्रेस का प्रदेश उपाध्यक्ष। एक दलित लड़की के यौन शोषण और सेक्स रैकेट चलाने के मामले में इसी सगे भाई नाम आ गया, एफआईआर हो गई तो रवीश पांडेय की सारी पत्रकारिता डाबर आंवला केश तेल खरीदने चली गई। इंडियन एक्सप्रेस से लेकर आजतक चैनल तक लगभग सभी अखबार और चैनलों ने कई कई दिनों तक इस मामले को रिपोर्ट किया। क्यों न करते? आखिर एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष का मामला था। वो भी तब जब पीडि़ता दलित थी। मगर दलितों और महिलाओं के हक की खातिर टीवी स्क्रीन पर आंखों से बिसलरी की बोतल उड़ेल देने वाले रवीश पांडेय ने अपने महान क्रांतिकारी चैनल पर अपने भाई के बारे में एक पट्टी तक न चलने दी। मुझे उसी रोज लग गया था कि हमें अब टीवी देखना बंद कर देना चाहिए और स्क्रीन परमानेंट काली कर देनी चाहिए। रवीश पांडेय को ये बात काफी देर से समझ में आई। पत्रकारिता में सूत्र बड़े काम के होते हैं। कई कई खबर तो पूरी की पूरी सूत्रों के हवाले से ही लिखी जाती है। मेरे बिहार के सूत्र बताते हैं कि अपने इसी सगे भाई को पिछले बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का टिकट दिलवाने के लिए रवीश पांडेय ने कांग्रेस आलाकमान के सामने उससे भी ज्यादा तनमयता से सजदा किया था जिस तनमयता से “माई नेम इज खान” में शाहरूख खान काजोल के आगे सजदा करते है। सोचिए ये भाई साहब मोदी के विरोध में दिन रात अपने शरीर का सारा ग्लूकोज जलाए जा रहे हैं। सूत्र ये भी बताते हैं कि सेक्स रैकेट में फंसे अपने सगे भाई को बचाने की खातिर गणेश शंकर विद्यार्थी के इन्हीं “हाइब्रिड क्लोन” ने खुद के संपर्कों के जरिए लालू से लेकर नितीश तक के चरणों का कई दिवसीय अनुष्ठान भी किया था। उस वक्त बिहार में लालू और नितीश की सरकार हुआ करती थी। बताते है्ं कि इसी अनुष्ठान के चलते गैर जमानती वारंट के बावजूद सेक्स रैकेट के आरोपी इनके सगे भाई को बिहार पुलिस ढूंढ ही नही सकी। गिरफ्तारी की बात तो दूर रही। वे न जाने बिहार की किस सुरंग में जाकर छिप गए थे? नीरव मोदी को भी अगर उस सुरंग का पता मालूम होता तो उसे लंदन भागने की नौबत ही न आती। सोचिए ये किस मुंह से मोदी का विरोध करेंगे? चेहरे पर काली स्क्रीन पोतकर या फिर काली स्क्रीन में चेहरा पोतकर।
मेरी नजर में ये सारे के सारे पत्रकारिता के “कांग्रेसी पांचजन्य” हैं। मेरा यहां तक मानना है कि ओरिजनल पांचजन्य के पत्रकार भी इनसे कहीं बेहतर हैं। वे जो भी करते हैं खुलेआम करते हैं। बाकी कंबल ओढ़कर घी पीने वाले डायनासोर बेहद खतरनाक होते हैं। प्रभाष जोशी आज होते तो वे बीजेपी की भी खाल उतारते और कांग्रेस की भी। उन्हें करीब से जानने वाले उनके तप में डूबे जीवन के बारे में बताते हैं। ये कहना खाक अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ओम थानवी और रवीश पांडेय जैसी सत्ता की छुपी हुई कांग्रेसी कठपुतलियों से कहीं बेहतर तो भाजपा और कांग्रेस के वे घोषित प्रवक्ता हैं जो कम से कम अपनी जिम्मेदारी और काम के साथ तो विश्वासघात नही करते!
प्रतिभाशाली पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की एफबी वॉल से.