Ajay Setia : मैं इसे पत्रकारिता पर हमला मानता हूं। यूआइडीएआई ने जिस तरह आधार कार्ड का डाटा बेचे जाना का भंडा फोड़ करने वाली ट्रिब्यून की रिपोर्टर रचना खेरा पर केस दर्ज किया है, यह लोकतंत्र के चौथे खंभे को नोचने वाली घटना है। ब्यूरोक्रेसी ने नरेंद्र मोदी को यह बता रखा था कि यह डाटा एक दम सुरक्षित है, उसी भरोसे मोदी सरकार सुप्रीमकोर्ट में सुरक्षा की गारंटी दे रही थी। सुप्रीमकोर्ट के फैसले से ठीक पहले ट्रिब्यून की रिपोर्टर ने आधार कार्ड के गोरख धंधे की पोल खोल कर रख दी , तो अफसरों के रंग में भंग पड़ गया। वे तिलमिला उठे है और उन्होंने रिपोर्टर पर ही एफआईआर दर्ज करवा दी है। ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे पर हमले के लिए सिर्फ अधिकारी जिम्मेदार हैं । जिम्मेदार वे सब भी हैं, जिन्होंने ब्यूरोक्रेसी को बेलगाम बना दिया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से ब्यूरोक्रेसी को बेलगाम कर देने के कारण अधिकारियों की मति मारी गई है। सरकारी अधिकारी ब्रिटिश मानसिकता से बाहर नहीं निकल रहे और अब तक कोई प्रधानमंत्री या कोई मुख्यमंत्री ऐसा नहीं आया जो इन सरकारी नौकरों को उन की औकात बता सके कि राज जनता का है, उन का नहीं, आजादी के बाद से उन्होंने देश में ऐसे हालात बना रखे हैं कि अंग्रेज उन्हें स्थाई सत्ता सौंप कर गए हैं, पांच साल के लिए चुनी जाने वाली सरकारें तो मेहमान हैं। वे अधिकारी अपने निरंकुश राज में मीडिया को सब से बडी बाधा मानते है। इस लिए जब भी उन का दाव लगता है, वे मीडिया को निशाना बनाते हैं।
एक तरफ सरकारी अधिकारियों ने महिला पत्रकार के खिलाफ एफआईआर लिखा दी है, तो दूसरी तरफ यूआईडीएआई ने खुद दावा किया है कि जो हुआ वह कोई बड़ी बात नहीं है, कुछ लीक नहीं हुआ, सब कुछ सुरक्षित है। जब सब कुछ सुरक्षित है तो बेचैनी क्यों है, फिर एफआईआर दर्ज क्यों करवाई गई। यूआईडीएआई ने सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बताने के लिए भागदौड़ शुरू कर दी है कि वास्तव में डाटा लीक नहीं हुआ है, यह साबित करने के लिए उस के चंडीगढ़ क्षेत्रीय कार्यालय ने ट्रिब्यून के संपादक को एक चालाकी भरा पत्र लिखकर पूछा है कि, “आपके संवाददाता के लिए (खरीदे गए यूजर आईडी और पासवर्ड से) क्या किसी व्यक्ति के फिंगर प्रिंट और आइरिस स्कैन देखना या प्राप्त करना संभव हुआ और संवाददाता ने उक्त यूजर आईडी और पासवर्ड से कौन से आधार नंबर डाले और ये किसके थे।” पत्र में कहा गया है कि ये विवरण 8 जनवरी तक भेज दिए जाएं वर्ना यह माना जाएगा कि किसी फिंगर प्रिंट और / या आयरिश स्कैन को ऐक्सस नहीं किया जा सका। यानी साफ है कि अगर ट्रिब्यून के संपादक का सोमवार तक जवाब नहीं आया तो सरकार कोर्ट में कह सकेगी कि डाटा लीक होने की खबर गलत है।
खबर करने वाली रिपोर्टर का नाम एफआईआऱ में डालने और उसके संपादक से पत्र लिखकर उपरोक्त विवरण मांगने का एक मकसद और भी है, कि यदि संपादक ने सोमवार को जवाब दे दिया और उस में कह दिया कि रिपोर्टर ने फींगर प्रींट नहीं देखे तो उनका काम आसान हो जाएगा, पर वह ट्रिब्यून के संपादक हरीश खरे को नहीं जानते । वह ऐसा कोई जवाब नहीं देंगे जो ट्रिब्यून की प्रतिष्ठा को धका पहुंचाए या उन की रिपोर्टर को गलत साबित करे। और ट्रिब्यून की रिपोर्टर रचना खेरा ने कह दिया है कि वह अपनी स्टोरी पर कायम है, स्वाभाविक है कि जब पैसा देने पर मांगे गए आधार कार्ड का डाटा खुल गया तो उस में फींगर प्रिंट भी तो होंगे ही।
यूआईडीएआई ने एफआईआर दर्ज करवा कर गलती की है , उस को तो दि ट्रिब्यून और उसकी रिपोर्टर का अहसानमंद होना चाहिए कि उसने एक गड़बड़ी का पुख्ता सबूत दिया। पर अधिकारी उलटे उसी को परेशान करने में लगे हैं। में मानता हूं कि मोदी सरकार मीडिया पर हमले की तोहमत अपने सिर पर लेने की बजाए तुरन्त एफआईआर रद्द करवाएं और ब्यूरोक्रेसी के मोहजाल से बाहर निकले। अब तो बच्चा यह कह रहा है कि सरकार ब्यूरोक्रेसी चला रही है। मोदी को यह धारणा ही ले बैठेगी।
वरिष्ठ पत्रकार अजय सेतिया की एफबी वॉल से.