Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

अजीत बजाज और आशुतोष यादव की क्यों तारीफ़ की रवीश कुमार ने!

रवीश कुमार-

हर न्यूज़ रूम में काम करने वाले चंद पत्रकारों के नाम… हमारे पेशे में हर दिन की शुरूआत इस चिन्ता से होती है कि आज क्या करें। कहने को खबरों की भरमार होती है मगर सबमें दम नहीं होता। ‘क्या करें’ की चिन्ता उन्हीं को होती है जो करना चाहते हैं। इस चिन्ता में गहरी निराशा ओढ़ लेते हैं। पागलों की तरह ख़बरें खोजते हैं और ख़बर को पूरी करने के लिए तथ्य। ऐसे पत्रकार हर दिन बुझे बुझे से रहते हैं। अपनी ही नज़र से भागते रहते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

दूसरी तरफ़, इस लाइन में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो काम कम करते हैं, देह ज़्यादा दिखाते हैं।दफ़्तर आएंगे लेकिन ट्विटर पर ज़्यादा दिखेंगे। वहां अपनी उपस्थिति बना कर रखेंगे और काम धेले भर का नहीं। या ऐसा काम करेंगे जिसमें कोई जोखिम न हो, रुटीन टाइप हो। अलग से उसे बहतर करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे। ऐसे लोग बेहद स्मार्ट होते हैं। थोड़ा किया, ज़्यादा दिखाया। ट्विटर पर लिख देंगे,कहीं से कॉपी पेस्ट कर देंगे। पत्रकारिता पर चिन्ता जता देंगे, न्यूज़ रूम में पद-पैसे में पिछड़ने का रोना भी रो लेंगे और महफ़िल में जगह भी बना लेंगे लेकिन पाठक या दर्शक के लिए कभी अपनी पहल और मेहनत से सामग्री तैयार नहीं करेंगे। इनका जीवन हर दौर में शानदार कटता है। अपने आलसी पन को बड़ी आसानी से अपने साथ हुई नाइंसाफी की कहानियां गढ़ कर छिपा ले जाते हैं। इसी तरह की नाइंसाफियों के किस्से काम करने वाले पत्रकारों के पास कुछ कम नहीं होते हैं।

न्यूज़ रूम का ढांचा इस तरह का बनाया ही जाता है कि काम करने और न करने का मूल्यांकन कई बार एक तरह से ही होता है। कारपोरेट मानव संसाधन प्रबंधन की व्यवस्था पत्रकारों पर थोप दी जाती है। मुझे नहीं लगता कि उनके पास न्यूज़रूम के प्रबंधन का कोई मुकम्मल ढांचा है।और यह काम संपादक के बस की भी बात नहीं, ख़ासकर आजकल के संपादक के जो पदनाम से ही केवल संपादक होते हैं। उन्हें इतना ही अधिकार होता है कि किसी को हांक कर काम कराना है। इस तरह कम पैसे में ज़्यादा काम करने या कराने की व्यवस्था बना दी जाती है और कई बार पैसा होता भी नहीं है लेकिन जहां पैसा होता है वहां भी यही सुनने को मिलता है। तो नतीजा यह निकलता है कि पैसा कारण नहीं है। सिस्टम पत्रकारिता के लिए नहीं होता है, पत्रकारिता के नाम पर पैसा बनाने के लिए होता है। इसमें ग़लत नहीं है, पैसा बनाना चाहिए लेकिन पत्रकारिता के नाम पर जब पैसा बना रहे हैं तो पत्रकारिता ही करनी चाहिए। कुछ और नहीं। ख़ैर ये विषय यहीं छोड़ता हूं क्योंकि अपने आप में अलग से विस्तृत समय और स्थान की मांग करता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ख़ैर इन सबके बीच काम न करने वालों से ऐसे पत्रकारों पर दोहरा असर पड़ता है जो काम करना चाहते हैं। एक तो वह ख़ुद की चुनौती से परेशान है कि आज क्या करें और दूसरा उसे यह भी सहन करना पड़ता है कि बाकी लोग ऐश कर रहे हैं। मुझे कई न्यूज़ रूम के पत्रकार मिलते हैं तो उनकी बातचीत में यह हिस्सा ज़रूर आता है। मैं उन सभी को कहता हूं कि आप ख़ुद के प्रति जवाबदेह हैं।सहयोगी और संपादक के प्रति नहीं। जानते हुए भी कि उनके साथ भी पद और पैसे में अन्याय हो रहा है।अन्याय से लड़ने के लिए अन्याय सहना पड़ता है। क्योंकि यही निरंतर लड़ाई है। इंसाफ़ की कोई भी लड़ाई अंतिम तौर पर नहीं जीती गई है।

आप गोदी ऐंकरों या पत्रकारों की जीवन शैली को देखिए। वे एकदम ठीक हैं। इसी पेशे में झूठ बोलकर सच बोलने वाले से ज़्यादा खुश हैं। वे अपने परिवार, मित्र और समाज में प्रतिष्ठित हैं और सुरक्षित भी हैं। आपको तय करना होगा कि क्या आप उनकी तरह जीना चाहते हैं? तो फिर बड़े किस्म के दलालों को देखिए जो लाखों करोड़ों का खेल करते हैं। इन चिरकुटों से क्या प्रेरित होना। दूसरी तरफ यह भी देखिए कि जो गोदी नहीं है क्या वो इतनी मेहनत कर रहा है। पत्रकारों को पत्रकारिता के साथ साथ उसके काम की मेहनत से भी परखिए। आपको फर्क पता चलेगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अच्छा लगता है जब मैं हर हाल में काम करते रहने वालों से मिलता हूं। काम करने की प्रेरणा उन्हीं से मिलती है। ऐसे लोगों को अपनी हार का पता होता है और ये किसी जीत की उम्मीद में काम नहीं करते हैं। बस करते चले जाते हैं। दिन में एक भी ऐसे शख्स से मुलाकात या बात हो जाती है तो धन्य हो जाता हूं।व्यापक रुप से देखें तो न्यूज रूम में न्याय किसी के साथ नहीं होता, कोई पैमाना भी नहीं होता है। फिर भी इसके नाम पर काम न करने वाले काम न करने का सौ तरीक़ा खोज लेते हैं और काम करने वाले काम करने के एक ही तरीक़ा के कारण मरे रहते हैं कि आज क्या नया करें। वे हर दिन मुश्किल स्टोरी चुनते हैं और बेदम हुए जाते हैं। हर जगह के न्यूज़ रूम में इस क़िस्म के पत्रकारों के बीच काम करने वाले खुद पर अपराध बोध डाले रहते हैं कि आज क्या करें। यह कोई सामान्य चिन्ता नहीं है। इस पहाड़ को सीने पर रख दिन शुरू करना पड़ता है। मेरे पास ऐसे पत्रकारों की समस्या का समाधान नहीं है लेकिन उन पर प्यार बहुत आता है। मन भीतर भीतर सलाम करता रहता है।

आज सुबह इन्हीं सब चिन्ताओं से गुज़र रहा था कि डाउन टू अर्थ के कवर पर नज़र पड़ गई। काम करने वाले के प्रति श्रद्धा उमड़ गई। यही सोच कर पिघल गया कि किसी ने कितने मन से कवर बनाया है। जानते हुए भी कि ऐसे विषय महज़ औपचारिकता निभाने के रह गए हैं, कितने कम लोग पढेंगे फिर भी अजीत बजाज साहब ने कितना मन लगा कर इसे आकर्षक बनाया है। इसके लिए उन्होंने कितना कुछ सोचा होगा, भीतर छपी पत्रकारों की रिपोर्ट को लोगों तक पहुँचाने के लिए कितने रंगों का ख़्याल किया होगा। काम में मन न होता तो ऐसा काम न होता।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सबक यह है कि जब तक हैं इस लाइन में और जितना हो सकता है, मन से काम करते चलिए लेकिन हमेशा हमेशा के लिए रहने का प्लान मत बनाइये। इस देश में निकास के रास्ते कम हैं और दूसरा काम चुनना आसान भी नहीं लेकिन अगर आजीवन रहने का प्लान बनाएंगे तो तकलीफ होगी। एक समय के बाद पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए। लेकिन जब तक हैं करते चलिए।आपके बस में जितना है, उतना कीजिए, मन से कीजिए, ये नहीं किया और वो नहीं हो सका, इसकी भरपाई कभी नहीं कर पाएँगे। जो किया, जितना किया, उसे कैसे किया, इसके प्रति जवाबदेह रहिए।

आज दर्शकों के बीच दर्शक नहीं हैं। उन्हें आम पर रिपोर्ट दिखाएँगे तो कहेंगे कि इमली पर नहीं दिखाते हैं। ऐसे दर्शकों की चिन्ता मत कीजिए। ये केवल आपको निराश करने आते हैं। सारी दुनिया की सारी ख़बर एक व्यक्ति नहीं कर सकता और उस दुनिया में एक देश की सारी ख़बर एक व्यक्ति नहीं कर सकता। दरअसल ऐसी उम्मीद करने वाले बड़े शातिर लोग हैं जो दर्शक और फ़ैन थे की खाल ओढ़ कर आते हैं और आपके किए हुए को बेमानी कर जाते हैं। ऐसा बोल कर वे तमाम सवालों को रौंद जाते हैं और सामना करने से खुद को बचा लेते हैं। उन्हें हर हाल में अपने झूठ को बचाए रखना है। उनकी चिन्ता मत कीजिए। अपना काम करते रहिए

Advertisement. Scroll to continue reading.

याद रखना यह है कि आपका किया हुआ हर काम बेमानी होगा, आपके काम में मानी आपको भरना है। आपको कोई नया रंग भरना है। जैसे डाउन टू अर्थ के पत्रकारों और कवर डिज़ाइन करने वाले अजीत बजाज ने किया है।

यह पोस्ट हर न्यूज रूम में काम करने वाले एक या दो लोगों के लिए हैं। हर न्यूज रूम में काम करने वाले इतने ही होती है। संख्या के अनुपात में पाँच या दस भी हो सकते हैं। हर दिन जितना हो सके कुछ नया कीजिए, पुराने को भी नया कीजिए, इस कवर के रंग की तरह खिले रहिए। सूरजमुखी का रंग है। आज अमर उजाला के आशुतोष यादव की रिपोर्ट ने भी प्रेरित किया है। शानदार।

अमर उजाला के आशुतोष यादव की ये रिपोर्ट अच्छी है। महंगाई को अलग नज़र से देखा है। आम तौर पर महंगाई के असर को रसोई से ही जुड़ा मानकर कवर किया जाता है लेकिन इस रिपोर्ट में आशुतोष ने देखने का प्रयास किया है कि लोगों के मेडिकल बिल पर क्या असर पड़ा है। काफ़ी कुछ सीखने को मिला।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement