किसी से भी पूछ लीजिए ….नेता जी कौन…जवाब मिलेगा मुलायम सिंह यादव। कम से कम समाजवादी पार्टी के संदर्भ में तो यही बात सौ फीसदी सच है …कल भी थी और कल भी रहेगी लेकिन अखिलेश यादव का क्या?..सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री या फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी पार्टी …इसके अतिरिक्त और क्या ….आप जरुर ये सोचेंगे कि इसके अतिरिक्त अब और कौन सी बात कही जा सकती है? क्या हम नेता अखिलेश यादव कह सकते हैं?….क्या हम अखिलेश यादव को नेता कह सकते हैं?..शायद नहीं …बल्कि यकीनन नहीं।
समाजवादी पार्टी में कल भी एक ही नेता था और आज भी एक ही नेता है क्यों नेता बनने के लिए पुलिस की मृगछाला पहननी पड़ती है। लाठियों से जब पीठ का श्रंगार होता है तब जाकर एक नेता तैयार होता है। संघर्ष की तपिश में जब कोई युवा खड़ा होता है , तब जाकर एक नेता तैयार होता है ….जब जनता के बीच किसी का भरोसा बढ़ता है तब जाकर एक नेता तैयार होता है तो कम से कम अखिलेश इन बातों पर खरे उतरते हों….इस सवाल के जवाब में उत्तर ना ही मिलेगा क्योंकि चुनावों में इतनी बुरी हार ने अखिलेश के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर दिए है।
हो सकता है कि सियासी तौर सपा की हार को लेकर सौ तर्क गढ़े जाएं लेकिन नेतृत्व करने वाला ही जीत या हार का जिम्मेदार होता है और इस लिहाज से अखिलेश ही जिम्मेदार है इस हार के। ये सर्व विदित तथ्य है कि सियासत में अखिलेश का आगमन उनके अपने संघर्ष की वज़ह से नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने की वजह से हुआ और आज पार्टी की जो दशा हुई वो अखिलेश यादव की वज़ह से हुई ..कारण कई हो सकते हैं और होने भी चाहिए लेकिन इन हजारों कारणों के केन्द्रबिन्दु में अखिलेश यादव ही आते हैं। इसलिए अब सवाल सीधा है कि अखिलेश यादव को नेता बनना है या पूर्व मुख्यमंत्री के पदनाम से ही काम चलाना है।
हार सिर्फ हार नहीं होती …हार वो दहकती ज्वाला है जिसमें सोना तपकर कुन्दन होता है और नेतृत्व निखरता है। अब सही मायनों में अखिलेश की अग्निपरीक्षा है। सत्ता के सहवास में तो सभी साथ होते है लेकिन विपक्ष के वनवास में आप सब को साथ रख पाएं …अपने आंदोलन को धार दे पाएं ..जनता को यकीन दिला पाएं …यही नेता के नेतृत्व की अग्निपरीक्षा है जो अखिलेश को अब देनी है। अब सही मायनों में अखिलेश के नेता बनने की ज़मीन तैयार हो चुकी है। उड़नखटोला पर सवार अखिलेश ये रुतबा ये सम्मान ये ओहदा अपने पिताजी से उपहार में मिला था लेकिन अब जो वो हासिल करेंगे उस पर उनका ही नाम लिखा होगा। सरकारें सत्ता चरित्र से ही चलती है। जिस तरह से लक्ष्मी का चरित्र नहीं बदलता ….ठीक उसी तरह से सरकारों का चरित्र नहीं बदलता ..सत्ता का चरित्र नहीं बदलता और यही अटल सच ही विपक्ष को सत्ता में आने का मौका देता है।
आज अखिलेश मंथन में लगे हैं…ट्विवट कर रहे हैं…बयान दे रहे हैं जो रस्मी प्रतिक्रिया से ज्यादा और कुछ भी नहीं। क्या अखिलेश इस बात का विरोध करने के लिए मुहूर्त का इंतज़ार करेंगे कि समाजवादी पेंशन के तहत जिस बुर्जुग महिला को पांच सौ रुपए मिलते थे ..सरकार ने एक झटके में बंद कर दिया। अब उस बुर्जुग का क्या होगा जिसके लिए पांच सौ रुपए ही उसकी जिंदगी थे। क्या अखिलेश इस बात का विरोध करने के लिए नैतिक साहस जुटा पाएंगे कि सरकार के कई फैसलों से जो हजारों लोग बेरोज़गार होंगे ..और जो अराजकता राज्य में फैलेगी ..उसका जिम्मेदार कौन? ऐसी कई बातें है ..ऐसे कई फैसले है जिस पर निर्णय सिर्फ अखिलेश को लेना है ..यही रणनीति ही उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाएगी और यही फैसले ही उन्हें जनता के बीच नायक सिद्ध करेगी। लेकिन सवाल फिर वहीं कि क्या अखिलेश ऐसा कर पाएंगे? अखिलेश हार के मंथन में लगे हुए हैं। लेकिन हार की समीक्षा कुछ लाइन में ही सिमट जाएगी । कुछ सवाल के जवाब अपने आप हार की कहानी बयां कर देंगे।
क्या अखिलेश मोदी के जैसे कुशल वक्ता है?
क्या अखिलेश के पास शब्द कोश में मोदी के शब्द है?
क्या अखिलेश के पास इस बात का जवाब है कि जब आपने पूरे परिवार से लड़ाई दागियों के मुद्दे पर लड़ी तो क्या आपके अपने खेमें में सब दूध के धुले रहें हैं?
क्या जनता इस बात को नहीं समझती कि लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे का फीता काट दिया लेकिन लोग उसका इस्तेमाल बहुतायत में नहीं कर पा रहे थे?
आपने जो मेट्रो का इतना गुणगान किया वो आज तक नहीं चली?
क्या वाकई आपने भ्रष्टाचार से कई स्तरों पर समझौता नहीं किया?
ये कुछ ऐसे सवाल है जिनका जवाब जनता के पास तो है लेकिन अखिलेश जी के पास तर्क है जवाब नहीं। सच यही है कि एक बार अगर गायत्री को हटा दिया तो हटा दिया लेकिन आपने तो उस वक्त भी उसको नहीं हटाया जब वो भागा भागा फिर रहा था। उत्तर प्रदेश की सियासत जातिवाद से मुक्त नहीं तो फिर आपने अपने ऊपर यादव का तमगा क्यों लगा लिया कि एक वक्त तो ऐसा हुआ कि एक कांस्टेबल से लेकर डीजीपी तक यादव हो गए..सत्ता का यादवीकरण हो गया।
ये कथा अनन्त हो सकती है लेकिन अब आगे की सुधि लेना चाहिए । एक सजग नागरिक होने के नाते और एक पत्रकार होने के नाते मेरा इस बात में पुख्ता यकीन है कि अगर विपक्ष कमजोर होगा तो सत्ता पक्ष के निरंकुश होने का खतरा बढ़ जाता है और इसलिए हमारी निगाहें अखिलेश यादव की तरफ है कि वो अब सियासत की शुरुआत संघर्ष के साथ सड़कों पर करें और सत्ता पर दबाव बनाएं रखें। हां मुझे थोड़ा शक इसलिए है कि सियासत की सड़क पर कई ऐसे गढ्ढे हैं जो होते तो हैं पर दिखते नहीं …कुछ अनकहे समझौते भी होते हैं ….पत्नी को पुन सांसद अगर बनाना है तो फिर शायद चुप रहना भी मजबूरी हो सकता है । ..बहराल…सकारात्मक उम्मीद और सोच है हमारी …युवा शक्ति का चेहरा कम से कम अखिलेश है ..इस बात से हम इन्कार नहीं करते …और अगर अखिलेश ने मेहनत की तो वाकई अखिलेश सही मायने में अपने पिता के छाया से मुक्त होकर नेता अखिलेश की पदवी पर पदारुण होंगे।
लेखक मनीष बाजपेई वर्तमान समय में के न्यूज में एग्जीक्यूटिव एडीटर के पद पर कार्यरत हैं . किसी भी प्रतिक्रिया के लिए उनके मेल आईडी bajpai.friend@gmail पर सम्पर्क किया जा सकता है. उनसे उनके व्हाट्सअप नम्बर 9999087673 के जरिए भी सम्पर्क किया जा सकता है.