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वेब-सिनेमा

एल्गोरिदम क्या होता है?

सुशोभित-

क्या आपने ग़ौर किया कि अकसर आप यूट्यूब पर कुछ सर्च करने जाते हैं, लेकिन आपकी नज़र किसी और कंटेंट पर पड़ती है और- क्या ही संयोग है कि वह आपकी दिलचस्पी का होता है- और आप उसे देखने बैठ जाते हैं। वह वीडियो ख़त्म होता है तो स्क्रीन के राइट-कॉलम में उससे मिलते-जुलते वीडियोज़ की एक लड़ी दिखाई देती है। अब आप एक-एक कर उन्हें भी देखने लगते हैं। कोई एक या डेढ़ घंटे बाद आपको ख़याल आता है कि आप जो देखने आए थे, वह तो आपने देखा नहीं, कुछ और देखने लगे।

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फिर आप सोचते हैं कि वह दिलचस्प वीडियो मुझको क्यों दिखा? क्या वह मुझी को दिखा था या सभी को यूट्यूब पर जाने पर ऐसा ही दिखलाई देता है? आप याद करते हैं कि कुछ दिनों पूर्व आपने उससे मिलता-जुलता कोई कंटेंट यूट्यूब पर सर्च किया था। यूट्यूब की एल्गोरिद्म्स ने उसे याद रखा। अगली बार जब आप यहाँ पर आए तो उसने आपको आपकी पसंद की चीज़ें सुझा दीं। यह वैसे ही है, जैसे पुराने दिनों में किताबों की दुकान पर जाने पर- अगर दुकान-मालिक आपको पहिचानता है तो- आपकी रुचि की किताब निकालकर आपके सामने रख दी जाती थी, या किसी जाने-पहचाने रेस्तरां में आपको देखते ही आपकी पसंद की चीज़ें आपके सामने पेश कर दी जाती थीं। लेकिन उन लोगों के इरादों और इंटरनेट के मनसूबों में बुनियादी फ़र्क़ है।

सच यही है कि हम आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस की निगरानी के शिकार हो चुके हैं। हमें लगता है कि हम देख रहे हैं, जबकि होता यह है कि हमें दिखाया जा रहा होता है। हम सोचते हैं कि यह हमारी रुचि है, जबकि होता यह है कि हमारी रुचियों को चैनलाइज़ करके उससे एक प्रोडक्टिविटी रची जाती है, क्योंकि सोशल मीडिया एल्गोरिद्म्स का एक ही मक़सद है- हमारे अटेंशन को जितना समय तक हो सके बांधकर रखना, स्क्रीन-टाइम में लगातार इज़ाफ़ा करना, डिजिटल एडिक्शन को एक दूसरे आयाम पर ले जाना, और हमारे निर्णयों को उस तरह से नियंत्रित करना कि परिप्रेक्ष्यों की हमारी समझ भोथरी होती चली जावे।

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मैं अपने दो निजी अनुभवों को साझा करता हूँ। इवोल्यूशन की भाषा में इसे नेचरल सिलेक्शन और आर्टिफ़िशियल सिलेक्शन कहेंगे। पहला अनुभव यह कि बीती गर्मियों में एक दिन अचानक मैंने पाया कि मेरे यूट्यूब रेकमेंडेशन में एक वीडियो है, जिसमें एक स्थूलकाय व्यक्ति अफ्रीका के समुद्रतटीय इलाक़े में एक ज़हरीले साँप का पीछा कर रहा है। वीडियो दिलचस्प था। मैं उसे देख गया। उस यूट्यूबर का नाम डिन्गो डिन्कलमैन था, मैंने उसे सब्स्क्राइब कर लिया। कुछ दिनों बाद मेरे यूट्यूब रेकमेंडेशन्स में स्नैक-हैंडलर्स के वीडियोज़ अवतरित होने लगे- चैण्डलर और टायलर, टिम फ्रीड और कोयोटे पीटरसन, बाद उसके क्लासिकल स्टीव इर्विन, फिर लिविंग ज़ूलॉजी और नेशनल जैग्रफ़िक। मैं इन वीडियोज़ को देखता रहा और रैप्टाइल्स के बारे में मालूमात जुटाता रहा। ना उन वीडियोज़ में कुछ ग़लत था, ना रेंगने वाले सरीसृपों के बारे में मेरी दिलचस्पी बुरी थी, किंतु सवाल यह है कि यह सब कैसे शुरू हुआ था? क्या यह मैंने चुना था, या क्या यह मुझे परोसा गया था? मैंने ख़ुद से सवाल पूछा कि क्या मैं एक अचेत यूज़र की तरह उस सब कंटेंट को कंज़्यूम करता चला जा रहा था, जो एक रैंडम रेकमेंडेशन ने मेरे सामने रख दिया था? और यह तो फिर भी वाइल्डलाइफ़ वीडियोज़ थे, लेकिन अगर मैंने किसी टॉक्सिक पोलिटिकल कंटेंट वाली स्ट्रिंग को फ़ॉलो करना शुरू कर दिया होता तो?

यह जो ऑर्गेनिक एल्गोरिद्म्स हैं, जो एक रीयल-टाइम फ़ीडबैक लूप के आधार पर संचालित होती हैं और व्यूअर को ज़्यादा से ज़्यादा समय तक स्क्रीन से चिपकाए रखना चाहती हैं, इन्हें मैं- चार्ल्स डार्विन से क्षमायाचना करते हुए- नेचरल सिलेक्शन कहता हूँ। इसके सामने एक आर्टिफ़िशियल सिलेक्शन भी है। इसका अनुभव मुझको तीन साल पहले तब हुआ, जब फ़ेसबुक ने मेरा अकाउंट एक महीने के लिए बंद कर दिया और मुझको दूसरा अकाउंट बनाना पड़ा। उन दिनों मैं राजनीतिक विषयों पर लिखता था, तो उस तरह के कंटेंट में दिलचस्पी रखने वालों की रिक्वेस्ट्स मुझको नई प्रोफ़ाइल पर मिलीं, और मैं उनको एक्सेप्ट करता चला गया। फिर न्यूज़-फ़ीड में उनके अपडेट्स नुमायां होने लगे। एक महीने बाद मेरा पुराना अकाउंट बहाल हुआ तो मैं उस पर लौटा। मुझको लगा, जैसे मैं एक प्लैनेट से दूसरे प्लैनेट पर चला गया था। इस अकाउंट की न्यूज़फ़ीड दूसरे वाले से निहायत ही फ़र्क़ थी। पुरानी न्यूज़फ़ीड पर रचनात्मक लेखन, साहित्य और कला, फ़लस्फ़ाई ख़यालात और प्रमुदित मैत्रियों की पोस्ट्स दिखलाई देती थीं, नई वाली न्यूज़फ़ीड में निहायत तल्ख़ और आक्रामक लहज़े वाले राजनैतिक अपडेट्स। एक आईडी से दूसरी में लॉग-इन करके जाना तब एक देह से दूसरी देह में जाने जैसा लगता था, जो हमें दो भिन्न तरह की दुनियाओं से साक्षात कराती थीं। तब जाकर मुझको यह महसूस हुआ कि फ़ेसबुक की हमारी न्यूज़फ़ीड भी कमोबेश हमारा ख़ुद का कन्स्ट्रक्ट है।

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इसको मैं आर्टिफ़िशियल सिलेक्शन इन मायनों में कहता हूँ कि सोशल मीडिया एल्गोरिद्म्स के उलट यहाँ पर हम स्वयं अपने फ्रेंड्स चुनते हैं और हमें किस तरह का कंटेंट चाहिए, उस तरह के पेजेस को हम फ़ॉलो करते हैं। जब हम फ़ेसबुक पर आते हैं तो हम किसी वैसे धरातल पर नहीं आते, जो सबके लिए एक जैसा है। यक़ीन मानिए, भिन्न-भिन्न लोगों के लिए फ़ेसबुक अलग-अलग दुनियाओं का दरवाज़ा खोलता है। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि हम किस तरह के लोगों से राब्ता रखना चाहते हैं और किस तरह का कंटेंट कंज़्यूम करना चाहते हैं।

वॉल स्ट्रीट जर्नल में पिछले दिनों जोआना स्टर्न का एक लेख छपा, जिसमें इस बारे में गहरी चिंता जतलाई गई है। वह लेख पठनीय है। जोआना का कहना है कि सोशल मीडिया एल्गोरिद्म्स का वर्चस्व वर्ष 2016 में तब शुरू हुआ, जब ट्विटर और इंस्टाग्राम ने फ़ेसबुक और यूट्यूब के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। एल्गोरिद्म्स की एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई कि हर व्यक्ति अपनी धारणाओं का बंधक बनकर रह गया और- अगर नोम चोम्स्की से शब्द उधार लें तो- मैन्युफ़ेक्चरिंग ऑफ़ कंसेंट (सहमतियों के निर्माण) के एक अंतहीन चक्रव्यूह में फंस गया। चीज़ें दिन-ब-दिन ध्रुवीकृत होने लगीं, क्योंकि इन एल्गोरिद्म्स ने ऐसे क्लोज़्ड सर्किल्स का निर्माण किया, जिन्होंने एक जैसी सोच और वृत्ति वाले लोगों को एक जगह पर ना केवल साथ ला दिया, बल्कि उन्हें अपनी धारणाओं को यथावत रखने और उन्हें बलवती बनाने के लिए निरंतर फ़ीडबैक भी मुहैया कराया। जब इसमें पोस्ट-ट्रुथ (कह लीजिये, आधी हक़ीक़त आधा फ़साना) की मिलावट हुई तो यथास्थिति से हमारा जीवंत सम्पर्क ही कट गया। हम तमाशा देखते-देखते यह भूल ही गए कि हम यह देख नहीं रहे हैं, हमें यह दिखलाया जा रहा है।

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आज समाज में जितनी कटुता, अधीरता, आक्रामकता और दुर्भावना है, उसके मूल में अनेक कारणों के साथ ही ये सोशल मीडिया एल्गोरिद्म्स भी हैं। इन्होंने रुचियों और धारणाओं और पूर्वग्रहों के ऐसे एकालापों का निर्माण किया है, जिसमें ऐतिहासिक और मनोगत परिप्रेक्ष्य धुंधला चुके हैं। मेरा निजी मत यह है कि इंटरनेट पर जो कुछ भी दिखलाया जाता है और सोशल मीडिया पर जो कुछ भी लिखा जाता है, उस पर एकबारगी विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। दूसरे, उस प्रक्रिया (यानी एल्गोरिद्म्स) के प्रति सचेत रहना चाहिए, जिसने हमारे सामने एक प्रोडक्ट की तरह इस कंटेंट को परोस दिया है और भरसक वस्तुनिष्ठ तरीक़े से किनारे पर खड़े होकर उसका मुआयना करना चाहिए, उसमें कूद नहीं पड़ना चाहिए। किसी भी वाक़िये पर फ़ौरन कोई बयान देने से भरसक बचना चाहिए, क्योंकि भले हमें ऐसा भ्रमवश लगता हो, लेकिन राष्ट्र हर घटना पर हमारी त्वरित टिप्पणी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा होता है। तीसरे, और सबसे बेहतर, डिजिटल डिटॉक्स को अपनाना चाहिए और अपने मोबाइल फ़ोन को समय-समय पर स्विच-ऑफ़ करके ‘एम्प्टी टाइम’ बिताना चाहिए, या अपने द्वारा कंज़्यूम किए जाने वाले कंटेंट (किताबें, फ़िल्में, संगीत) के चयन की कुंजी अपने हाथों में रखनी चाहिए।

क्योंकि यक़ीन मानिये, कोलाहल के इस कालखण्ड में आप संसार का कोई भला नहीं करेंगे, अगर चीख़-पुकार, फ़रेब, अपशब्दों और आधे सच के कारवां में अपनी ओर से और इज़ाफ़ा ही कर बैठेंगे, और वह भी यह जाने बिना कि वैसा क्यूँ कर होता जा रहा है, और उसके पीछे के कारख़ाने की सूरत और सीरत भला कैसी है!

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-सुशोभित

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