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साहित्य

काल को शमशेर के अलावा किसने चैलेंज किया, ये काम कोई और करता है, तो निराला करते हैं : आलोक धन्वा

Pankaj Chaturvedi-

आज आलोक धन्वा से मैंने पूछा : ‘एक दिन आपने बताया कि आप और आपके साथी कवि शमशेर बहादुर सिंह के दीवाने थे। उनके बारे में कुछ बताइए !’

बोले : “शमशेर का सौंदर्य-बोध ‘पॉपुलिस्ट’ {लोकप्रियतावादी} नहीं है। वह ‘पॉपुलिस्ट’ कवि नहीं हैं। राहत देनेवाले कवि नहीं। एक बड़ा कवि राहत नहीं देता। एक बड़ा कवि तो बड़ा दार्शनिक ही होता है। शमशेर के यहाँ ‘विज़डम ऑफ़ ब्यूटी’ {सौंदर्य का विवेक} ही नहीं, बल्कि सौंदर्य के विवेक की जद्दोजेहद है। उनके पास एक सर्वथा भिन्न काव्य-भाषा थी, जो उन्होंने छायावाद और उर्दू कविता, दोनों के गहरे और संश्लिष्ट प्रभाव से हासिल की।

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उनको पढ़कर हम जानते हैं कि सौंदर्य को देखना, दरअसल उसे ‘एक्सप्लोर’ करना है। जिन हालात में वह खड़े थे, उनमें तो बहुत लोग खड़े होते हैं, लेकिन सब उस तरह से कहाँ देख पाते हैं–स्त्री को, प्रकृति को, नश्वरता और अमरता को। काल को उनके अलावा किसने चैलेंज किया :

‘काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू–
तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।’

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यह काम कोई और करता है, तो निराला करते हैं। इसलिए उन पर जिस एक कवि का बहुत असर रहा, वह केवल महाप्राण निराला हैं। निराला भटकने वाले कवि थे, शमशेर भी भटकते हैं और निराला को ही याद करते हैं :

‘भूलकर जब राह–जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आँख बन मेरे लिए’

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शमशेर और बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता में आपको समानता मिलेगी, क्योंकि जिसे कहते हैं ‘दुर्निवार आशा’–अंग्रेज़ी में कहेंगे ‘होपिंग अगेंस्ट होप’–ये उसके कवि थे। उन्होंने इस तरह देखा और जिया जीवन को। ‘टाइम’ और ‘स्पेस’ का कविता में बहुत महत्त्व है कि किस समय आप क्या कहते हैं। इतिहास में जो घटित हो रहा है, व्यक्ति की भूमिका उसके बग़ैर नहीं बनती। यह कोई निजी प्रतिभा की बात नहीं है और शमशेर जानते थे इसे। इसलिए उनके यहाँ झंझावात भी है, आह्वान भी है। जैसे लेनिन ने कहा था : ‘अभी शुरू करो….बिलकुल अभी…. तब नहीं, जब आटा आयेगा।’

शमशेर में जो बिम्बधर्मिता है, वह बिलकुल अलग है और सिर्फ़ निराला की याद दिलाती है। दोनों की कविता से एक-एक अंश आमने-सामने रख देता हूँ, आप समझ जायेंगे इस बात को :
‘कौन तम के पार ?–(रे, कह)
अखिल-पल के स्रोत, जल-जग,
गगन घन-घन-धार–(रे, कह)’
~ निराला

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‘सघन
पर्दे
गगन के-से :
हमीं हैं वो
हिल रहे हैं
एक विस्‍मय से’
~ शमशेर

हिंदी में कविता लिखने का ऐसा साँचा बना दिया गया है कि कोई थोड़ा-सा अलग प्रयोग करता है, तो लोगों को दिक़्क़त होने लगती है। शमशेर को आप देखिए–छोटे आकार की कविता हो या कुछ लम्बी–अपनी हर रचना में वह एक नया शिल्प लेकर आते हैं।

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उन्हें सौंदर्य का कवि कहकर ‘आइसोलेट’ किया गया, लेकिन सौंदर्य तो जीवन का ही न है या उससे अलग कोई चीज़ है ? फिर भी उन्हें ‘बाबू’, यानी ‘एपॉलिटिकल’ {ग़ैर-राजनीतिक} बनाकर रखा लोगों ने, जैसे वह एक बाजा हों, उन्हें भी बजा लो थोड़ी देर। उनकी बेचैनी और तकलीफ़ को, ‘रेस्टलेसनेस’ को नहीं समझा गया, जितना कि चाहिए था। ग्वालियर में मज़दूरों के जुलूस पर गोलियाँ चलाकर 12 जनवरी, 1944 की जिस शाम को ख़ूनी बना दिया गया, उस पर उनकी कविता किस क़दर विचलित करती है :

‘य’ शाम है
कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का।
लपक उठीं लहू-भरी दराँतियाँ,
–कि आग है :
धुआँ-धुआँ
सुलग रहा
गवालियार के मजूर का हृदय।’

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शमशेर ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनलिज़्म’ से बहुत प्रभावित थे। उसके बिना ‘अम्न का राग’ जैसी कविताएँ वह नहीं लिख पाते। निराला और शमशेर के सामने एक बड़ा प्रश्न था : मानव-जीवन की सार्थकता कैसे होगी–हमारे काम से कैसे मूल्य पैदा होंगे ? बड़े कवि बड़ा फलक इसीलिए लेते हैं। एक दृश्य जो अभी जारी है, उससे वे चीज़ों को जुटाते हैं–कविता जद्दोजेहद की हो या सौंदर्य की। उनमें प्रकृति से गहरा लगाव है, सौंदर्य की गहरी प्यास है।

एर्नेस्ट हेमिंग्वे की बात याद आती है कि विशेषणों से भाषा मज़बूत नहीं होगी, ‘विज़िबल’ {दृश्यमान} नहीं होगी। सवाल है कि ‘हाउ टु डील द अदर’। जैसे स्त्री अच्छी है, सुंदर है, गोरी है–यह आप तब तक नहीं बता पायेंगे, जब तक कि उसका व्यवहार सामने नहीं लायेंगे। वह बारजे पर चढ़ रही है, केश सँवार रही है, उसका आधा चेहरा आपकी तरफ़ है–उसकी गतियों में उसका सौंदर्य दीप्त होगा।

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नामवर सिंह बड़े आलोचक थे। ‘छायावाद’ को उन्होंने समझा अच्छी तरह से। दुर्लभ है वह, मगर किसी सौंदर्य के बड़े कवि के मूल्यांकन की भाषा उनके पास नहीं थी। शमशेर जैसे बड़े कवि के संसार में जाने की उनसे अपेक्षा की जाती थी, लेकिन उन्होंने क्या किया ? उस तरफ़ गये नहीं।

उन्होंने शमशेर की ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ की छोटी-सी भूमिका लिखी, जिसकी शुरुआत में ही मुक्तिबोध के कथन को उद्धृत करके कहा : ‘गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण शमशेर की अभिव्यक्ति के प्रभावशाली भवन में जाने से डर लगता है….उस पवित्रता में शायद ख़लल पड़े। इसलिए बाहर-बाहर की ही परिक्रमा कर लेते हैं।’

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गोया नामवर जी का मतलब था : शमशेर की कविता एक भूलभुलैया है, रंगमहल है, उसमें हम कैसे जाएँ ? संघर्ष के बड़े फलक पर वह जाना नहीं चाहते थे। उनकी थकान को राहत मिली ‘कविता के नये प्रतिमान’ में और उसी राहत पर उन्होंने डेरा डाल दिया।”

प्रोफेसर और साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी इन दिनों जाने माने कवि आलोक धन्वा से विस्तार से बात कर एक पुस्तक तैयार कर रहे हैं. उसी का एक अंश.

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