नई दिल्ली, 31 जुलाई. कथा-मासिक ‘हंस’ द्वारा प्रेमचंद जयंती पर 31 जुलाई को आयोजित वार्षिक संगोष्ठी में इस बार ‘वैकल्पिक राजनीति की तलाश’ विषय पर चर्चा हुई. कार्यक्रम के संचालक अभय कुमार दुबे ने कहा कि लोकतंत्र के मर्म को समझने के लिए वैकल्पिक राजनीति की तलाश आवश्यक है. उन्होंने ‘विकल्प के संघर्ष’ को विभिन्न दृष्टिकोणों से स्पष्ट करते हुए विकल्प के विविध रूपों में उपस्थित राजनीतिक हस्तक्षेपों को बताते हुए विषय का प्रतिपादन किया.
खाप पंचायतों के खिलाफ लंबा संघर्ष कर चुकीं अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की जगमती सांगवान ने कहा कि वंचित, दबे-कुचले और हाशिए के जीवन को आज भी वैकल्पिक राजनीति की तलाश है. उन्होंने कहा कि ऐसी तीखी राजनीतिक चेतना का विकास करना होगा जिससे क्रांतिकारी सुधार कई-कई स्तरों पर संभव हो सके और राजनीतिकरण की प्रक्रिया को सतत बनाए रखना होगा.
जामिया विश्वविद्यालय के इतिहासविद मुकुल केशवन ने अंग्रेजी में दिए अपने भाषण में स्वतंत्रता-पूर्व कांग्रेस की भूमिका के बारे में कहा कि उसके आंदोलन में बहुत-सी धाराओं का एकत्रीकरण था. उन्होंने कहा कि अगर भारत एक जंगल है तो कांग्रेस चिड़ियाघर है, जिसमें हर जाति-वर्ग, क्षे़त्र, संस्कृति और भाषा के लोग विविधता में एकता के साथ मौजूद हैं. भाजपा के बारे में उन्होंने कहा कि अगर वह खुद को साम्प्रदायिक पार्टी के बजाय राष्ट्रवादी पार्टी कहती है तो ऐसा कहना उनके हिंदूवादी राष्ट्र के निर्माण-सम्बन्धी एजेंडे के मद्देनज़र सही है. उन्होंने मोदी के सत्ता में आने को एक बड़ी राजनीतिक घटना माना, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उनकी पार्टी की राष्ट्रवाद की अवधारणा का भारत जैसे बहुलतावादी समाज में सफल होना मुमकिन नहीं है, भले ही यह यूरोप के देशों में बार-बार सफल रही हो. लेकिन उन्होंने कहा कि किसी ठोस विकल्प की तलाश होने तक संविधान की धाराओं का विविध प्रयोग और संश्लेषण कर ही अनेक समस्याओं से निबटा जा सकता है.
मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त सोशल एक्टिविस्ट अरुणा रॉय का कहना था कि राजनीति दलों में नहीं होती वह हमारे जन्म के साथ जुड़ी होती है. उन्होंने कहा कि सत्ता द्वारा सच बोला जाना ही लोकतंत्र है और बदलाव के लिए गाँव-गाँव को बदलने की और ऐसे मंच की आवश्यकता है जहाँ आम लोग आसानी से दखल ले सकें. उन्होंने कहा कि विकास के ढांचे में केंद्रीकरण के केंद्रों को पहचानने की जरूरत है और उन्हें चिह्नित किया जाना चाहिए. लोकतांत्रिक राजनीति और चुनावी राजनीति के फर्क की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि राजनैतिक विकल्प तलाशना आसान है, लेकिन वैकल्पिक राजनीति तलाशना बहुत कठिन है.
वरिष्ठ राजनेता और बुद्धिजीवी डी.पी.त्रिपाठी ने अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध की कविता पंक्ति ‘दिवस का अवसान समीप था/ गगन था लोहित हो चला’ को उद्धृत करते हुए वर्तमान राजनीति की दशा के बारे में बात रखी. उन्होंने कहा कि देश के वामपंथी और दक्षिणपंथी अपने-अपने किस्म की औपनिवेशिक चेतना के शिकार हैं; इस चेतना से विकल्प नहीं बनेगा, बल्कि समाजवादी विचारधारा के लोग ही ‘संवादहीनता’ को तोड़कर बदलाव ला सकते हैं. उन्होंने वामपंथियों की अच्छी खबर लेते हुए कहा कि वामपंथियों ने यह तय कर लिया है कि उन्हें प्रगति नहीं करनी है. जबकि भाजपा के मौजूदा सिद्धांतकारों की तुलना में उन्होंने सावरकर को कई अर्थों में एक आधुनिक व्यक्ति बताते हुए कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी के अंतिम संस्कार में भी कर्मकांड नहीं किया. उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने औपनिवेशिक चेतना से अलग हटकर काम किया वे थे- गाँधी, विनोबा, जयप्रकाश और लोहिया. त्रिपाठी ने कहा कि समाजवादी विचारधारा के लोगों को एक साथ मिल बैठना होगा. डीपी त्रिपाठी ने मंच पर राजनीतिक पार्टी ‘आप’ के नेता योगेन्द्र यादव की अध्यक्ष के रूप में मौजूदगी के बावजूद ‘आप’ को भारतीय राजनीति के लिए शाप बताया. ‘आप’ लोगों के जिस विश्वास के भरोसे दिल्ली की सत्ता में आई उसने उस विश्वास को खंडित किया. केजरीवाल को अहंकारी बताते हुए उन्होंने कहा कि उनका यही अहंकार इस पार्टी को ले डूबेगा. मौके पर उन्होंने एक शेर भी पढ़ा- शौके-सितम से ‘आप’ जरा बाज आइए/ दिल का नगर जला के न दिल्ली सजाइए.
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए ‘आप’ के नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि ‘शुभ’ को ‘सच’ में बदलने की जिद ही वैकल्पिक राजनीति है. लोग विकल्प चाहते हैं और विकल्प को सपना नहीं बल्कि संभव बनाया जाए. उन्होंने कहा कि वे ‘आप’ को लेकर कोई चर्चा नहीं करेंगे. हालाँकि उन्होंने आप को भारतीय राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग बताते हुए कहा कि उसकी भूमिका आगे भी रहेगी. उन्होंने कहा कि फिलहाल हमारे पास स्थापित राजनीति के स्थापित विकल्प ही हैं, जो कांग्रेस और भाजपा में अदलते-बदलते रहते हैं. वैकल्पिक राजनीति बड़े दुस्साहस का काम है। आज हमारी सारी लड़ाइयां रक्षात्मकता के लिए लड़ी जा रही हैं. भारत के बारे में समग्रता में सोचने और उसका नवीनीकरण करने की कोशिशें ही वैकल्पिक राजनीति है. उन्होंने कहा कि अर्थशास्त्र की भाषा में कहूँ तो वर्तमान राजनीति और नेताओं को लेकर दिक्कत माँग-पक्ष की नहीं आपूर्ति पक्ष की है. उन्होंने कहा कि 21वीं शताब्दी में हर चीज को नए सिरे से बनाना होगा. ये नहीं हो सकता कि इमारत पुरानी हो और उसमें सुधार करके काम चला लिया जाए. समाजवादी वगैरह जितनी भी राजनीति बीसवीं शताब्दी की थीं उस मॉडल से काम चलने वाला नहीं है. भारत का आइडिया जिन तीन चीजों से बनता है, नरेन्द्र मोदी उसके विलोम में हैं. इस आइडिया में पहली चीज विविधता है, दूसरी समावेशिता और तीसरी लोकतंत्र.
वक्तव्यों के बाद हुए संवाद सत्र के दौरान श्रोताओं ने मंचासीन अतिथियों से प्रश्न पूछे और अपनी जिज्ञासायें जाहिर कीं.
ऐवाने गालिब सभागार में हर साल होने वाली इस संगोष्ठी में यह पहली बार था कि इस संगोष्ठी के संस्थापक और हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव इसमें नहीं थे. पिछले साल 28 अक्तूबर को 84 वर्ष की अवस्था में उनका निधन हो गया था. कार्यक्रम के आरंभ में राजेन्द्र यादव की पुत्री और ‘हंस’ की प्रबंध निदेशिका रचना यादव ने वक्ताओं और श्रोताओं का स्वागत करते हुये कहा कि ‘‘पापा के बिना कार्यक्रम संभव हो पाना उनकी प्रेरणा, परंपरा और आप सभी के सहयोग-स्नेह से ही सफल हुआ है.’’
कार्यक्रम में गुरुवार को ही दिवंगत हुए बांग्ला कवि नवारुण भट्टाचार्य की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया. अंत में हंस के संपादक संजय सहाय ने सभी आगंतुकों का आभार प्रदर्शन किया.