Shishir Sinha-
अमर उजाला के 75 वर्षों के सफर में तीन वर्ष (1995-1998) के साथी हम भी रहे हैं। लेकिन 3 वर्षों ने ही पूरी जिंदगी के लिए जो दिया, उसपर जितना कुछ कहेंगे, कम ही होगा। फिर भी कुछ यादें आपके साथ साझा करना चाहेंगे।
अमर उजाला ने 1995 में अमर उजाला कारोबार शुरू किया। अगर हम गलत नहीं तो यह राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में देश का पहला आर्थिक व कारोबारी अखबार था। कस्तुरबा गांधी मार्ग, नयी दिल्ली स्थित अंसल भवन के एक कमरे से शुरू हुआ अखबार का सफर प्रीत विहार स्थित सीबीएसई मुख्यालय के ठीक सामने वाले भवन में पहुंचा। काफी अच्छी टीम बनी थी। राजेश रापड़िया जी जैसे संपादक के साथ अनिल सिंह जी, दलजीत सिंह जी, नितिन प्रधान जी, हरवीर जी, उषा दी (अब स्वर्गीय) सुरेद्र भाई, शैलेंद्र जी (अब स्वर्गीय) जे पी भाई, विपल्व राही, भाषा, कुमुद, चौबे जी, सिद्धार्थ कलहंस, राजेंद्र तिवारी जी, राजीव रंजन, आलोक पुराणिक जी…. लंबी सूची है…. के साथ बिल्कुल ही नए सिरे से आर्थिक व कारोबारी पत्रकारिता जानने-समझने-लिखने का मौका मिला। वो भी क्या दिन थे!
काम शुरू हुए साल भर भी नहीं हुए कि एक दुर्घटना हो गयी। उन दिनों अपने मित्र अभय के स्कूटर का कभी-कभी इस्तेमाल करते थे। 26 जून 1995 की ताऱीख थी। अपने कैमरा सहयोगी राजीव त्यागी के साथ स्कूटर से हम प्रीत विहार जा रहे थे। तिलक ब्रिज से आईटीओ के तरफ मुड़ने वाले थे कि बहुत ही तेजी से आ रही एक ब्लू लाइन बस बिल्कुल बगल में आ गयी। किसी तरह उसकी चपेट में आने से बचे। लेकिन यह क्या, बायीं तरफ से एक और ब्लू लाइन बस आ गयी। शाम के वक्त आईटीओ पर खासी सवारी हुआ करती थी, इसीलिए दोनों तेज रफ्तार से एक-दूसरे से आगे निकलने में लगे थे। दो बस के बीच में थे, अचानक से हमारे स्कूटर का हैंडल एक के बोनट में फंसा। स्कूटर गिरा, बस रुकी नहीं। बस का पहिया, उसमें फंसा स्कूटर और स्कूटर के एक तरफ हमारे और राजीव के पांव। कुछ मीटर तक घसीटाते गए। बड़ी मुश्किल से लोगों ने बस रुकवायी। रुकते ही ड्राइवर कूदा और फरार।
हम और राजीव होश में थे तो लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दो लोग, जिनका चेहरा तो याद नहीं, लेकिन वो किसी फरिश्ते से कम नहीं थे, हमलोगों को उन्होने ऑटो रिक्शा से इर्विन अस्पताल पहुंचाया। मोबाइल फोन तो था नहीं, किसी तरह दफ्तर में उन्होंने ही फोन किया, हाल बताया। घंटे भर के भीतर आग की तरह खबर फैल गयी और इर्विन में पत्रकारों का जुटान हुआ। हम दोनों का इलाज शुरू हुआ। बांये पांव का तलबा पूरी तरह से जख्म हो चुका था, तीन ऊंगलियां आगे से पूरी तरह से खुली हुई थी, वो तो कहिए कि कंकड़ के टुकड़े फंसे हुए थे जिससे खून का बहना रूक गया था। इलाज के दौरान ही हम बेहोश हो गए और करीब 12 घंटे तक हमे पता नहीं कि क्या हुआ।
अगले दिन होश में आने के बाद एक बात साफ हो गया कि फिलहाल चलना बिल्कुल ही मुश्किल होगा। चूंकि शहर में अकेले थे, इसीलिए तय किया कि पटना परिवार के पास चला जाए। अब यहां अमर ऊजाला संस्थान ने जो किया, वो कभी नहीं भूल सकते। सबसे पहले तो उन्होंने प्रिये मित्र अमरेद्र किशोर (जिसका उपकार आज भी हम पर कर्ज है लेकिन हम उसे कभी हम चुका नहीं पाएंगे) के साथ पटना भेजने का इंतजाम किया। कुछ नकद राशि भी दी गयी।
अब नयी चुनौती सामने थी। पटना पहुंचने के बाद डॉक्टर से सलाह-मशविरा के बाद यह तय हो गया कि अपने पांव पर खड़ा होने में कुछ समय लगेगा। खड़ा होना तो दूर, बगैर सहारे के बैठना मुश्किल था। इस बीच जो भी घर पर आते, उनमें से ज्यादात्तर एक बात जरूर कहते, “अरे प्राइवेट नौकरी है। कुछ नहीं होने वाला। इसकी परेशानी और बढ़ेगी।“ चिंता थी अब नौकरी का क्या होगा, चिंता थी कि कि इलाज का खर्च कैसे उठा पाएंगे। मन पूरी तरह से परेशान हो चला था, लेकिन एक शाम दिल्ली से पड़ोसी के घर आए एक फोन ने सारी चिंता दूर कर दी।
फोन अमर उजाला के दफ्तर से था जहां से जानकारी दी गयी कि आपका वेतन भेजा जा रहा है और जब तक आप ठीक नहीं होते, तब तक चेक आता रहेगा। जून-जुलाई-अगस्त का वेतन घर पर समय से पहुंचा। करीब तीन महीने के बाद खड़े होने के साथ ही हम वापस दिल्ली आ गए। यहां भी एक ही बात कही गयी, “जब तुम्हे लगे कि तुम पूरी तरह से ठीक हो, तभी रिपोर्टिंग के लिए जाना।“
एक भी दिन की छुट्टी नहीं लगी। नियमित तौर पर तनख्वाह मिलती रही और नौकरी बनी रही। इससे ज्यादा आप एक संस्थान से क्या चाहेंगे। एक और बात, जो काफी अहम है, इसी संस्थान ने हमे चित्रा से मिलवाया जो अब हमारी पत्नी हैं।
धन्यवाद, अमर उजाला! आपका उजाला, अमर रहे।