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सुख-दुख

पानी और पर्यावरण के लिए लड़ने वाले संत पुरुष अनुपम मिश्र नहीं रहे

आज सुबह व्हाट्सएप पर सुप्रभात संदेशों के साथ एक दु:खद संदेश यह भी मिला कि जाने-माने पर्यावरणविद् और गांधीवादी अनुपम मिश्र नहीं रहे… जिस देश में चारों तरफ पाखंड और बनावटीपन का बोलबाला हो वहां पर एक   शुद्ध खांटी और खरे अनुपम मिश्र का होना कई मायने रखता है। सोशल मीडिया से ही अधकचरी शिक्षित हो रही युवा पीढ़ी अनुुपम मिश्र को शायद ही जानती होगी। देश में आज-कल ‘फकीरी’ के भी बड़े चर्चे हैं। लाखों का सूट पहनने और दिन में चार बार डिजाइनर ड्रेस पहनने वाले भी ‘फकीर’ कहलाने लगे हैं, मगर असली फकीरी अनुपम मिश्र जैसे असल गांधीवादी ही दिखा सकते हैं। उनका अपना कोई घर तक नहीं था और वे गांधी शांति फाउंडेशन नई दिल्ली के परिसर में ही रहते थे।

आज सुबह व्हाट्सएप पर सुप्रभात संदेशों के साथ एक दु:खद संदेश यह भी मिला कि जाने-माने पर्यावरणविद् और गांधीवादी अनुपम मिश्र नहीं रहे… जिस देश में चारों तरफ पाखंड और बनावटीपन का बोलबाला हो वहां पर एक   शुद्ध खांटी और खरे अनुपम मिश्र का होना कई मायने रखता है। सोशल मीडिया से ही अधकचरी शिक्षित हो रही युवा पीढ़ी अनुुपम मिश्र को शायद ही जानती होगी। देश में आज-कल ‘फकीरी’ के भी बड़े चर्चे हैं। लाखों का सूट पहनने और दिन में चार बार डिजाइनर ड्रेस पहनने वाले भी ‘फकीर’ कहलाने लगे हैं, मगर असली फकीरी अनुपम मिश्र जैसे असल गांधीवादी ही दिखा सकते हैं। उनका अपना कोई घर तक नहीं था और वे गांधी शांति फाउंडेशन नई दिल्ली के परिसर में ही रहते थे।

आज सुबह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली, उनकी उम्र 68 वर्ष की थी। अनुपम मिश्र पिछले एक साल से कैंसर से पीडि़त थे। अब यह भी सोच और शोध का विषय है कि अनुपम मिश्र जैसे सीधे-सरल व्यक्ति को भी कैंसर जैसी बीमारी आखिर क्यों चपेट में ले लेती है..? अनुपम मिश्र का एक परिचय यह भी है कि उनके पिता स्व. भवानीप्रसाद मिश्र प्रख्यात कवि रहे हैं। मैं गीत बेचता हूं… जैसी कई उनकी कविताएँ मंचों पर काफी लोकप्रिय रही है। अनुपम मिश्र शुद्ध गांधीवादी तो रहे, वहीं पर्यावरण और पानी के लिए उन्होंने अद्भुत काम किए। दस्यु अन्मुलन आंदोलन के अलावा भाषा पर भी उन्होंने बहुत काम किया।

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जल संरक्षण पर उनकी लिखी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ तो एक नायाब दस्तावेज है। इस किताब को कितनी भी बार पढ़ लो, मगर मन नहीं भरता। गर्मियों के दिनों में जब पूरा देश पानी की किल्लत महसूस करता है और उस दौरान जब कुएं, बावड़ी और तालाब याद आते हैं तब अनुपम मिश्र की ये किताब सबको याद आती है। इस किताब की लाखों प्रतियाँ बिक गईं और कई भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ, मगर इस किताब की भी कोई कमाई अनुपम मिश्र ने नहीं ली और इसका इस्तेमाल करने की अनुमति भी उन्होंने सबको दे दी। ‘हमारा पर्यावरण’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ जैसी किताबें भी उनकी खासी चर्चित रही।

‘आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी किताब हमारे नीति-नियंताओं के लिए आई ओपनर का काम करती है। देश के प्रमुख तालाबों और उनके निर्माण की प्रक्रिया को अत्यंत सुंदर भाषा शैली में अनुपम मिश्र ने प्रस्तुत किया है। इस किताब में इंदौर के यशवंत सागर और बिलावली तालाब तक का उल्लेख है। जिस वक्त अनुपम मिश्र ने देश में पर्यावरण पर काम शुरू किया तब सरकार में पर्यावरण नाम का कोई विभाग तक नहीं होता था। यह बात अलग है कि पर्यावरण मंत्रालय से लेकर राज्य सरकारों के प्रदूषण नियंत्रण मंडल जैसे विभागों ने भ्रष्टाचार का प्रदूषण ही अधिक फैलाया। बहरहाल, अनुपम मिश्र नहीं रहे यह खबर नि:संदेह मायूस करने वाली है। इस गांधीवादी और पर्यावरणविद और पानी के लिए लडऩे वाले असल ‘फकीर’ को विनम्र शृद्धांजलि!

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लेखक राजेश ज्वेल इंदौर के सांध्य दैनिक अग्निबाण में विशेष संवाददाता के रूप में कार्यरत् और 30 साल से हिन्दी पत्रकारिता में संलग्न एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ सोशल मीडिया पर भी लगातार सक्रिय. संपर्क : 9827020830

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