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सुख-दुख

सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि का तांता : हमारे समय का अनुपम आदमी…

Om Thanvi : ”हमारे समय का अनुपम आदमी”. ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे। सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हँसमुख, कोर-कोर मानवीय। इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक। दो जोड़ी कुरते-पायजामे और झोले वाले इंसान। गांधी मार्ग के पथिक। ‘गांधी मार्ग’ के सम्पादक। पर्यावरण के चिंतक। ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक।

<p><span style="font-size: 18pt;"></span>Om Thanvi : ''हमारे समय का अनुपम आदमी''. ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे। सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हँसमुख, कोर-कोर मानवीय। इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक। दो जोड़ी कुरते-पायजामे और झोले वाले इंसान। गांधी मार्ग के पथिक। 'गांधी मार्ग' के सम्पादक। पर्यावरण के चिंतक। 'राजस्थान की रजत बूँदें' और 'आज भी खरे हैं तालाब' जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक।</p>

Om Thanvi : ”हमारे समय का अनुपम आदमी”. ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे। सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हँसमुख, कोर-कोर मानवीय। इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक। दो जोड़ी कुरते-पायजामे और झोले वाले इंसान। गांधी मार्ग के पथिक। ‘गांधी मार्ग’ के सम्पादक। पर्यावरण के चिंतक। ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक।

वे अनुपम भाई आज तड़के हमें छोड़ गए।  कल रात एम्स में उनकी कराह मुझसे सुनी नहीं जाती थी। वह जानलेवा टीस बाहर तक सारे माहौल में पसरी थी। जिस कक्ष में वे थे, उसमें दाख़िल होने का साहस मैं देर तक जुटा सका। कभी परदे की ओट से उन्हें देखता, फिर पाँव पीछे हो जाते। असहनीय पीड़ा ही होगी। जबकि बरदाश्तगी के लिए अब छह की जगह हर तीन घंटे में मोर्फ़िन के इंजेक्शन दिए जा रहे थे। उन्हें कैंसर था जो पिछले कुछ दिनों में सारे शरीर में फैल चुका था।

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हम लौटे तो रास्ते में मैंने प्रेमलताजी से कहा, ये शायद अंतिम दर्शन न हों! वे चुप रहीं। मैंने कहा, हम कल आएँगे। पर सुबह 5.27 पर उन्होंने हम सबसे विदा ले ली।  उनका शरीर बारह बजे गांधी शांति प्रतिष्ठान से निगम बोध घाट के विद्युत शवदावगृह ले जाया जाएगा। दोपहर डेढ़ बजे एक आख़िरी मुलाक़ात उनसे अब मौन में ही सही, पर वहाँ ज़रूर होगी।  अनुपम भाई, जयहिंद!

Sanjeev Chandan : अनुपम मिश्र नहीं रहे। अनुपम मिश्र (१९४८-1916) जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी पर्यावरणविद् थे। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने का काम वे तब से कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है। उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन का काम भी किया। उनकी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ का अब तक 14 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

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Sant Sameer : बेहद दु:खद। अनुपम मिश्र नहीं रहे। “आज भी खरे हैं तालाब” के इस मशहूर गान्धीवादी लेखक के बारे में शायद किसी को बताने की ज़रूरत न होगी। जो भी उनसे मिला होगा, उनकी शख़्सियत, उनकी सादगी को भुला नहीं सकता। क़रीब हफ़्ते भर पहले ही उनसे बात हुई थी। उनकी पसन्दीदा विश्व की दस अमर कहानियों पर बात करनी थी। मेरी बात का हमेशा ख़याल रखते थे, पर संयोग था कि थोड़ी ही देर पहले वे अस्पताल से लौटे थे और थके हुए थे। सो, उस दिन बात टल गई। इन दिनों वे कुछ बेहतरी की उम्मीद कर रहे थे, पर देह के भीतर क्या चल रहा है, क्या मालूम? उनसे मिलकर अपने जैसे लोग ऊर्जावान महसूस करने लगते थे। सचमुच उनका इस तरह चले जाना हमारे समाज की बहुत बड़ी क्षति है।

Sandip Naik : प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक, विचारक और लेखक अनुपम मिश्र जी का आज प्रातः निधन हो गया। पिछले कुछ समय से वे कैंसर से पीड़ित थे। आज भी खरे है तालाब से लेकर अनेक किताबों के लेखक, संपादक और पानी पर्यावरण बचाने के लिए उनके कामों और विचारों को याद रखा जाएगा। भवानी भाई के बेटे और होशंगाबाद के पास जन्मे अनुपम जी सादगी की बेहतरीन मिसाल थे, गांधीवादी व्यक्ति का चले जाना एक और गांधी युग का अंत है। बिरले लोगों में से एक अनुपम जी हमेशा याद रहेंगे।

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अनुपम जी से केसला में आखिरी मुलाक़ात थी उनके पानी वाले स्लाइड शो पर मैंने काफी तीखा आलेख लिखा था , ओम थानवी जी ने जनसत्ता में छापा पर अनुपम जी विनम्रता की मिसाल थे मुझे चिठ्ठी लिखी कि सब बातें शिरोधार्य है और मैं बदलता हूँ कुछ अपने आपको और कुछ आप भी सोचिये मेरी चिंताओं को। निटाया, होशंगाबाद जाने पर बनवारी लाल जी, दीवान जी और गीता बहन से बातें होती थी, इंदौर में कस्तूरबाग्राम में पुष्पा दीदी और राधा बहन से। गांधी वाद को जीवन में उतारने वाले असली लोगों में थे वे, सच में ऐसे लोग अब नही मिलेंगे। आप जाते जाते मुझे विनम्रता सीखा गये। सच में आप महान थे अनुपम मिश्र जी

अभी दिल्ली में था – पिछले हफ़्ते , तो Manoj Pande जी से बातें हुई थी और हम लोग उनसे मिलने जा रहे थे । मनोज भाई ने भी कहा था कि आ जाईए घर है – पर रह ही गया सब !  बेरहम दिसम्बर एक और व्यक्ति को लील गया जाते जाते। दुखद। नमन और श्रद्धांजलि।

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Satyanand Nirupam : साफ माथे का मानुष चला गया! कचरामुक्त समाज के स्वप्न का बीज हम सबके मन और मष्तिष्क में डाल कर। बिरले मिलता है अनुपम मिश्र जैसा कोई। सादगी और विनम्रता, स्पष्ट और सशक्त विचार- उनके आचरण में और लेखन में हमेशा मैंने यही पाया। वे सिर्फ समाज में तालाब और तालाब में पानी के होने की अहमियत बताने वाले नहीं थे।बल्कि उन्होंने अपने आचरण से यह दर्शाया कि मनुष्य की आँखों और हृदय में भी पानी का होना कितना जरूरी है। जितना मैंने उन्हें देखा, जाना और समझा, उसके आधार पर गाँधीवादी आदर्शों के एक उज्ज्वल हस्ताक्षर की तरह वे मेरे मन पर हमेशा अमिट बने रहेंगे। जीवन की आपाधापी में मुझे उतनी मोहलत नहीं मिली कि खुद आगे बढ़ कर उनकी स्नेह-छाया में अधिक से अधिक समय बीता सकूँ। लेकिन उन्होंने स्वयं आगे बढ़ कर मुझे जितना स्नेह और नैतिक बल दिया, मुझे ही नहीं, और भी तमाम युवाओं के मानस को जैसे सींचा, इसके लिए उन्हें बार-बार प्रणाम है! वे कहीं गए नहीं, अदृश्य होकर बस हम सबको परख रहे हैं हमारे कर्मों में। हमारे सच्चे कर्म और साफ विचार ही उनके प्रति श्रद्धांजलि के फूल होंगे…

Sachin Kumar Jain : पानी और पर्यावरण की एक अलग ही समझ विकसित करने वाले और भाषा के समाज से रिश्तों को सामने लाने वाले बहुत सहृदय और स्पष्ट व्यक्ति आदरणीय अनुपम मिश्र जी हमारे बीच नहीं रहे। वे गांधी मार्ग पत्रिका के संपादक थे। उन्होंने आज भी खरे हैं तालाब, राजस्थान की रजत बूँदें सरीखी किताबें रची। आज के समाज में उन्होंने अहिंसा को सचमुच जिया, जो कहा वह किया। हमारे लिए अपूर्णीय निजी क्षति। आपको नमन अनुपम भाई।

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Arvind K Singh : नमन श्री अनुपम मिश्रजी, जल संरक्षण में आपका योगदान यह देश हमेशा याद रखेगा….
सैकड़ों हजारों तालाब
अचानक शून्य से प्रकट नही हुए थे।
इसके पीछे एक इकाई थी
बनवाने वालों की, तो
दहाई थी बनाने वालों की।
यह इकाई, दहाई मिल कर
सैकड़ा हजार बनती थी।
पिछले दो सौ बरसों में
नए किस्म की
थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए
समाज ने इस इकाई, दहाई सैकड़ा हजार को
शून्य ही बना दिया….

और इस समाज को आपने
आईना दिखाया अनुपमजी
समाज याद रखेगा
आपका अनुपम योगदान…
नमन..आपके अमरत्व को..

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मुकेश निर्विकार : ओह, वज्रपात हो गया!!! पृथ्वी पर पानी और पर्यावरण का सबसे बड़ा प्रहरी असमय ही काल-कवलित हो गया। श्री मिश्र जी से एक बार गांधी शांति प्रतिष्ठान में मुलाक़ात करने व् कई बार फ़ोन पर बात करने का भी सौभाग्य मिला। उन्होंने मुझे अपनी कालजयी कृति ‘आज भी खरे हैं तालाब’ भेंट की थी। गांधी जी की ‘हिन्द स्वराज’ तथा स्व0 भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक काव्य पुस्तक भी उन्ही से प्राप्त हुई। उनकी बीमारी के दौरान भी उनसे बात हुई। कैंसर जैसी प्राणघाती बीमारी भी उनके अंतस की समता को तोड़ने में नाकामयाब रही। वह सादगी, सरलता, सहजता, विद्वता की प्रतिमूर्ति थे। सचमुच, एक महामानव!!! चिर अनुकरणीय,… शत-शत नमन!

Mangalesh Dabral : बहुत दुखद. हवा और पानी बचाने की राह दिखानेवाले गांधीवादी पर्यावरणविद और पुराने मित्र अनुपम मिश्र नहीं रहे. उनके लेखन की आत्मीय, पानी सरीखी भाषा हमेशा प्रवाहित रहेगी.

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Yashwant Singh : अनुपम मिश्र जी वाकई संत पुरुष थे. सादगी और उदात्तता की प्रतिमूर्ति. विश्वास नहीं होता हम लोगों के जमाने में भी ऐसे लोग होते हैं. अनुपम दा के साथ कई बार संगत का मौका मिला. हर बार वह दिल को छू गए, समाज, प्रकृति और मनुष्यता के लिए कुछ न कुछ करते रहने की सीख दे गए. विनम्र श्रद्धांजलि.

Nirala Bidesia : यह पोस्ट लिख रहा हूं, हाथ कांप रहे हैं. सुबह से यही चार शब्द नहीं लिख पा रहा कि अनुपम मिश्र नहीं रहे. न मानस साथ दे रहा, न हिम्मत हो रही है न हाथ चल पा रहा. आज शाम दिल्ली का रिजर्वेशन है, उनसे ही मिलने जाना था. चार दिन पहले ही जाना था, उनसे ही मिलने. चार दिन पहले नहीं गया, यह मेरे मन में हमेशा अपराधबोध की तरह बैठा रहेगा. पिछले माह उनसे ही मिलने दिल्ली गया था. अनुपम मिश्र का जाना मेरे लिए एक बड़ी निजी क्षति है, जिसकी भरपाई मेरे लिए संभव नहीं. वह मेरे मेंटर थे,अभिभावक थे,उर्जा के केंद्र. अपने जीवन में उतना गहरा सम्मान किसी बौद्धिक के लिए मन में नहीं आया अब तक. कल रात ही रांची आया. आज रांची से ही दिल्ली का रिजर्वेशन था उनके पास जाने के लिए. किसी तरह उनकी आखिरी यात्रा में शामिल होना चाहता हूं लेकिन कोई उपाय नहीं.

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Abhishek Srivastava : हमारे समय के शायद सबसे विवेकवान, संवेदनशील और सरल लोगों में से एक रहे अनुपम मिश्र का आज सुबह दिल्ली के एम्स में निधन हो गया है। उनकी अंतिम यात्रा गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से 12 बजे शुरू होगी और दोपहर 1 बजे निगमबोध घाट पर अंत्येष्टि होगी।

Pankaj Chaturvedi : अनुपम बाबू आज सुबह पांच चालीस बजे अपनी अंतिम अनंत यात्रा पर निकल पड़े. अनुपम भाई, यानि अनुपम मिश्र. जब सरकार को पर्यावरण जैसे किसी शब्द कि परवाह नहीं थी, तब उन्होंने गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष स्थापित कर दिया था. अस्सी के दशक में उनकी पुस्तक हमारा पर्यावरण, हिंदी में देश के समग्र पर्यावरण अध्ययन का पहला दस्तावेज था. “आज भी खरे हें तालाब” ने तो समाज और सरकार की जल संरक्षण के प्रति दिशा ही बदल दी. कथेतर साहित्य में हिंदी में सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक के लेखक, एक संवेदनशील इंसान, प्रख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम भाई का जन्म १९४६ ऐसा वर्धा में हुआ था. उन्हें चंद्रशेखर आजाद राष्ट्रीय पुरस्कार, जमनालाल बजाज पुरस्कार, इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार सहित कई सम्मान मिले. लेकिन वे अपनी लेखनी, समय, शक्ति केवल समाज के लिए लगाते रहे. पिछले साल जब उन्हें प्रोस्टेट का कैंसर उभरा तो भी वे इस दर्द को सह कर भी काम में लगे रहे. आज सुबह दिल्ली के आल इंडिया मेडिकल साईंस में उनका शारीरिक अवसान देश, समाज के लिए अपूरणीय क्षति है.  मेरे लिए तो यह असीम दुःख के पल हैं. मेरे लिखने की दिशा अनुपम बाबू ने बदली थी. अस्सी के दशक में हम बुन्देलखंड के पत्रकार डकैत या मूर्तियां या प्राचीन मंदिर पर लिखा करते थे. सन १९८६ में नौकरी तलाशने दिल्ली आया तो अनुपम जी से किसी परिचित के माध्यम से मुलाक़ात हुई. उन्होंने पर्यावरण वाली पुस्तक पढ़ने को दी. उस समय तालाब वाली पुस्तक पर काम जोर शोर से चल रहा था. उन्होंने कहा कि तुम अभी तक जो लिखते हो उससे समाज को कोई लाभ नहीं है और उन्होंने तालाब के प्रति एक अलख मेरे मन में जगा दी. फिर मैं जुट गया. “आज भी खरे हैं तालाब” में उन्होंने दो स्थान पर मेरा सन्दर्भ दिया. बुंदेलखंड के तालाबों को ले कर. उसके बाद मेरे लिखने की धारा ही बदल गयी. यह मेरे ही नहीं, हज़ारों हज़ार लोगों के साथ हुआ और अनुपम बाबू ने उनकी कलम, विचार और कार्य को सकारात्मक दिशा दी. बीत रहे साल का सबसे दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण दिन मेरे लिए. 

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अनुपमजी का शरीर राख हो गया. हजारों लोग थे. गांधीवादी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आम आदमी. हर एक की आंखों के कोर ऐसे भीगे थे, जैसे कोई उनका अपना ही गया हो. जैसे अनिल अग्रवाल गए, वैसे ही अनुपम बाबू. समुद्र मंथन में सुर व असुर के समान बल प्रयोग से समुद्र जब मथा गया तो ढेर सारी सुख की वस्‍तुएं निकली थीं. आज के काल के अनुसार मान लो तो बिजली, जीवाश्‍म इंधन, परमाणु बम, ज्‍यादा पानी पीने वाले कल कारखाने व खेती आदि आदि… लेकिन उस समय भी कपिला गाय से ले कर रत्‍न निकलने के बाद हलाहल यानि जहर भी निकला था. प्रक‍़ति ने साफ कहा था कि यदि भौतिक सुख चाहिए तो यह जहर भी किसी को धारण करना होगा. शिव ने जहर हो अपने कंठ में विराजमान कर लिया था. लगता है अनुपम बाबू और उससे पहले अनिल जी ऐसे ही भोले भंडारी शिव थे जिसने जमााने के सुख के बीच उपजे जहर को अपने कंठ में धारण कर लिया था. तभी दोनों सात्विक शख्सियत कैसे से ही इस असार संसार से मुक्त हुए. यह चेतावनी है .. हम सब के लिए, अब अगला शिव कौन बनेगा?

Vishwa Deepak : निजी सुख-दुख की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को लेकर हमेशा से एक संकोच सा रहा है. पर अनुपम जी तो हम सबके थे. उन्हें लेकर संकोच कैसा ? जाता हुआ साल पहले बाबा जी को ले गया और अब अनुपम जी भी चले गए. जाना तो हम सबको है एक दिन. बस मतलब की बात बस इतनी सी है कि हम क्या दे कर जाते हैं. अनुपम जी के पिता भवानी प्रसाद मिश्रा ये कविता उन सबके लिए जो इस धरती को कुछ न कुछ देकर गए –
तुमने जो दिया है वह सब
हवा है, प्रकाश है, पानी है।
छन्द है, गन्ध है, वाणी है
उसी के बल पर लहराता हूं।।
ठहरता हूं, बहता हूं, झूमता हूं
चूमता हूं, जग-जग के कांटे।
आया है जो कुछ मेरे बांटे
देखता हूं वह तो सब कुछ है।।

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Prashant Dubey : अनुपम भाई की सहजता के असंख्य उदाहरण हो सकते हैं… दिन भर से अनुपम भाई की यादों से निकल नहीं पा रहा हूँ| उनकी सरलता के कुछ किस्से आपसे बाँट रहा हूँ|

– जब हम उनके बेटे (शुभम) की शादी समारोह में भोपाल(संस्कार उपवन, कोलार) में शामिल हुए तो वहां कुछ ज्यादा जगमग थी, जो कि जीजी के कहने पर की गई थी| जब शाम गहराई तो रोशनी ज्यादा समझ में आने लगी, अनुपम भाई चिंतित हो गए| इतनी रोशनी की क्या जरुरत….! शादी ही तो है| उन्होंने तुरंत उपवन के मालिक को ढूँढा और कहा कि निवेदन है कि थोड़ी रोशनी कम कर दें..| वह हतप्रभ था| दूल्हे का बाप इतने विनम्र भाव से रोशनी कम करने का जिक्र करे तो यह न पचने योग्य बात ही है| सभी ने बहुत समझाया फिर भी अनुपम भाई ने बहुत सी रोशनी कम करा ही दी|

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– मैंने एक बार एक लेख गांधी मार्ग के लिए लिखा, और उसमें नरा(नाडा) को अंग्रेजी में प्लेजेंटा लिख दिया| उन्होंने मुझे फोन करके पूछा कि पैदाइश तो होशंगाबाद की ही है न, तो वहां तो अपन नरा ही बोलते रहे हैं तो प्लेसेंटा कैसे लिखा …!! नरा कहते हैं तो नरा लिखेंगे …..| बोलें कुछ, और लिखें कुछ| तो यह तो भाषा के साथ भी अन्याय ही है|

– मैंने उनकी किताब “साफ़ माथे का समाज” (पेंगुइन प्रकाशन) पढ़ी और उसके बाद उन्हें चिट्ठी लिखी| उन्होंने प्रत्युत्तर में मुझे लिखा कि यह किताब मेरे पास भी नहीं बची है, संभव हो तो एकाध मुझे भी भेज दें| जिस किताब का डंका बज रहा हो और लेखक के पास न बची हो, यह बहुत ही आश्चर्यजनक है!! मेरी धूर्तता देखिये कि मैंने उनसे कहा (फोन पर) कि प्रकाशक से बोलिए, पहुंचा देगा! उन्होंने कहा कि उनसे एक दो बार ले चुका हूँ, कितनी बार लूँगा| अपन तो खुद खरीद लेंगे| मैंने तब उन्हें एक प्रति भेजी|

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– अभी हाल ही में जब वे भर्ती हुए तो एम्स के डाक्टरों ने उनके लिए बहुत मशक्कत की| उन्होंने बाहर निकलकर डाक्टरों से हाथ जोड़कर कहा कि “आपने मेरे लिए बहुत मेहनत की, मैं आपका आभारी हूँ”| सभी डाक्टर चौंक गए और उन्होंने google किया तो पता चला कि यह शख्स अनुपम मिश्र है| उन्होंने पूरी खोजबीन के बाद एम्स में उनका एक लेक्चर करवाया|

– विकास संवाद के मीडिया फोरम में वे केसला (होशंगाबाद) आये थे| राकेश भाई के यहाँ रुके और केसला पहुँचे| मैंने श्रद्धा से उनके चरण स्पर्श कर लिए| उन्होंने सभी के सामने कहा कि हम तो साथी हैं, और यदि आप यह करेंगे तो फिर तो मुझे भी आपके चरण स्पर्श करने चाहिए| आज जब चाटुकारिता चरम पर है और पैर पड़ाई को ही अपना कद मान लिया जाता है, ऐसे में अनुपम भाई बिरले ही थे|

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आपको नमन और आपकी सरलता को नमन…..|

Dayanand Pandey : पूरे भारत में घूम-घूम कर तालाब को जीवन देने वाले गांधीवादी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र का निधन बहुत दुखद है। जब जनसत्ता शुरू हुआ था तो अनुपम मिश्र हर हफ्ते पर्यावरण और पानी से जुड़े लेख लिखते थे। प्रभाष जोशी के वह मित्र थे। लेकिन जनसत्ता आते तो बाकी साथियों से भी मिलते। गांधी शांति प्रतिष्ठान में रहते थे सो पैदल ही आते थे। बहुत ही मामूली खादी के कपड़े और साधारण सा चप्पल पहने जब वह आते तो लगता जैसे साफ पानी की कोई नदी आ गईं हो। बाद में पता चला कि अनुपम जी प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र के सुपुत्र हैं। जे पी ने जब चंबल के डाकुओं का समर्पण करवाया था तब उन के साथ अनुपम मिश्र भी थे। प्रभाष जोशी भी। चिपको आंदोलन से भी वह जुड़े रहे। बहुत सारे काम किए , किताबें और लेख लिखे अनुपम ने पर जल्दी ही वह पानी को समर्पित हो गए। पानी में भी तालाबों के पानी पर। तालाबों के पानी को वह खरा बताते थे। जब तक भारत में तालाब रहेंगे, अनुपम मिश्र जीवित रहेंगे, पानी बन कर। उन्हें प्रणाम!

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Swatantra Mishra : आज एक और अपना चला गया। पर्यावरण की चिंता करने वाले अनुपम मिश्र नहीं रहे। पिछले कई महीनों से वे कैंसर से जूझ रहे थे। पर, पानी और पर्यावरण का काम वे करते रहे। गांधी मार्ग का शानदार संपादन करते रहे। आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदे जैसी कालजयी पुस्तक उन्होंने लिखी। मैंने तहलका और शुक्रवार के दौरान उनसे जब भी कहा उन्होंने मुझसे बात की और लेख तैयार करवाया। मेरी भाषा पर कई बार उनका असर साफ़-साफ़ दीखता है। सुनीता नारायण भी ऐसा कहती हैं-बिल्कुल अनुपम भाई की तरह सरल और सहज। मेरा पास यादों का पिटारा है। और बचा ही क्या?  आप हमेशा मेरे आगे रौशनी लिए मार्ग दर्शन करेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि।

Amarendra Kishore : नहीं रहे प्रकृति के बेजोड़ साधक अनुपम मिश्र : तोड़ करके वीण उसने रिक्त कर दी आज झोली. अनुपमजी का जाना अप्रत्याशित तो कतई नहीं कह सकते– बल्कि अपनों को आश्वस्त कर चुके थे कि जाने की घड़ी आ चुकी है। बीते साल हमने अनुपम भाई के व्याख्यान को डेवलपमेंट फाइल्स के लगातार ५ अंकों में छापकर पाठकों की वाहवाही बटोरी थी– अब उनके उसी व्याख्यान के बुकलेट छापने पर काम शुरू किया था; इसकी की तैयारी चल रही है। दुर्योग, अनुपमजी चले गए। अनुपमजी की कालजयी कृतियाँ युगों तक आनेवाली पीढ़ियों और नस्लों को यह बताने में सक्षम होंगीं कि ‘आज भी खरे हैं अनुपमजी’– अनुपमजी को मेरी श्रद्धान्जलि।

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सौजन्य : फेसबुक

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