नई दिल्ली । पर्यावरणविद् और ‘गांधी मार्ग’ के संपादक अनुपम मिश्र ने कहा है कि जरूरत पड़ने पर सामाजिक या गैर सरकारी संस्थाओं का सृजन जरूर करना चाहिए लेकिन एक समय आने पर हमें इसके विसर्जन के बारे में भी सोचना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे टांग टूटने पर पलास्टर लगाया जाता है, लेकिन उसके ठीक होने के बाद हम पलास्टर हटा देते हैं। मिश्र सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसायटी की साऊथ एशियन डायलॉग आॅन इकोलाजिकल डेमोक्रेसी योजना के तहत इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित दो दिन की राष्ट्रीय कार्यशाला के आखिरी दिन एक विशेष सत्र को संबोधित कर रहे थे। इस विशेष सत्र के व्याख्यान का विषय ‘संस्था, समाज और कार्यकर्ता का स्वधर्म’ था। कार्यशाला में देश के विभिन्न राज्यों सहित पड़ोसी देशों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भाग ले रहे थे।
मौजूदा दौर में ज्यादा से ज्यादा संसाधन जुटाने में जुटीं गैर सरकारी संस्थाओं के ढांचे और उनसे जुड़े लोगों के रवैए पर टिप्पणी करते हुए मिश्र ने कहा कि आज ये गैर सरकारी संस्थाएं एक-दूसरे को रौंदते हुए सबसे आगे बढ़ने की होड़ में हैं। उन्होंने हैरानी जताई कि ये संस्थाएं थोड़े ही दिनों में कैसे खुद को राष्ट्रीय और फिर अंतरराष्ट्रीय घोषित करने की जल्दबाजी में रहती हैं। समाज की मदद के मामले में गैर सरकारी संस्थाओं की सीमाओं, भूमिकाओं और प्रयोगों का विस्तार से जिक्र करते हुए अनुपम मिश्र ने कहा कि जब सरकार नाम की संस्था लोगों की आकांक्षाओं और जरूरतों को पूरा करने में हमेशा विफल रहती आई है तो इन संस्थाओं की क्या औकात है। उन्होंने कहा कि संस्थाओं का आकार छोटा होना चाहिए, कार्यकर्ता भी कम होने चाहिए और मकसद पूरे हो जाएं तो इन्हें बंद करने में भी देरी नहीं करनी चाहिए।
मिश्र ने राजस्थान के गांवों में ग्रामीणों द्वारा बगैर सरकारों और संस्थाओं के सहयोग से पानी जुटाने की व्यवस्था पर केंद्रित स्लाइड दिखाते हुए बताया कि एक स्वस्थ समाज को संस्थाओं की कभी जरूरत नहीं होती और समाज से बड़ी कोई संस्था भी नहीं होती। उन्होंने कहा कि असल में एक धनवान संस्था बनाने के बदले हमें समाज में एक-दूसरे के प्रति ममता और समता की भावना को हमेशा जागृत करने का प्रयास करना चाहिए और उनके पारंपरिक ज्ञान का सम्मान करते हुए उसका उनके उत्थान के लिए इस्तेमाल करना चाहिए।
मिश्र के संबोधन के बाद शिरकत कर रहे श्रोताओं ने अनेक तरह के सवाल रखे, जिनके जवाब उन्होंने दिए। सवालों में लोगों की यह चिंता गहरी दिखी कि आज समाज का पारंपरिक ज्ञान लुप्त हो रहा है और तथाकथित विकास के सैलाब में वह सब कुछ खत्म हो रहा है, जिन पर हम निर्भर थे और जिनके गुण गाते आज भी नहीं अघाते। ज्यादातर ने यह सवाल भी अलग-अलग ढंग से उठाया कि जिस समाज में हिंदू-मुसलिम एकता और सद्भाव कायम था, वह आज तार-तार हो रहा है और सामाजिक सद्भाव के प्रतीक और धरोहर भी मिटाए जा रहे हैं। लोगों ने यह जरूरत भी बताई कि कार्यकताओं को अपने स्वधर्म का नहीं, युगधर्म का निर्वाह करना चाहिए।
दो दिन की इस कार्यशाला में दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में पर्यावरण क्षरण पर चिंता जताते हुए इसके लिए आम लोगों में जागृति लाने और मकसद को हासिल करने के लिए संचार माध्यमों सहित विभिन्न पारंपरिक तौर-तरीकों के कारगर इस्तेमाल आदि पर भी गहन चर्चा हुई। संगठन और संघर्ष के लिए रणनीति बनाने और इसमें सभी लोगों की भागीदारी बढ़ाने के उपायों पर भी विचार किया गया। कार्यशाला में राजस्थान से आए छतर सिंह सहित समाज चिंतक आशीष नंदी, कमल नयन काबरा, प्रदीप गिरी, श्रवण गर्ग, केवी राजन, विजय प्रताप, रजनी बख्शी, अनिल मिश्र, राकेश दीवान, किरण शाहीन, रघुपति, अंबरीश कुमार, प्रसून लतांत, मणिमाला, औवेश, सुंदर लाल सुमन, नंद कुमार आजाद, आशुतोष, विजय शुक्ला, शाहीद कमाल और कुमार कृष्णन आदि ने भी अपने विचार रखे।