Sanjay Verma-
77 वर्षीय क्लाउडिया गोल्डिन को इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला है । वे लेबर मार्केट में महिलाओं की भागीदारी पर काम कर रही हैं । उनके अनुसार अमेरिका जैसे देश में भी कामकाजी महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले 68 फीसदी कम है और मौजूदा रफ्तार से यह फर्क खत्म होने में अभी 100 साल और लगेंगे ! सोचिए यदि अमेरिका की यह हालत है तो भारत को कितना लंबा सफर तय करना है ।
5 ट्रिलियन की इकोनॉमी का ख्वाब देख रहे भारत को सोचना होगा कि जब हमारी आधी आबादी की सारी ऊर्जा समय और चिंता गर्म फुलके परोसने में लगी हो तो यह लक्ष्य कैसे हासिल होगा ।
संसद में महिलाओं को भागीदारी मिल भी जाए पर दफ्तर , दुकानों कारखानों , कारीगरों में महिलाओं की उपस्थिति आज भी नगण्य है ।
हमने बेटी पढ़ाओ तो मान लिया पर पढ़ने के बाद बेटी ने क्या किया इस पर बात नहीं की ! तमाम यूनिवर्सिटिययों की मेरिट लिस्ट पर लड़कियों का कब्जा है , पर बाद में ये लड़कियां कहां गुम हो जाती हैं कोई नहीं पूछता ? बीएससी , एम.ए , पीएचडी की डिग्रियां अपनी मालकिन को झाड़ू पोछा करते देख किसी पुराने बक्से के अंधेरे में मुंह बिचकाती हैं – व्हाट ए वेस्ट ..! यूनिवर्सिटी में जीते गोल्ड मेडल उनके दहेज में मिले बैंगल बॉक्स की मखमली कब्रगाह में दफन हो जाते हैं ,जिसे वे हर दिवाली हुलस कर निकलाती पोंछती हैं फिर उदास होकर वापस रख देती हैं। क्लाउडिया गोल्डन के नोबेल का हमारे लिए अर्थ यही है कि हम भारत में भी इस विषय पर बात करें ।
हम चीन की बराबरी करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं जो अच्छी बात है ,पर चीन से हमें यह सीखना चाहिए कि तरक्की के लिए सिर्फ आर्थिक सुधार नहीं , सामाजिक ढांचे को ठीक करना भी जरूरी है । चीन में कामकाजी महिलाओं की संख्या 62 प्रतिशत है जबकि भारत में लगभग 25 से 30 प्रतिशत ! एक रिपोर्ट के मुताबिक 2004 में यह आंकड़ा 35 फ़ीसदी था , हैरानी की बात है कि यह अब घट गया है । महिलाओं की भागीदारी पर हुए एक सर्वे में 145 देशों में भारत का नंबर 139 है । जानकारों का मानना है कि यदि हम महिलाओं की भागीदारी 10 फीसदी से बढ़ा सकें तो भारत के जीडीपी में 552 बिलीयन डॉलर्स की बढ़ोतरी कर सकते हैं जो हमारे पिछले साल की जीडीपी का लगभग 16% होगा । इस तरह देखें तो महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का काम वेलफेयर एक्टिविटी नहीं बल्कि डेवलपमेंट एक्टिविटी है ।
गोल्डिन कहती हैं कामकाजी महिलाओं की भागीदारी को एक यू शेप के पैटर्न से समझा जा सकता है । खेतिहर समाज में उनकी भागीदारी बराबरी की थी लेकिन जैसे ही इंडस्ट्रियल इकोनामी आई महिलाओं को घर बैठा दिया गया ।इंडस्ट्रियल समाज के ज्यादातर काम ऐसे नहीं थे जिन्हें परिवार की जिम्मेदारियां के साथ-साथ किया जा सकता । इसलिए महिलाओं की तरक्की में शादी और परिवार आड़े आ गया । शादी ने महिलाओं के साथ दो तरफा धोखा किया । पहले घर संभालने , बच्चों के लालन पालन की पूरी जवाबदारी अकेले महिला पर डाल दी ,और दूसरे वे घर पर जो काम कर रही थी उसकी इकोनामिक वैल्यू की नाप जोख के लिए इंडस्ट्रियल सोसायटी ने कोई तरीका नहीं सुझाया । एक महिला जो घर का पानी भर रही है , तीन टाइम का खाना, कपड़े , झाड़ू पोछा इन सब की कोई इकोनामिक वैल्यू नहीं मानी गई । इसलिए महिलाओं के श्रम को न सम्मान मिला न मुआवजा । इतने ‘ मेन अवर’ (माफ कीजिए हमारी भाषा तक में श्रम के लिए वूमेन अवर जैसा कोई शब्द नहीं है )पसीना बहाने के बावजूद वह पैसों के लिए अपने पति के आगे हाथ फैलाती रही।
अब सर्विस इकोनामी आने के बाद कामकाजी महिलाओं का ग्राफ वापस ऊपर आया है लेकिन अब भी वर्क फ्रॉम होम और कंप्यूटर जैसे रोजगार सीमित हैं , और शादी और बच्चे अब भी एक बड़ी रुकावट हैं ।
गोल्डिन के मुताबिक बच्चों के देखभाल के लिए आंगनवाड़ी और क्रैच जैसे संस्थानों को बड़े स्तर पर सहायता देकर आगे बढ़ाना इस मामले में मददगार हो सकता है।
मगर मुझे लगता है हमारी मुश्किलें और भी हैं । अभी तो कामकाज की हमारी ज्यादातर जगहें और माहौल ऐसा नहीं जहां कोई महिला अपनी गरिमा और सम्मान के साथ काम कर सके । हमारा रसोई घर भी एक बड़ी बाधा है । एक तमिल फिल्म देखी थी – द ग्रेट इंडियन किचन । यह फिल्म देखते एक सिहरन उठती है कि हमारे रसोई घर , और उनमें लगातार बनने वाला खान पान किस तरह एक महिला का पूरा जीवन लील लेता है । शायद हमें अपनी रेसिपीज पर भी बात करने की जरूरत है । धीमी आंच पर घंटों सिजने वाले पुलाव के साथ कामकाजी महिला का निबाह संभव नहीं । हमें अपने खानपान पर भी बात करनी होगी ।