Connect with us

Hi, what are you looking for?

टीवी

अगर ऐसी खबरें नहीं पढ़ाते-दिखाते तो आप हिंदी अखबार और हिंदी चैनल को गुडबॉय कह दें : रवीश कुमार

Ravish Kumar : किसे ज़्यादा चंदा दे रहे हैं औद्योगिक घराने, टाटा का चंदा 25 करोड़ से बढ़कर 500 करोड़ हुआ… आज आपके सामने अलग-अलग समय पर छपे दो ख़बरों को एक साथ पेश करना चाहता हूं। एक ख़बर 7 दिन पहले की है जो इंडियन एक्सप्रेस में छपी थी और दूसरी ख़बर आज की है जो बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी है। यह बताने का एक ही मकसद है। अख़बार पढ़ने का तरीका बदलना होगा और अख़बार भी बदलना होगा। आप ख़ुद फ़ैसला करें।

इन दो ख़बरों को पढ़ने के बाद आपकी समझ में क्या बदलाव आता है। क्या आपका हिन्दी अख़बार इतनी मेहनत करता है, क्या आपका हिन्दी न्यूज़ चैनल इस तरह की ख़बरों से आपको सक्षम करता है। अगर जवाब ना में है तो आप हिन्दी अख़बार और हिन्दी चैनलों को पढ़ना-देखना बंद कर दें। वैसे ही आपको उन्हें देखने से जानकारी के नाम पर जानकारी का भ्रम मिलता है। हां ज़रूर अपवाद के तौर पर कभी-कभी कुछ अच्छी ख़बरें मिल जाती हैं। पर वो बिल्कुल कभी-कभी ही होती हैं।

इंडियन एक्सप्रेस ने सूचना के अधिकार का इस्तमाल कर ख़बर छापी कि इस साल 1 मार्च से 15 मार्च के बीच कितने का इलेक्टोरल बान्ड बिका। आप जानते हैं कि मोदी सरकार ने अपारदर्शिता का एक बेहतरीन कानून बनाया है। इससे आप सिर्फ स्टेट बैंक की शाखा से किसी पार्टी को चंदा देने के लिए इलेक्टोरल बान्ड ख़रीद सकते हैं। आपका नाम गुप्त रखा जाएगा। पैसा कहां से आया, किस कंपनी ने बान्ड ख़रीद कर किस पार्टी को चंदा दिया, यह गुप्त रखा जाएगा। इसके बाद भी मोदी सरकार के मंत्री इसे पारदर्शी नियम कहते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पिछले साल 1 मार्च को यह स्कीम लांच हुई थी। तब से लेकर इस 15 मार्च तक 2,772 करोड़ का बान्ड बिक चुका है। किस पार्टी को कितना गया है, इसका जवाब नहीं मिलेगा। आधी राशि का बान्ड इस साल मार्च के 15 दिनों में बिका है। स्टेट बैंक ने 1365 करोड़ का बान्ड बेचा है। ज़ाहिर है लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। मगर इस दौरान बिके 2742 बान्ड में से 1264 बान्ड एक-एक करोड़ के ही थे। सबसे अधिक बान्ड मुंबई स्थित स्टेट बैंक की मुख्य शाखा से बिका। 471 करोड़ का। दिल्ली और कोलकाता में उसका आधा भी नहीं बिका। दिल्ली में मात्र 179 करोड़ और कोलकाता में मात्र 176 करोड़ का चुनावी बान्ड बिका। यानी अभी भी दलों को पैसा मुंबई से ही आता है।

सुप्रीम कोर्ट ने सभी दलों को निर्देश दिया है कि वे अपने चंदे का हिसाब सील्ड लिफाफे में चुनाव आयोग को सौंप दें। इसमें यह भी बताएं कि बान्ड किसने खरीदा है। चंदा किसने दिया है। एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक राइट्स ने याचिका दायर की है कि इस स्कील में लोचा है। इसे बदला जाए या फिर बान्ड खरीदने वाले का नाम भी पता चले। ताकि चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता हो।

अब मैं आज के बिजनेस स्टैंडर्ड की पहली ख़बर की बात करूंगा। आर्चिज़ मोहन और निवेदिता मुखर्जी की रिपोर्ट है। 2014 से लेकर 2019 के बीच टाटा ग्रुप का चुनावी चंदा 20 गुना ज़्यादा हो गया है। टाटा ने राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए एक ट्रस्ट बनाया है। प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल फंड नाम है। इसकी सालाना रिपोर्ट से जानकारी लेकर यह रिपोर्ट बनी है। रिपोर्ट कहती है कि 2019 के चुनाव में टाटा ग्रुप ने 500-600 करोड़ का चदा दिया है। 2014 में टाटा ग्रुप ने सभी दलों को मात्र 25.11 करोड़ का ही चंदा दिया था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बिजनेस स्टैंडर्ड ने हिसाब लगाया है कि इस 500-600 करोड़ में से बीजेपी को कितना गया है। हालांकि ग्रुप की तरफ से अखबार को आधिकारिक जवाब नहीं दिया गया है लेकिन अख़बार ने अलग-अलग राजनीतिक दलों के हिसाब के आधार पर अनुमान लगाया है। बीजेपी को 300-350 करोड़ का चंदा गया है। कांग्रेस को 50 करोड़ का। बाकी राशि में तृणमूल, सीपीआई, सीपीएम, एनसीपी शामिल है।

टाटा के कई ग्रुप हैं। सब अपना कुछ हिस्सा प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल फंड में डालते हैं। 2014 में साफ्टवेयर कंपनी टीसीएस ने मात्र 1.48 करोड़ दिया था। इस बार 220 करोड़ दिया है। ज़ाहिर है यह भारत के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव लड़ा जा रहा है। देश के ग़रीब प्रधानमंत्री ने चुनावी ख़र्चे का इतिहास ही बदल दिया है। इसलिए कारपोरेट को भी ज्यादा चंदा देना होगा। 25 करोड़ से सीधा 500 करोड़।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कोरपोरेट नहीं बताना चाहते हैं कि वे किसे और कितना चंदा दे रहे हैं। उनकी सुविधा के लिए प्रधानमंत्री ने इलेक्टोरल बान्ड जारी करने का चतुर कानून बनाया। बड़ी आसानी से पब्लिक के बीच बेच दिया कि चुनावी प्रक्रिया को क्लीन किया जा रहा है। विपक्ष को भी लगा कि उसे भी हिस्सा मिलेगा, उसने भी संसद में हां में हां मिलाया। मगर यहां इस गुप्त नियम की आड़ में चंदे के नाम पर एक ख़तरनाक खेल खेला जा रहा है। आखिर सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि कम से कम चुनाव आयोग को बताएं कि किसने चंदा दिया है। चुनाव आयोग जानकर क्या करेगा। क्या यह जानकारी जनता के बीच नहीं जानी चाहिए?

अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि संसाधनों के लिहाज़ से सारा विपक्ष मिल भी जाए तो भी बीजेपी का कोई मुकाबला नहीं कर सकता है। यह चुनाव हर तरह से एकतरफा है। सब कुछ लेकर भी प्रधानमंत्री खुद को विक्टिम बताते हैं। सारे संसाधन इनके पीछे खड़े हैं और मंच पर रोते हैं कि सारा विपक्ष मेरे पीछे पड़ा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

क्या यह जानकारी आपको अपने हिन्दी अख़बार से मिलती? बिल्कुल नहीं। अगर आप सूचना हासिल करने का तरीका नहीं बदलेंगे तो मूर्ख बन जाएंगे। स्क्रोल वेबसाइट पर एक ख़बर है जिसे शोएब दानियाल ने की है। आचार संहिता के बाद भी प्रधानमंत्री कार्यालय को नीति आयोग भाषण लिखने में मदद कर रहा है। ज़िलाधिकारियों से रैली वाली जगह की तमाम जानकारियां मांगी जा रही हैं। वे ईमेल से भेज भी रहे हैं। यह सरासर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला है। शर्मनाक है कि ज़िलाधिकारी रैली के भाषण के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय को ज़िले का इतिहास, धार्मिक स्थलों की जानकारियां भेज रहे हैं। गुप्त रूप से ये अधिकारी उनके प्रचार के लिए काम कर रहे हैं। चुनाव आयोग में साहस नहीं है कि कार्रवाई कर ले।

हिन्दी अख़बार ऐसी ख़बर नहीं छापेंगे। चैनलों का भी वही हाल है। हल्के-फुल्के बयानों की निंदा कर पत्रकारिता का रौब झाड़ रहे हैं। मगर इस तरह सूचना खोज कर नहीं लाई जा रही है। इसमें एक भी चैनल अपवाद नहीं है। आप स्क्रोल की वेबसाइट पर जाकर शोएब दानियाल की रिपोर्ट को पढ़ें। उसके पीछे एक रिपोर्ट की भागदौड़ को देखें। फिर अपने हिन्दी अख़बार या न्यूज़ चैनल के बारे में सोचें। क्या उनमें ऐसी ख़बरें होती हैं? अंग्रेज़ी पत्रकारिता का गुणगान नहीं कर रहा हूं। उनके यहां भी यही संकट है फिर भी इस तरह की जोखिम भरी ख़बरें वहीं से आती हैं। क्यों?

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसलिए न्यूज़ चैनल ख़ासकर हिन्दी न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दें। अंग्रेजी चैनल भी महाघटिया हैं। आपका यह सत्याग्रह पत्रकारिता में सकारात्मक बदलाव ला सकता है। हिन्दी अख़बार भी बंद कर दें। नहीं कर सकते तो हर महीने दूसरा अखबार लिया कीजिए। एक अख़बार साल भर या ज़िंदगी भर न लें। आपसे बस इतना ही करने की उम्मीद है, बाकी इस पत्रकारिता में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की एफबी वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.
https://www.facebook.com/bhadasmedia/videos/406573323489335/
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement