
यशवंत सिंह-
कल 17 मई था. भड़ास को कल 15 साल पूरे हो गए. मेरे जैसा अस्थिर चित्त वाला अराजक आदमी कोई एक काम पंद्रह साल लगातार कर ले गया, ये बहुत बड़ी बात है. इसलिए मैं खुद की पीठ थपथपा लेता हूं. अपनी उमर भी पचास साल की हो गई है, इसलिए बहुत सारा बदलाव जीवन-सोच में आ चुका है.पहले जैसी आक्रामकता नहीं रही. जीवन शांत, स्थिर और घटना विहीन होता जा रहा है. दिल दिमाग लगाने को अब ऐसी कोई चीज नहीं संसार में जिसके लिए सोचा जाए या जिसे हासिल करने का प्रयास किया जाए. ऐसे में नींद खूब आती है.
जीवन से मदिरा गायब हो जाने से अचानक से बड़ा खलिहर हो गया हूं. करने के लिए कुछ है ही नहीं. अब घूमने का भी दिल नहीं करता. वही पहाड़, वही नदी, वही शांति. इस सबसे भी मन भर गया है. अब किसी रिटायर आदमी-सा फील करने लगा हूं. जिंदा हूं, इसलिए जीते चला जा रहा हूं, ऐसा लगता है अक्सर. इतना जल्दी जल्दी हर चीज से उबते जाना ठीक नहीं है. पर मेरे साथ ये सब हो रहा है.
इस सबके बीच भड़ास का संचालन एक स्थायी कर्म है जिसे करता रहता हूं. जंता ठेल ठेल कर खबरें मैसेज भेजती है और मुझे उकसाती रहती है कि छापो. तो मैं छापता रहता हूं. डिजिटल जर्नलिज्म और स्मार्ट फोन का कंबिनेशन गजब है. राह चलते खबरें पब्लिश हो जाती हैं अब. इसलिए मुझे निजी तौर पर बहुत लोड लेना नहीं पड़ता. देश भर में भड़ास का जो अघोषित नेटवर्क है, जो कट्टर साथी समर्थक हैं, वो खबरों सूचनाओं का प्रवाह बनाए रखते हैं. सोशल मीडिया के जरिए बहुत सारी सूचनाएं खबरें जानकारियां मिलती रहती हैं. दक्षिणपंथी सरकारों द्वारा मुख्य धारा की मीडिया को पूर्ण रूप से नियंत्रित कर दिए जाने से अब असली खबरें और असली विश्लेषण सोशल मीडिया में ही पलती छपती पनपती फैलती हैं. यहां से उठा कर भड़ास पर अपलोड करना एक पवित्र दायित्व है.
भड़ास के लिए कभी कभी सोचता हूं कि कोई साहसी धनपशु इसमें निवेश करे, सामने रहकर या पीछे रहकर, तो इसे एक बड़ा मीडिया हाउस बनाया जा सकता है. वो चाहे तो अपने किसी बंदे को भड़ास का ज्यादातर मालिकाना हिस्सा दे सकता है. लेकिन असल में भारत में ज्यादातर धनवान बड़े घटिया लोग होते हैं. उनमें साहस तो होता नहीं. जो लोग निवेश करना चाहते हैं वो तुरंत भड़ास को दलाली का अड्डा बनाने के लिए लालायित होते हैं. यानि पैसे लगाओ और तुरंत पैसे बनाओ. यही चल रहा है भारती मीडिया इंडस्ट्री में. इसी नाम पर ढेर सारे छोटे छोटे मीडिया वेंचर आते जा रहे हैं. तो अपन ने मान लिया है कि भड़ास जब तक खुद चला सकता हूं, चलाऊंगा.
भड़ास का सारा डाटा आनलाइन मौजूद रहे और इसका कोई खर्च भी न आए, इस दिशा में शोध जारी है. दरअसल प्रेम किसी से भी हो, उसे खत्म होना है. भड़ास से मेरा प्रेम भी खत्म होगा. इस नहीं उस बरस. पर होगा. मुझे इस भड़ास को दलाली का अड्डा बनाने से ज्यादा अच्छा इसे शांतिपूर्ण मौत दे देना लगेगा. आर्काइव कर दिया जाए, एक श्रद्धांजलि लिखकर कि ‘ये 17 मई 2008 के दिन शुरू हुआ और 17 मई…. के दिन बंद कर दिया गया. इस बीच का सारा डाटा वेबसाइट पर मौजूद है. भड़ासी विद्रोह जिंदाबाद!’
पंद्रह साल पहले भड़ास शुरू करते वक्त क्या सीन था, और आज क्या सीन है, दोनों में जमीन आसमान का फर्क है. तब ब्लागिंग के साथ डिजिटल जर्नलिज्म आकार ले रहा था. मीडिया हाउसों पर केंद्र व राज्यों की सरकारों की पाबंदी आज की तरह नहीं हुआ करती थी. सरकारों की आलोचना एक सहज कार्य था और इसी को पत्रकारिता भी माना जाता था. लेकिन आज सरकार की प्रशंसा को पत्रकारिता माना जाता है और सरकार की आलोचना को राष्ट्रद्रोह के समतुल्य बना दिया गया है. तब राजनीतिक दलों की आईटी सेनाएं नहीं हुआ करती थीं. तब न्यूज रूम से संपादकों का पूरी तरह खात्मा नहीं हुआ था.
आज सच कहा जाए तो भारत से पत्रकारिता खत्म है. दुनिया भर में ये एक ऐसा दौर है जब सरकारें पत्रकारिता को अपना पीआर बना चुकी हैं. भारत में तो हालत ज्यादा ही खराब है. यहां सूचना विभाग के एक्सटेंशन हो गए हैं मीडिया हाउसेज. ऐसे में असली पत्रकारिता के लिए स्कोप बहुत है लेकिन असली पत्रकारिता करने वालों के जीवन यापन की जिम्मेदारी किसी की नहीं है. घर फूंक तमाशा देखिए या फिर ब्लैकमेलिंग कीजिए. भड़ास के संचालन में खर्च हमेशा न्यूनतम रखा, इसलिए जो भी पैसे दान दक्षिणा विज्ञापन चंदा आदि से आ जाता, वह पर्याप्त से भी ज्यादा होता. और बात मानसिकता की भी है. मेरे पास कार नहीं है. एक छोटी कार कई साल पहले मुश्किल के दौर में बेच दिया तो फिर दुबारा खरीदने का दिल नहीं किया. कपड़े खरीदने का शौक नहीं है. महंगे मोबाइल कभी कभार गिफ्ट में मिल जाते है तो वहां भी लगने वाला पैसा बच जाता है. ऐसे में मेरा खर्चा तो न के बराबर है. जो खर्चे हैं वो परिवार और बच्चों के हैं. उन्हें भी बेहद कम संसाधन में जीना आ गया है. नोएडा में आम्रपाली का एक फ्लैट सत्रह अठारह लाख का बहुत पहले बुक कराया था. इसका मालिक दिवालिया होकर जेल गया. होम बॉयर सड़क पर आ गए.मैंने मान लिया कि मेरा पैसा गया, इसलिए भूल जाओ इसे. तो भूल गया था. पर अब उसे सरकारी संस्था ने पूरा कर चाभी सौंप दिया है. तो अगले कुछ महीने में वहां शिफ्ट हो जाउंगा. इस तरह आगे से मकान किराया का पैसा भी नहीं देना पड़ेगा.
भड़ास के पंद्रह साल होने पर कोई जलसा वलसा करना चाहिए था. रेडिसन होटल में बहुत साल पहले भड़ास की वर्षगांठ पर जोरदार प्रोग्राम किया था. पच्चीस तीस लाख रुपये खर्च हुए थे. सारा पैसा चंदा से आया. तो बड़ा प्रोग्राम करने का ख्वाब भी पूरा हो गया. इवेंट करने में पैसे भी बच जाते हैं. पर अब किसी किस्म का कोई भी काम करने का दिल नहीं करता. मन मिजाज पूरा का पूरा संन्यासियों वाला हो चुका है. अब खुद के लिए एक किराए पर मकान हरिद्वार में तलाशूंगा. वहां ही डेरा रहेगा. हर आदमी के रिटायरमेंट का एक ख्वाबों का शहर होता है जहां वह शेष जीवन व्यतीत करता है. मेरा वो शहर हरिद्वार है. वहां बड़ी संख्या में वो लोग हैं जिनका कोई नहीं है, जो बस खुद का तन ढो रहे हैं. कहीं मुफ्त में मिलता है खा लेते हैं. कहीं सो लेते हैं. गंगा में नहा कर गंगा का जल पी लेते हैं.
जीवन से संसार को रिड्यूस करते जाना चाहिए. धीरे धीरे परिवार को भी. जब कुछ न बचेगा तब इस दृश्य संसार के पार की झलक मिलेगी. न भी मिलेगी तो इतना क्या कम है कि आप अपनी पसंद का जीवन जी पा रहे हैं. किसी पाने की लालसा में आदमी को आध्यात्मिक नहीं होना चाहिए. ज्यों ही आप कुछ पाने की कामना करने लगते हैं वहीं आप फिर से एक नए किस्म के मायावी संसार को बसाने लगते हैं.
मुझे लगता है कि मुक्ति मोक्ष निर्वाण चेतना परमात्मा परमब्रह्म परमानंद ये सब भी लालच और आकर्षण हैं, गैर-सांसारिकों के लिए. इस लालच और आकर्षण के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहिए अन्यथा एक नए तरह की गृहस्थी, नए किस्म के मोह में फंसते जाते हैं. बेपरवाह होइए, बेपरवाह रहिए… हमको जबरन ये शरीर दिया गया है, हमने कतई नहीं मांग की थी…. इसलिए इसे तोहफा या भार दोनों न मानना ही ठीक है… इसे सहज रहने देता हूं… तत्क्षण में जीने देता हूं… तभी तो आजकल खूब सो रहा हूं… संसार की घड़ी को फोड़ चुका हूं… इससे टिक टिक की आवाज बंद हो गई है. दिन महीने साल अब मेरे मतलब के नहीं रह गए हैं… तो घड़ियों की भी जरूरत नहीं रह गई है. मुझे कई बार एक एक सेकेंड एक एक बरस की तरह लगते हैं और बीत गए बीसियों तीसियों बरस जैसे कल की बात हो सरीखा लगता है.
काफी लंबा लिख गया. हर साल 17 मई आता है और चुपचाप चला जाता है. कुछ लिखने बताने जताने का मन नहीं करता. आजकल जब हर कोई ब्रांडिंग कर रहा हो, हर कोई अपनी या अपनों की छवि गढ़ रहा हो या किसी की छवि खराब कर रहा हो, तो इन सबके बीच एक आदमी ये काम न ही करे तो कुछ भी तो नहीं बिगड़ेगा. जब दुनिया बहुत ज्यादा एक्सपोज है तब खुद का एकांत स्वर्ग सरीखा लगता है. एक मनुष्य का जीवन काल बहुत छोटा है. पता ही नहीं चलता कब पचास साठ सत्तर अस्सी बरस बीत गए. जैसे कल की ही बात हो सब. जब सबको जाना है संसार से, देह खत्म होना है तो बहुत ज्यादा हाय हाय की जरूरत क्या… मैं भड़ास के हैप्पी बड्डे पर खुद को बधाई देता हूं…
यशवंत
bhadas4media@gmail.com
Comments on “भड़ास के 15 साल पूरे हो गए!”
भड़ास4मीडिया को योम ए पैदाइश की सालगिरह बहुत बहुत मुबारक
यशवंत जी आप आज के दौर में सच्ची पत्रकारिता कर रहे हैं, सलाम आपको आपकी बहादुरी को आपके जज़्बे को-फ़ैसल खान
खूब लिखा, मन से लिखा।यही जीवन है।हाय हाय करते किसी भी हवा निकल जाएगी।जो मन कहता है वहीं जीवन श्रेष्ठ है।माया का त्याग सब कहते हैं,मगर ये संसारी जीव इसे त्याग नहीं पता। प्रयास करते रहे शायद सफलता मिल जाए।ढेड़ दशक की यात्रा निश्चित ही ऊतार चढ़ाव वाली रही,आपके जैसे जिद्दी ही उसे यहां तक ला पाए गए।आपके इस पुरुषार्थ को प्रणाम।
हार्दिक शुभकामना यशवंत भाई। बधाई। मैं बिह भड़ास का ऋणी हूं। कभी खूब लिखा यहां। खूब चर्चित हुआ। विपरीत विचार के लोगों ने जाना, सराहा। सारा आपका कर्ज है मुझ पर।
यात्रा जारी रहे। बधाई।
अच्छा लिखा, समय के अनुसार जैसे ठीक लगे बढ़ते रहो, चलते रहो।
आपके जज्बे, जुनून और बेखौफ प्रतिबद्धता को सलाम यशवंत जी
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