मीडिया को गोदी मीडिया सम्बोधित करके ‘गरियाने’ वाले कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनावी साल में पक्ष में माहौल बनाने के लिए राजस्थान के पत्रकारों को बांटी भूखण्डों की रेवड़ियां, जमकर मेहरबानियां लुटाई गई हैं, यहाँ तक कि केबल टीवी चैनल वालों, वेबसाइट वालों, हेल्थ पत्रिका वालों को भी सरकार ने पत्रकारिता के नाम पर भूखण्ड दे डाले हैं..
मीडिया को ‘गोदी-मीडिया’ कहते हुए जी भरके कई बार गरियाते रहे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ठीक चुनावी साल में राजस्थान के मीडियाकर्मियों को रिझाने के लिए भूखण्डों की रेवड़ियां बांटी हैं। ज्ञातव्य है कि हाल ही में, 16 मई को उदयपुर में 112 मीडियाकर्मियों को भूखण्ड बांटे गए हैं। गौरतलब है कि चुनावी साल में मीडिया को खुश रखने के इशारे का पूरा लाभ उदयपुर के मीडियाकर्मियों ने भी/ही उठाया है। बानगी देखिए कि किसी ने अपने बच्चों का, तो किसी ने पत्नी का नाम, किसी न किसी मीडिया में दिखाकर अनुभव प्रमाण-पत्रों के आधार पर ही भूखण्ड पा लिये हैं। एक तो कांग्रेस के नेता हैं जो खुद का कांग्रेस मीडिया सेंटर संचालित करते हैं, उनकी पत्नी के नाम को मैग्जीन में शामिल कर उसके नाम से भूखण्ड पा लिया है, जबकि उस मैग्जीन को बरसों पहले ही सरकार अच्छा-खासा भूखण्ड आवंटित कर चुकी है!
इस पूरे स्कैम को समझने के लिए थोड़ा अतीत में झांकना समीचीन होगा
दरअसल, यह भूखण्ड आवंटन मामला वर्ष 2012 से चल रहा है। उस वक्त अर्हता(कथित पात्रता) रखने वाले कतिपय पत्रकारों को जब भूखण्ड आवंटन की सूची में जगह नहीं मिली, तो उन्होंने न्यायालय की शरण ली। न्यायालय ने तब पूरी प्रक्रिया पर ही रोक लगा दी थी। पिछले कुछ सालों में पत्रकारों ने प्रयास किया और इस चुनावी साल में एड़ी-चोटी का जोर लगाया, तब जाकर सरकार ने इस प्रक्रिया को नई संशोधित अधिसूचना जारी कर इस मार्च में संशोधित आवेदन मांग लिए। नगर विकास प्रन्यास(UIT) उदयपुर के माध्यम से हुई इस प्रक्रिया में न्यायालय में गए लोगों को तो शामिल किया ही गया और बल्कि कुछ अन्य लोगों को भी शामिल कर लिया गया।
वर्ष 2012 की जारी हुई 102 पात्र की सूची अब बढ़कर 112 हो गई। लेकिन, इस बीच, जिन बातों को लेकर 10 साल पहले मीडियाकर्मियों में चर्चा थी कि मीडिया के नाम पर क्या कोई भी प्लॉट ले लेगा,अब वह हवा हो गई। ध्यान दें कि वर्ष 2012 की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज PF & ITR दोनों को अनिवार्य किया गया था। किन्तु हाल ही संशोधित की गई नियमावली में दोनों में से एक को रखा गया अर्थात भविष्यनिधि कटौती(PF) प्रमाण अथवा आयकर विवरणी(ITR)। इसमें भी यह बातें सामने आ रही हैं कि आईटीआर उनके भी मान्य कर लिए गए हैं जिनके आईटीआर में मीडिया से संदर्भित कुछ भी नहीं था।
यहां तक कि तब के केबल टीवी चैनल्स में काम करने वालों को भी पात्र मान लिया गया। एक मीडियाकर्मी का नाम तो ऐसा सामने आया है जिसने वर्ष 2008 में भूखण्ड योजना में लाभ उठा लिया था, और इस बार उसने अपनी पत्नी के नाम की एक पत्रिका रजिस्टर्ड करवाकर उसके नाम से भूखण्ड पा लिया है। ऐसे ही एक सवाल यह भी है कि वर्ष 2012 को आधार मानने के नियम में वेब-पोर्टल्स को नियमानुसार प्रेस-काउंसिल का पार्ट नहीं माना गया था,(जो आज भी प्रेस काउंसिल का पार्ट नहीं है), ऐसे में तब के dot com और dot in चलाने वालों को भी मीडियाकर्मी मानकर भूखण्ड बांट दिए गए हैं।
कई ऐसे पत्रकार हैं जिनको सेवानिवृत्ति तक की तपस्या के बाद भूखण्ड मिल सके हैं, जबकि कुछ युवावस्था में ही भूखण्ड प्राप्त कर गए हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो मार्केटिंग और सर्कुलेशन में कार्यरत रहे हैं, वे भी बिना किसी जांच सूची में शामिल कर लिए गए हैं। एक तो किसी हैल्थ पत्रिका के आधार पर पत्रकार भूखण्ड आवंटन में शामिल हो गया है और भूखण्ड ले उड़ा।
इस संदिग्ध प्रक्रिया के फलत: एक जुमला चल पड़ा है, ‘‘ पत्रकारिता में आओ-सरकार से प्लॉट पाओ’’
सामान्य शर्तों में पात्रता यह रहती है कि अन्य किसी रीति से किसी सरकारी संस्था से आवास आवंटन प्राप्त नहीं किया हो और न ही शहर में उसके या उसके परिवार के नाम कोई भूखण्ड/भवन ही हो परन्तु; जिस तौर तरीके से अभी रेवड़ियां बंटी हैं, उससे लग रहा है कि आने वाले सालों में इस लुभावने क्षेत्र में नए चेहरे व नवीन प्रतिभाएं आने में पूरी रुचि दिखाने वाले हैं, साथ ही वे मौजूदा वास्तविक मीडियाकर्मी जिन्होंने अब तक पत्नी-बच्चों के नाम पर कुछ भी नहीं सोचा था, वे भी कतार में खड़े नजर आएंगे। इस धांधली ने उन वास्तविक दावेदारों के साथ छल किया है जिनके सर ढकने को अदनी सी छत इस शहर में मुमकिन नहीं; कुछ ऐसे नाम भी सामने आए हैं जो मौजूदा नियमावली में पात्रता रखने के बावजूद सूची में स्थान नहीं पा सके हैं।
शायद इसके लिए वे उदयपुर के स्थानीय मीडिया संगठनों तक पहुंच नहीं बना सके होंगे जो इस भूखण्ड आवंटन का श्रेय ले रहे हैं..
अंतत: सार महज इतना है कि इस भूखण्ड मामले में राजस्थान में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कृपा बरसाकर मीडिया को अपना बनाने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं कि रेवड़ियों के मद में मीडिया कर्त्तव्य विमुख रहे ताकि टूल के तौर पर भरपुर इस्तेमाल कर बदले में प्रशंशा बटोरने, छवि बनाने और अवसर भुनाने में मौका साध पाए। महंगाई राहत कैम्प के साथ राजस्थान में भूखण्डों की इस तरह की रेवड़ियों पर शायद ही कोई पत्रकार स्पष्टीकरण दे, क्योंकि पत्रकार के लिए तो हर वक्त आगे कुआ – पीछे खाई जैसी स्थिति रहती है। दो राय नहीं कि इस लचीली प्रक्रिया में सरकार का लाभ जरूर दिखाई दे रहा है…
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