फ़िरोज़ खान-
वह एक परंपरागत ब्राह्मण परिवार में रहता था, लेकिन जनेऊ के साथ उसने अपनी जाति उतार दी थी। मां ने जनेऊ उतारने की बात पूछी तो वह सिर्फ मुस्करा दिया था। वह किचन में मां की मदद करता था, जबकि रिलीजियस प्रैक्टिस करने वाला उसका भाई ‘मर्दों वाले काम’ करता था।
वह कविताएं लिखता था और पाब्लो नेरुदा बनना चाहता था। वह अपने साहित्य शिक्षक के लिए आकर्षण महसूस करता था, लेकिन प्रेम अपने घर पेइंग गेस्ट रह रहे एक लड़के से करता था।
बात उस जमाने की है, जब समलैंगिक रिश्ते हिंदुस्तान में अपराध हुआ करते थे। प्रेम में सही-गलत पता नहीं किस तरह तय किया जाता होगा, लेकिन जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। गैरजिम्मेदार लोग प्रेम में सिर्फ दूसरों को हर्ट करते हैं। एक कहानी अधूरी रह जाती है। एक ज़िन्दगी से रंग उड़ जाते हैं। सबसे खूबसूरत बेंच उजाड़ पत्थर लगती है। तालाब में कमल के चौड़े पत्तों की नसों में पानी नहीं, तेजाब बह रहा होता है।
नेटफ्लिक्स ने यह फ़िल्म बनाई है। नाम है ‘कोबाल्ट ब्लू’… सचिन कुण्डलकर ने अपने इसी नाम के उपन्यास पर यह फ़िल्म बनाई है। फिलवक्त इतना ही कहूंगा कि हिंदी में ‘अलीगढ़’ के बाद इस मसले पर इतनी खूबसूरत फ़िल्म बनी है। फ़िल्म के बहुत सारे शेड्स हैं। एक दुख है जो बगैर कुछ कहे गंगा की तरह सदियों से मुसलसल बह रहा है।