अभिषेक गौतम–
यही कोई मार्च का महीना था। गुलाबी ठंड जाने और चटक धूप के आने वाले दिनों की बात है। चीन से शुरू हुई कोरोना की चेन ने दुनिया का चैन छीनना शुरू कर दिया। भारत भी अब कोरोना की जद में आ चुका था। लोगों के डर और मायूसी की कहानी उनके चेहरे बता रहे थे। खलिश,वेदना,पीर और दर्द का ऐसा सामूहिक गुबार दुनिया ने शायद ही कभी पहले देखा होगा। चारों तरफ बस मौत के आकंड़े और कोरोना के प्रसार के चर्चे थे। फिजा में मौत घूम रही थी और लोग घर की चारदिवारी के अंदर खुद को डर के मारे कैद किए हुए थे। मेरे आंखों के सामने लोगों की उम्मीदें खाक हो रही थी, और मैं किसी सर्कश के दर्शक की तरह इसे बस देख रहा था। भूख सड़कों पर विलाप कर रही थी और बेबसी अपना प्रसार करने में मशगूल थी।
रात के तीसरे पहर भी गुलज़ार रहने वाला एनसीआर अब ऐसा खामोश था कि आधे किलोमीटर दूर किसी बाइक और कार की आवाज भी साफ सुनाई पड़ रही है। कोरोना ने मेरे जैसे मेडिकल रिपोर्टर के लिए कुछ कर गुजरने के दरवाजे खोले। सभी समाचार पत्रों में कोरोना की बुरी खबरें अच्छी तरह से लिखने का एक दौर शुरू हो गया। यही वह समय था जब जिंदगी की रामायण में असल महाभारत शुरू हो गई।
मेडिकल रिपोर्टर सीता सरीखा था। कोरोना रूपी रावण से लोगों को बचाया जा सके इसके लिए मेरे जैसे मेडिकल रिपोर्टर को घर की दहलीज यानि लक्ष्मण रेखा को पार करना ही एक रास्ता बचा था। सोते समय अब प्रेमिका का मासूम चेहरा नहीं मां की सलामती,बहन की मुस्कान और भाइयों के बुझे हुए चेहरे सपनों में आने लगे। यहीं से खाकी का रंग सफेद हुआ और अब सफेद कोट पहन हजारों भगवान सड़कों पर आ गए। मानवीय संवेदनाओं का दौर चला और लोगों के जीवन को बचाने का सिलसिला शुरू हुआ।
मेडिकल रिपोर्टर होने के नाते सूनी सड़कों से लेकर अस्पतालों के चक्कर लगाने को ही मैने अपना धर्म समझ लिया। कोरोना के मरीजों से भरे हुए शहर के अस्पताल,एम्बुलेंस से जाती हुई लाशें और लोगों की चीख के बीच अब मुझे सिर्फ खबर दिखाई पड़ रही थी। कोरोना मुझसे लिपटते के लिए तैयार था और मेरे सामने उससे बचने की चुनौती। ये शायद मेरी मां की दुआओं का असर था कि हर बार मैं कोरोना के चंगुल से खुद को छुड़ा पा रहा था। बदकिस्मती से शुरुआत में यूपी में कोरोना का सबसे तेज प्रसार वहीं हुआ जहां मेरी पोस्टिंग थी,यानि गौतमबुद्ध नगर में। सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा कर लोगों को घरों में कैद रहने का फरमान सुना दिया। मेडिकल रिपोर्टर चाह कर भी घर नहीं बैठ सकता था। मैंने भी सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ा और कर्मभूमि के रण में उतर पड़ा।
डॉक्टरों, मरीजों और दवा के बीच ही अब मेरी जिंदगी चल रही थी। मेरे जैसे दर्जनों रिपोर्टर हर घंटे मर कर भी जी रहे थे। सुबह से शाम तीन बजे तक अस्पतालों के चक्कर लगाने के बाद शाम तीन बजे से खबर लिखने का क्रम शुरू हो जाता। कोरोना का प्रसार मेरी जिम्मेदारियां भी बढ़ा रहा था। जब भी शरीर गर्म होता या गले में खराश होती यही लगता अब अंत निकट ही है। समाचार पत्रों के पन्ने कम होने लगे लेकिन कोरोना की खबरें न्यूजपेपर में बढ़ने लगीं। कोरोना को किसी भी मेडिकल रिपोर्टर के लिए स्वर्णिम काल बोला जा सकता है,लेकिन ऐसा दौर न ही आए तो ही अच्छा है।
खैर सांध्य टाइम्स से लेकर नवभारतटाइम्स के लिए कोरोना की खबर लिखता रहा। कोरोना को लेकर अब इतनी खबरें आने लगीं कि उसे समेटने के लिए पूरा दिन भी कम था। इस दौरान कोरोना से संबंधित बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी खबर लिखने लगा। कोरोना का आंकड़ा लाखों में कब पहुंच गया पता ही नहीं चला। लोगों तक कोरोना की सही जानकारी पहुंचती रहे अब जीवन का यही उद्देश्य था। मेरे संपादक आदरणीय सुधीर मिश्र सर सहित पूरी टीम मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए तत्पर रही। विषम परिस्थितियों में भी मेरा हौसला टूटने नहीं दिया।
मुझे हमेशा याद रहेगा कि जिंदगी के टेस्ट में कोरोना ने इस साल कैसे ट्वेन्टी-ट्वेन्टी खेला था। हालांकि चंद महीने बाद कोरोना के केस में कमी आई और सरकार ने धीरे-धीरे पाबंदियां हटानी शुरू की। अब हालत पहले से काफी बेहतर हैं। लेकिन इस दौरान कई करीबियों को खोने की पीड़ा जिंदगी के हर दौर में परेशान करती रहेगी। एक मेडिकल रिपोर्टर और कोरोना की मुड़भेड़ को कभी एक किताब में जरूर समेटूंगा। मार्च और जुलाई के बीच में इतनी घटनाएं हुईं जिसपर एक उपन्यास लिखा जा सकता है। ये साल भले ही काल रहा,लेकिन अगला साल जरूर बेमिसाल होगा। ऐसी उम्मीद के सहारे ही नए साल का अब खुले मन से इंतजार कर रहा हूँ। उम्मीदों का सूरज फिर से निकलेगा और दुनिया मुस्कुराएगी।
अभिषेक गौतम
नवभारत टाइम्स
नोएडा
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