सुमंत विद्वाँस-
सबको नमस्कार! मैं अभी दिल्ली हवाई अड्डे पर हूं। यहां बहुत सारे अंग्रेजी अखबार तो बड़ी सहजता से दिख गए, पर हिन्दी अखबार बहुत खोजने पर मिला, वह भी केवल नवभारत टाइम्स।

हवाई अड्डे पर लिखी सूचनाओं में तो अंग्रेजी के नीचे छोटे अक्षरों में हिन्दी को जगह देकर खानापूर्ति कर दी गई है लेकिन पूरे हवाई अड्डे पर किसी भी स्टोर, किसी भी दुकान, किसी भी रेस्त्रां के मेन्यू पर हिन्दी मुझे कहीं भी नहीं दिखी।
कृपया ध्यान रखें कि मैं अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की नहीं, बल्कि घरेलू हवाई अड्डे की हालत बता रहा हूं, जहां मुझे 99% से अधिक यात्री भारतीय दिखाई दे रहे हैं और उनमें भी शायद 70-80% हिन्दी भाषी या अंग्रेजी ठीक से न जानने वाले होंगे।
मैं जब भी भाषाओं की बात करता हूं, तो बहुत सारे लोग मुझे बताते हैं कि जीवन में आगे बढ़ने, अच्छा करियर बनाने और सफलता पाने के लिए अंग्रेजी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मैं उस बात से सहमत हूं लेकिन कोई मुझे आज तक यह नहीं बता पाया कि अपने दैनिक जीवन के हर छोटे बड़े काम में भी अंग्रेजी का बोझ लादकर घूमना क्यों जरूरी है?
एक ओर भारत की राजधानी के घरेलू हवाई अड्डे पर ही हिन्दी का यह हाल है और दूसरी ओर कुछ ही माह पहले यह ढिंढोरा पीटा जा रहा था कि अब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में जगह मिल गई है। मुझे समझ नहीं आता कि मानसिक गुलामी से पीड़ित जो समाज अपने घर और अपने देश में ही अपनी भाषा को खुद मिटा रहा है, उसकी भाषा को अपनी सूची में जोड़ने की गलती संयुक्त राष्ट्र संघ ने क्यों की।
जो लोग स्वयं अपनी भाषा को दुत्कारकर अंग्रेजी की गुलामी कर रहे हैं, उनकी भाषा को लुप्तप्राय भाषाओं की श्रेणी में डालना चाहिए था, न कि आधिकारिक भाषाओं की सूची में। सादर!
कल ही मैंने भाषा के बारे में एक पोस्ट लिखी थी और आज मेरी फेसबुक मेमोरी में मुझे अपनी ही यह पुरानी पोस्ट दिख गई, तो आपके लिए फिर से शेयर कर रहा हूं:
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एयर इंडिया की फ़्लाइट में पुणे से दिल्ली जा रहा हूँ। बिज़नेस क्लास में मेरे लगभग सभी सहयात्री विदेशी हैं। फ़्लाइट में बिज़नेस क्लास के यात्रियों को पढ़ने के लिए पत्र-पत्रिकाएँ दी जाती हैं।
हर बार की तरह इस बार भी एयर इंडिया का एक कर्मचारी एक ट्रे में सजाकर कुछ पत्रिकाएँ लाया। हर बार की तरह मैंने उससे कोई हिन्दी मैगज़ीन माँगी। लेकिन उसके ट्रे में केवल अंग्रेज़ी पत्रिकाएँ थीं। मैंने जानबूझकर अपने लहजे में थोड़ी नाराज़गी के साथ आश्चर्य जताते हुए उससे पूछा कि “एक भी हिन्दी पत्रिका नहीं है?”
वह सकपका गया।
हिन्दी भाषी यात्री से शायद उसे यह उम्मीद नहीं रही होगी या शायद उसे यही उम्मीद नहीं रही होगी कि डोमेस्टिक फ़्लाइट के बिजनेस क्लास में भी कोई हिन्दी वाला मिलेगा। जिस देश में अंग्रेज़ी नहीं जानने वाले लोग भी अंग्रेजियत का दिखावा करते रहते हैं, वहाँ विशुद्ध अंग्रेज़ी वाली श्रेणी में हिन्दी वाले कम ही होते होंगे।
उसने खेद जताया कि हिन्दी पत्रिका तो कोई नहीं है।
तब मैंने दूसरा सवाल दागा कि “क्या फ़ीडबैक फ़ॉर्म है?”
वह मना नहीं कर सकता था। उसने कहा, “हां सर है”
मैंने उससे कहा, “ठीक है, ले आइये।”
वह हां बोलकर चला गया और कुछ समय बाद दो हिन्दी पत्रिकाएँ लेकर लौटा।
अब उसने इस बात पर खेद जताया कि हिन्दी मैगज़ीनें दूसरी तरफ रखी हुई थीं, लेकिन उन पर उसका ध्यान नहीं गया था।
मैंने “ओके, कोई बात नहीं!” कहकर एक पत्रिका उठा ली।
मुझे यह बात वाकई बहुत अजीब लगती है कि अपने देश में अपने ही देश की एयर लाइन में मुझे अपने ही देश की भाषा के अखबार या पत्रिकाएँ अलग से मांगने पड़ते है। उससे ज्यादा अजीब ये लगता है कि किसी को यह अहसास नहीं है कि उनका यह व्यवहार उनकी गुलामी का लक्षण है। मैं इतने सारे देशों में अक्सर जाता रहता हूँ, लेकिन मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि किसी और देश में मुझे वहाँ की ही भाषा का अखबार या पत्रिका नहीं मिलेगी। ये तो हो सकता है कि कोरिया, थाईलैंड, या हांगकांग में मुझे अंग्रेज़ी अखबार न मिले, लेकिन ये कभी नहीं हो सकता कि मुझे कोरियाई, थाई या चीनी अखबार ही न मिले।
ऐसी गुलामी सिर्फ भारत में और भारत से टूटकर बने देशों में ही सबसे आम है। अचरज की बात है कि ऐसी गुलाम मानसिकता वाले हम लोग खुद को विश्व गुरु बनाने का सपना देखते रहते हैं। पता नहीं हमारी नींद कब खुलेगी!