Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

दिल्ली में प्रदूषण और पर्यावरण चिन्ता से जुड़े तथ्य तथा कॉप-28 के आयोजन का दावा और उससे मिला प्रचार

संजय कुमार सिंह

आज के अखबारों में सुरंग धंसने से संबंधित कोई खबर पहले पन्ने पर नहीं है। द टेलीग्राफ ने न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार सेवा की खबर को लीड बनाया है। यह आज इस विषय पर मेरे सात अखबारों में पहले पन्ने की महत्वपूर्ण और अकेली खबर है। नई दिल्ली डेटलाइन से मुजीब मशाल और सुहासिनी राज की इस खबर का हिन्दी अनुवाद पेश करने से पहले बता दूं कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-28) का आयोजन भारत में करने का दावा करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज देश के अखबारों के पहले पन्ने पर छाये हुए हैं। इससे संबंधित अमर उजाला की लीड का शीर्षक है, “मोदी ने की ग्रीन क्रेडिट की शुरुआत कहा, कार्बन क्रेडिट का दायरा सीमित”। अमीर देशों को दिखाया आइना, 2050 से पहले ही कम करना होगा कार्बन उत्सर्जन। बोले बीती सदी की गलतियों में सुधार के लिए ज्यादा समय नहीं है।

अखबारों में जो नहीं है या प्रमुखता से नहीं छपा है वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावे पर कांग्रेस नेता और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की प्रतिक्रिया है। द टेलीग्राफ का आज का कोट जयराम रमेश का ही है और हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, प्रधानमंत्री जिस सिद्धांत पर चलते हैं वह है, अधिकतम वैश्विक चर्चा, न्यूनतम स्थानीय कार्य। दुबई में उन्होंने दावा किया है कि भारत ने पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था में जोरदार संतुलन स्थापित किया है। यह उनके ट्रेडमार्क झूठ में सबसे नया है। जयराम रमेश ने जलवायु पर प्रधानमंत्री के दावों की पोल कर रख दी है। लेकिन आज के अखबारों में प्रधानमंत्री के दावे तो हैं जयराम रमेश ने जो सच बताया है वह नहीं के बराबर है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जयराम रमेश ने अन्य कई बातों के अलावा यह भी कहा है कि यह सुरंग धंसना और उसमें मजदूरों का फंसना एक बड़ी बीमारी का लक्षण है। उन्होंने कहा कि 2020 के बाद से पर्यावणीय प्रभाव के आकलन से संबंधित नियमों को लगातार कमजोर किया गया है। 2023 में 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करके भारत के 25 प्रतिशत वन के लिए सुरक्षा को खत्म कर दिया गया है। इससे मोदी सरकार के लिए वनों के दुरुपयोग और कुछ चुने हुए कॉरपोरेट को इन्हें सौंपने का मार्ग प्रशस्त होगा। उन्होंने कहा कि 2022 की एक अधिसूचना ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम को कमजोर किया है जिसका मकसद आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था। उन्होंने कहा, अब जंगल में रहने वालों की सलाह और सहमति के बिना जंगल साफ किये जा सकते हैं तथा वन भूमि के उपयोग के लिए (स्थानीय समुदाय के प्रतिनिधियों की) सहमति की आवश्यकता नहीं है।

ऐसे और भी तमाम उदाहरण देते हुए उन्होंने पूछा है, भारत में उनके घातक ट्रैक रिकार्ड के आलोक में पर्यावरण पर प्रधानमंत्री वैश्विक स्तर पर जो बोलते हैं उसे कोई गंभीरता से कैसे लेगा? आप जानते हैं कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का क्या हाल है और उसपर सरकार के साथ मीडिया का रुख भी किसी से छिपा नहीं है। लेकिन उत्तराखंड में बन रहा संड़क सुरंग तथा उसका धंसना और उसमें 41 मजदूरों का 17 दिनों तक फंसे रहना – ना तो पर्यावरण पर फिर से विचार करने कारण बना ना ही सुरक्षा उपायों पर कोई चर्चा हुई। हुई हो, तो अखबारों में खबर को प्रमुखता नहीं मिली इसे प्रचारित करने की जरूरत नहीं समझी गई। यही हाल ईडी दफ्तर पर छापे  खबर का है जबकि ईडी के अफसर को 20 लाख की रिश्वत लेते रंगे हाथ गिरफ्तार या गया है। कुल मिलाकर देश की मीडिया का बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री और भाजपा की सरकार का प्रचार कर रहा है और उसमें जनहित की भी उपेक्षा हो रही है। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री देश और यहां की जनता की कीमत पर अपनी और पार्टी की छवि बना रहे हैं। तुर्रा यह कि देश विरोधी यह सब काम देश भक्ति के नाम पर हो रहा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ऐसे में, द टेलीग्राफ ने आज जो खबर छापी है वह विदेशी समाचार सेवा की है और इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, “प्रधानमंत्री की शुरू गई परियोजना के खिलाफ लंबी लड़ाई”। मुख्य शीर्षक है, “मोदी सरकार ने इन चेतावनियों को कुचल दिया”। इस संबंध में मैंने कल लिखा था, “सुरंग खोदने का काम फिर शुरू होगा लेकिन सुरक्षा उपायों की अभी तक कोई चर्चा नहीं। निर्माणाधीन सुरंग धंसने से उसमें फंसे 41 मजदूर 17 दिन बाद भले सुरक्षित निकाल लिये गये हों पर सुंरग निर्माण के दौरान किये जाने वाले आवश्यक सुरक्षा उपायों का पता नहीं चला। खबरों से यह नहीं पता चला है कि सुरक्षा उपाय नहीं होना कितनी बड़ी चूक है और है भी कि नहीं। है तो किसी के खिलाफ कार्रवाई की गई कि नहीं और नहीं है तो आगे के लिए उसकी जरूरत समझी गई या नहीं। जो भी हो, इस खबर को प्रमुखता मिलना अब कम हो गया है और आज जो खबरें पहले पन्ने पर हैं उनसे नहीं लगता है कि आगे के लिए कोई सीख ली जा रही है या ली गई है और मजबूरी में खतरनाक काम करने वालों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था सरकार करेगी।”

ऐसी हालत में द टेलीग्राफ की आज की लीड इस विषय पर महत्वपूर्ण और अकेली खबर है। इसलिए इस खबर का हिन्दी अनुवाद पेश है। इससे खबर लिखने वाले समझ सकेंगे कि राजा का बाजा बजाना और खबर लिखना अलग काम है। हिन्दी के पाठकों के लिए मैंने यह अनुवाद गूगल से करके उसका संपादन किया है। आप उसे भी देख सकते हैं। “निर्माणाधीन सड़क सुरंग में फंसे मजदूर 17 दिनों के बाद जब बाहर आए तो बचाव प्रयासों के सुखद अंत से देश भर में जश्न की शुरुआत हो गई। कुछ देर के लिए यह सवाल गायब हो गया था कि 41 लोगों को सुरंग में फंसने के जोखिम में क्यों डाला गया। इसकी बजाय, टेलीविज़न वालों ने तो उत्साह और परिमाण में एक-दूसरे को पीछे छोड़ दिया। बचाव में लगे अधिकारी मंगलवार को मजदूरों के लिए माला लेकर खड़े थे, उनकी प्रशंसा की। कैमरे की नजर भाजपा के स्थानीय प्रतिनिधियों पर रही। इनलोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को श्रेय दिया। उन्होंने हिन्दी में एक स्वर में जोर- से कहा, “मोदी है तो मुमकिन है!”

Advertisement. Scroll to continue reading.

वैसे तो ऐक्टिविस्ट और पर्यावरणविदों ने भी राहत के साथ यह सब देखा लेकिन उनके लिए इस दृश्य का एक अलग, बहुत भिन्न अर्थ था। बेकार के अदालती मामलों और ट्रिब्यूनल की नाकाम सुनवाइयों में वे लंबे समय से चेतावनी दे रहे थे कि 1.5 अरब डॉलर की सड़क-चौड़ीकरण परियोजना पहले से ही नाजुक हिमालयी परिदृश्य को खतरनाक रूप से अस्थिर कर रही है। उनके लिए, यह तथ्य कि काम फिर भी आगे बढ़ा था, अंततः एक विनाशकारी भूस्खलन हुआ, इससे यह याद आया कि कैसे मोदी ने अपनी जिद्द पूरी करने के लिए हर बाधा को हटा दिया है। “फोकस बचाव पर है, न कि उसके कारणों पर” – उत्तराखंड की एक पर्यावरण संरक्षणविद मल्लिका भनोट ने कहा। उन्होंने आगे कहा, “वे इस पर ध्यान नहीं दिलाना चाहते।” निर्माण परियोजना, मोटे तौर पर चार धाम तीर्थयात्रा मार्ग के चार प्रमुख पड़ावों को जोड़ने के लिए 800 किलो मीटर से अधिक सड़कों को चौड़ा कर रही है। यह नरेन्द्र मोदी की छवि के दो स्तंभों को साथ लाती है: एक महत्वाकांक्षी बुनियादी ढांचा विकासकर्ता और दूसरा हिंदू हितों के संरक्षक के रूप में।

प्रधान मंत्री ने 2016 में इस राजमार्ग परियोजना का उद्घाटन स्वयं किया था। हजारों लोगों के सामने, उन्होंने कहा था कि बेहतर राजमार्ग तीर्थ स्थलों के बीच यात्रा को इतना आसान बना देंगे कि “लोग अगले 100 वर्ष तक इस परियोजना के जरिये किए गए काम को याद रखेंगे।” प्रधान मंत्री ने इसे “उन सभी लोगों को समर्पित किया जो 2013 की केदारनाथ त्रासदी में मारे गए थे” जब अचानक आई बाढ़ ने राज्य में 6,000 से अधिक लोगों की जान ले ली थी। इस तरह, जब पृथ्वी गर्म हो रही है तब अनजाने में उन्होंने एक ग्रह के रूप में हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते जोखिम की ओर इशारा किया था। भारत के बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाने का श्रेय मोदी को दिया जाता है। लेकिन राजमार्ग परियोजना के मामले में, ऐक्टिविस्ट और वैज्ञानिकों का कहना है कि सरकार ने उनकी चिंताओं को बस दबा दिया है। बुधवार को टिप्पणी के लिए सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय से संपर्क करने पर कहा गया कि प्रश्न लिखित रूप में भेजे जाएं, लेकिन भेजने के बाद तुरंत जवाब नहीं दिया। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या अतिरिक्त जांच, या कम महत्वाकांक्षी कार्यक्रम, उस भूस्खलन को रोकने में सक्षम हो सकता था जिसमें श्रमिक फंस गए थे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

2018 में, एक नागरिक समूह ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में अपील की और काम रोकने की मांग की क्योंकि पर्यावरणीय प्रभाव का कोई आकलन नहीं किया गया था। समूह ने तर्क दिया कि आपदा के जोखिम को बढ़ाए बिना सड़क को चौड़ा करना असंभव होगा, और इस परियोजना के लिए हजारों पेड़ों को हटाने की आवश्यकता होगी। ट्रिब्यूनल ने फैसला सुनाया कि उसके पास कार्रवाई करने की बहुत कम शक्ति है। सरकार ने अनिवार्य पर्यावरणीय प्रभाव आकलन के लिए 100 किमी की आवश्यकता के तहत परियोजना को 53 टुकड़ों में बांट दिया था। समूह ने जब अपनी शिकायत सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचाई, तो न्यायाधीशों ने 2019 में सरकार को परियोजना और हिमालयी परिदृश्य पर इसके प्रभाव का आकलन करने और आगे बढ़ने के बारे में सलाह देने के लिए एक विशेषज्ञ समिति की बैठक बुलाने का आदेश दिया जो परियोजना और हिमालयी क्षेत्र में इसके प्रभाव का आकलन करे तथा आगे बढ़ने का तरीका सुझाये। पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली समिति ने पाया कि परियोजना ने “अवैज्ञानिक और अनियोजित निष्पादन” के कारण पहले ही हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाया है।

समिति के सदस्यों ने मौका मुआयना कर पता लगाया कि कम हानिकारक तरीकों की तुलना में पहाड़ काटने को प्राथमिकता दी गई थी। पैनल ने पाया कि आधे से अधिक नए ढलान आपदा की आशंका वाले थे और दर्जनों ढलान विफलताएँ पहले ही घट चुकी थीं। परियोजना में अपशिष्ट निपटान के लिए भी ठीक से योजना नहीं बनाई गई थी, जिससे प्राकृतिक झरनों के प्रवाह को खतरा था। समिति के सदस्यों में से कई सरकारी अधिकारी थे। इन लोगों ने वैसे भी सरकार की सड़क-चौड़ीकरण योजना को मंजूरी दे दी। चोपड़ा सहित कुछ लोग जो संख्या में कम थे ने कहा कि सरकार ने पारिस्थितिकीय क्षति को कम करने के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों की चौड़ाई सीमित करने वाले अपने स्वयं के दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया है। अदालत ने कम लोगों की राय का समर्थन किया और सितंबर 2020 में फैसला सुनाया कि सड़क कम चौड़ाई की बनाई जाये। लेकिन महीनों तक काम यथावत चलता रहा। चोपड़ा ने कोर्ट को एक के बाद एक पत्र लिखकर शिकायत की कि सरकार उसके आदेशों का पालन नहीं कर रही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसके बाद सरकार ने सड़क निर्माण के लिए दिशानिर्देशों में संशोधन किया, एक अपवाद के रूप में काम करते हुए: रणनीतिक हित वाले क्षेत्रों को छूट दी गई। फिर यह राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित एक नए तर्क के साथ अदालत में वापस गया। सरकार ने कहा कि जिन सड़कों की बात हो रही है, वे चीन की सीमा तक सैन्य सामान पहुंचाने के लिए महत्वपूर्ण हैं, हालांकि सेना प्रमुख ने कहा था कि कम चौड़ाई सेना के लिए कोई मुद्दा नहीं है। और चौड़ी सड़कों से रक्षा-तत्परता को जो लाभ मिलता है वह भूस्खलन का खतरा बढ़ने से बेमतलब हो सकता है। दिसंबर 2021 में, अदालत ने अपना आदेश बदल दिया। इससे सरकार को चौड़ी सड़क बनाना जारी रखने की अनुमति मिल गई। बाद में चोपड़ा ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा, “उस एक साल की अवधि में, सरकार सुनने को तैयार ही नहीं थी। वे काम पूरा करने की जल्दी में थे, वे बहुत सख्त समय सीमा में थे, शॉर्टकट अपना रहे थे। इसलिए आपदाएँ अपरिहार्य थीं।” 2022 में, संसद में एक विपक्षी नेता ने सड़क मंत्री नितिन गडकरी से पूछा कि क्या परियोजना, जिसे एक विशाल पहल के रूप में पेश किया गया है, को कई खंडों में विभाजित किया गया है, और क्या इससे पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। गडकरी ने पुष्टि की कि परियोजना को 53 खंडों में विभाजित किया गया है। अगले भाग के लिए उनका उत्तर अधिक महत्वपूर्ण था, “(सवाल) ही नहीं उठता”। 

ईडी दफ्तर पर छापे की खबर

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर एक खबर है, रिश्वतखोरी के आरोप में तमिलनाडु की भ्रष्टाचार विरोधी इकाई ने ईडी दफ्तर पर छापा मारा। खबर के अनुसार राज्य की भ्रष्टाचार विरोधी इकाई, सतर्कता और भ्रष्टाचार विरोधी निदेशालय (डीवीएसी) ने अंकित तिवारी नाम के एक अफसर को 20 लाख रुपये की रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है कि इसपर उसने ईडी की प्रतिक्रिया लेने के लिए संपर्क किया लेकिन तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। कहने की जरूरत नहीं है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की शाखा के रूप में काम करने वाला सरकारी विभाग जब भाजपा विरोधी राजनेताओं पर आरोप लगाता है तो उसे अखबारों में खूब प्रमुखता मिलती है लेकिन उसी के अधिकारी रिश्वत लेते धरे गये तो खबर को महत्व नहीं मिला। आज यह खबर द हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स और अमर उजाला में पहले पन्ने पर दिखी। अमर उजाला में है, बीस लाख की घूस लेते ईडी अफसर गिरफ्तार। हिन्दू में यह खबर है तो टॉप पर लेकिन शीर्षक है, तमिलनाडु खुफिया पुलिस ने ई़डी कार्यालय की तलाशी ली।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement