
सुशोभित-
ध्यान-साधना पर निज-अनुभव से कुछ बातें साझा करता हूँ, जो पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।
पहली बात तो यह कि इस धारणा को ख़याल से निकाल देना चाहिए कि ध्यान चित्त की एकाग्रता और मन की शांति के लिए है। ध्यान से चित्त एकाग्र हो सकता है, वह दूसरी बात है, और मन शांत हो सकता है, वह भी दूसरी बात है, पर वह उसका प्रयोजन नहीं है। उसका वैसा कोई भी प्रयोजन नहीं है, जो लौकिक अर्थों में आपके लिए लाभकारी सिद्ध होगा, इसलिए आरम्भ में ही सचेत हो जावें, क्योंकि इस पथ पर चलने से आपके जीवन-आधार डगमगा सकते हैं। मैं अनेक मित्रों को जानता हूँ, जिन्होंने विपश्यना आदि शिविरों में सहभागिता की है, किन्तु वे इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि ध्यान बेहतर महसूस करने का एक अंतरिम समायोजन नहीं, बल्कि चेतना की अवस्था में आमूलचूल क्रांति है और ज़रूरी नहीं कि यह आरामदायक होगी।
ध्यान का केंद्रीय प्रयोजन है देह और मन से तादात्म्य को तोड़ना। किसके तादात्म्य को? अध्यात्म की बुनियादी धारणा यह है कि चेतना देह और मन से पृथक और निर्लिप्त है और ध्यान-साधना एक तरह का ग्रैजुएल शिफ्ट है देह और मन से चेतना की ओर। वह स्वरूप में पुन: प्रतिष्ठा है। पर भौतिक अर्थों में यह अधोगति है। हानिकारक सिद्ध हो सकती है। क्योंकि ध्यान-साधना का अंतिम लक्ष्य मृत्यु को अनुभव करना है। कहते हैं कि जब मृत्यु घटित होती है तो देह इधर पड़ी रह जाती है और चेतना उससे पृथक हो जाती है। वह देह को स्पष्टतया अपने से पृथक देखती है। ध्यान का प्रयोजन जीवित रहते ही इस अनुभूति को पा लेना है। इसे विदेह-अवस्था कहते हैं। इसके बाद देह और प्राण के बंध खुल जाते हैं। स्वास्थ्य को क्षति होती है और चित्त में अन्यमनस्कता आ जाती है। सांसारिक कामकाज चौपट हो जाते हैं और अहंकार को सज्जित करने वाली पूर्वनियत परियोजनाएँ धरी रह जाती हैं। इसलिए इस दिशा में यात्रा करने से पहले सावधान। इसकी तैयारी हो तो ही चलें।
बहुत सारे लोग इस बात को जाने बिना ध्यान करते हैं, लेकिन अगर वो पचास वर्षों तक भी विपश्यना करते रहेंगे तो भी उन्हें कोई आत्मिक लाभ नहीं होने वाला। आत्म-सम्मोहन से चेतना में जो तंद्रा आ जाती है, उसी को अगर वो मन की शांति समझना चाहते हैं तो समझते रहें। क्योंकि यह एक यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, जिसमें आपको श्वास को आते और जाते देखना है। इस प्रक्रिया का एक सचेत-प्रयोजन है और वो यह है कि आपके भीतर श्वास के इस आवागमन के प्रति एक पृथकता-बोध उत्पन्न होना चाहिए और उसके साक्षी की प्रतीति स्पष्ट होनी चाहिए। श्वास से तादात्म्य टूटना चाहिए। अगर वह नहीं टूट रहा है तो साधना निष्फल है। मन वग़ैरा को एकाग्र करना एक दूसरी बात है। मेडिटेशन कंसंट्रेशन नहीं है। ध्यान किसी वस्तु, विचार या विग्रह का नहीं किया जाता। ध्यान तब घटित होता है, जब चेतना निरभ्र, निरालम्ब और निरंजन हो- वैसी अध्यात्म की मूल मान्यता है। ये बातें मैं एक थ्योरिटिकल फ्रेमवर्क की तरह पाठकों के सम्मुख रख रहा हूँ, ताकि वो अध्यात्म के फ़ंडामेंटल्स को समझें।
यहीं पर रजनीश-कृष्णमूर्ति द्वैत भी उत्पन्न होता है। कृष्णमूर्ति कहते हैं- और मैं निज-अनुभवों के आधार पर उनसे सहमत हूँ- कि अगर आप बोध की दिशा में गति नहीं कर रहे हैं तो ध्यान की यांत्रिक प्रक्रिया निष्फल है। अगर आप 24 घंटे एक मेडिटेटिव स्टेट-ऑफ़-माइंड, एक स्पॉन्टेनीयस अवेयरनेस में नहीं हैं तो एक घंटा ध्यान करके उठ जाने से कुछ नहीं होगा। रजनीश इससे विपरीत बात कहते हैं- और मैं उनका तर्क भी भली प्रकार समझ पाता हूँ। रजनीश का कहना है कि अगर कोई प्रक्रिया आपको देह और मन से तादात्म्य तोड़ने के सबसे निकट ले जा सकती है, तो वह ध्यान ही है। कृष्णमूर्ति सरीखी सुतीक्ष्ण मेधा- जो नेति-नेति की कटार से सब द्वंद्वों को काट डालती है- सर्वसुलभ नहीं है। सामान्यजन को तो किसी विधि और रीति की आवश्यकता होगी। इसलिए रजनीश कहते हैं कि कृष्णमूर्ति की बात तार्किक रूप से भले सही हो, पर उनकी मानकर ध्यान करना छोड़ मत देना।
अपनी देह से मनुष्य का जो तादात्म्य है, वह अदम्य है। गहरी से गहरी संलग्नता इस सृष्टि में जो सम्भव हो सकती थी, वह प्राणी की अपनी देह से हुई है। जब अध्यात्म कहता है कि तुम देह नहीं हो, चैतन्य हो और तुम्हें इस भेद को जीवित रहते जान लेना चाहिए तो वह आपसे एक महान संकल्प की माँग करता है। देहबंध खोलना दुष्कर है। उससे भी कठिन यह मालूम करना है कि क्या आपकी उसके लिए तैयारी है? अगर नहीं है तो आप रोज़ ध्यान के लिए दिए गए समय के ज़ाया होने का रोना अंत में रोयेंगे। जब आप ध्यान करने बैठते हैं तो पाँच मिनट में ही स्वयं को किसी विचार-शृंखला में उलझा हुआ पाते हैं, फिर सचेत होकर आप अपने अवधान को पुन: किसी चक्र, बिंदु या श्वास पर केंद्रित करते हैं। किन्तु आप विचार-शृंखला में क्यों उलझते हैं? क्योंकि विचारों में आपने गहरे से गहरा निवेश किया हुआ है। अगर आप विचारशील हैं तो आपमें विचारों के प्रति अपनी देह जितनी ही सम्पृक्ति होगी और उससे अलगाव एक मृत्यु के अनुभव जैसा ही होगा। अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो जावेगा कि अगर मेरे विचार ही मैं नहीं हूँ, तो फिर मैं कौन हूँ? और इस संकट का सामना करना बड़ा संकल्प है!
प्रश्न यह नहीं है कि आप एक आसन की मुद्रा में कितनी देर तक शांत, एकाग्र बैठे रह सकते हैं, प्रश्न यह है कि क्या आप देह और मन- जो कि विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, अनुभूतियों, धारणाओं का योगफल है- से तादात्म्य को तोड़ने के लिए राज़ी हो गए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि एक घंटा ध्यान करने के बाद 23 घंटे राग-द्वेष को पोस रहे हैं, देहाभिमान को चारा दे रहे हैं और विचारों के प्रति आसक्त हैं? क्योंकि अगर वैसा है तो आप स्पष्तया उस रथ पर सवार हैं, जिसमें दोनों तरफ़ अश्व जुते हुए हैं और आप कहीं पहुँच नहीं रहे हैं।
गीता में रस-निवृत्ति का भी विचार है- ‘रसवर्ज रसोप्यस्य’ (साँख्ययोग)। यानी रस इंद्रिय में नहीं है, इंद्रिय तो केवल उपकरण है। रस तृष्णा में है। आँखें नहीं देखतीं, आँखों के माध्यम से कोई देखता है, जो कि देखने को लालायित हो गया है। इसने नेत्रों को दृष्टिसम्पन्न कर दिया है। तो क्या इन्द्रियों को रस से सींचने के बजाय उनकी रस-निवृत्ति की भी आपकी तैयारी हो चुकी है? यह प्रश्न स्वयम् से पूछें और बारम्बार पूछें।
इन तीन प्रश्नों से मैंने विगत दिनों बहुत आत्मसंघर्ष किया है कि
- क्या देह से तादात्म्य तोड़ने और मृत्यु में सजीव-प्रवेश करने की तैयारी है?
- क्या विचारों-स्मृतियों-कल्पनाओं-धारणाओं से आसक्ति तोड़ने की तैयारी है?
- क्या रस-निवृत्ति के लिए चित्त प्रौढ़ और परिपक्व है?
अगर ध्यान-साधना पूर्व दिशा है तो ये तीन प्रश्न पश्चिम दिशा में अवस्थित हैं और पूर्व दिशा में यात्रा करने का अर्थ अनिवार्यत: स्वयं को पश्चिम- यानी देह, मन, इन्द्रियसुख- से विमुख कर लेना है। ये दोनों साथ होना दूभर है। इसके अभाव में रोज़ आलथी-पालथी मारकर बैठ जाना और श्वास पर अवधान केंद्रित करना एक रिचुअल मात्र है, उससे कुछ फलित नहीं होने वाला- यह मेरा निजी-अनुभव है। और चूँकि यह दृष्टि सुचिंतित और अनुभवप्रसूत है, इसलिए लोकहित में इसे पाठकों के सम्मुख रख दे रहा हूँ कि वे भी इससे अपना आत्मप्रकाश करें। इति।