Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

स्मृति शेष : दिनेश ग्रोवर जितना मजेदार और जिन्दादिल इंसान कम ही देखा है

बड़ी ही मजेदार थी दिनेश ग्रोवर की जिन्दादिली…  बहुत साल पहले की बात है। वयोवृद्ध पत्रकार एवं कवि-लेखक इब्बार रब्बी राजेन्द्र यादव की साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में संपादन सहायक के तौर पर अवैतनिक सेवा दे रहे थे। रब्बी जी नवभारत टाइम्स से रिटायर हो चुके थे और आर्थिक रूप से परेशान चल रहे थे। रब्बी जी राजेन्द्र यादव के दरियागंज स्थित दफ्तर में बैठकबाजी करने कभी-कदार चले जाया करते थे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बाद में यादव जी के कहने पर रब्बी जी ‘हंस’ का कुछ काम करने लगे और वह रोज वहां जाने लगे। उन्हें उम्मीद थी कि यादव जी उनके संपादकीय कार्य-सहयोग के बदले में हर महीने उन्हें कुछ न कुछ मुद्रा जरूर थमाएंगे। कई महीने बीत गये, पर यादव जी ने कुछ न दिया। यहां तक कि घर से ‘हंस’ के दफ्तर तक आने-जाने का किराया तक नहीं। रब्बी जी टाइम काटने की गरज से लगभग एक साल तक वहां बैठते रहे। उन्हीं दिनों की बात है कि मैं रब्बी जी से मुलाकात करने ‘हंस’ के कार्यालय गया हुआ था। रब्बी जी राजेन्द्र जी के चैम्बर में उनके सामने वाली कुर्सी पर विराजमान थे।

वहां एक और भी व्यक्ति, जो लगभग राजेन्द्र जी की ही उमर का था, उनकी बायीं तरफ बैठा था। उस व्यक्ति से मैं अपरिचित था। सोचा कोई लेखक-वेखक होगा। कक्ष में जोर-जोर के ठहाके लग रहे थे। बहरहाल, जैसे ही रब्बी जी ने मुझे देखा, अपने बगल वाली कुर्सी पर बैठने का इसारा किया। जब ठहाके थम गये तो रब्बी जी ने उस अपरिचित आदमी से मेरा परिचय करवाया। उस समय मेरे लिए वह अपरिचित व्यक्ति थे— लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद के मालिक दिनेश ग्रोवर।आज सुबह उनके निधन की खबर फेसबुक पर मिली, तो सहसा ग्रोवर जी का ठहाका लगाता चेहरा सामने घूम गया। मुझे गहरा धक्का लगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जिस दिन की मैंने ऊपर चर्चा की है, उस दिन ‘हंस’ के दफ्तर में दरअसल हगने-मूतने से संबंधित किस्से सुने-सुनाये जा रहे थे। एक किस्सा किसी बडे लेखक से जुड़ा था, जो ग्रोवर जी मेरे वहां पहुंचने से पहले सुना चुके थे और उसी पर ठहाके लगाये जा रहे थे। बाद में ग्रोवर जी ने देर तक चले हंसी-मजाक के उपसंहार के तौर पर किसी डॉक्टर के हवाले से एक तथ्य की चर्चा की। उन्होंने बताया कि व्यक्ति का पेट कभी भी पूरी तरह साफ नहीं हो सकता। एक किलो के करीब मल उदर में हमेशा भरा रहता है। यदि वह निकल जाये तो आदमी गश खाकर गिर जाएगा। उनकी इस बात पर भी ठहाका लगा।

कुछ देर बाद ही चैम्बर का माहौल तब तनावपूर्ण हो गया, जब राजेन्द्र जी ने ग्रोवर जी की किसी बात पर कहा—‘’तुम साले हिन्दी जगत के लेखकों का घोर शोषण करते हो।‘’ ग्रोवर जी भी नहीं चूके। उन्होंने कहा— ‘’प्रकाशन की दुनिया का सबसे बड़ा शोषक राजेन्द्र यादव है।‘’ दोनों लोगों के बीच कहासुनी का यह दौर आधे घंटे से ज्यादा चला। दोनों तमतमाया चेहरा देखकर यही लगता था कि इस वाद-विवाद की परिणति निश्चित तौर पर मारपीट होगी। हालांकि ऐसा कुछ हुआ नहीं। बाद में रब्बी जी ने मुझे बताया कि ये दोनों एक-दूसरे के जिगरी दोस्त और जानी दुश्मन दोनों हैं। इस प्रकरण का गवाह बनने के बाद मैं इलाहाबाद जब भी गया, ग्रोवर जी से जरूर मिला। हिन्दी जगत में इतने मजेदार और जिन्दादिल इंसान मैंने कम ही देखे हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस स्मृति शेष के लेखक विनय श्रीकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और ढेर सारे बड़े हिंदी अखबारों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement