SANJEEV SHRIVASTAVA-
केवल बड़ी खबरों और लाइव तस्वीरों के लिए जब भी टीवी देखता हूं-जो सबसे ज्यादा अचरज जिस बात पर होता है; वह है- समानता। चैनलों पर खबर-दर्शन का जैसे साम्यवाद आ गया है! मैं साल 2014 का या 19 का नैरेटिव नहीं लूंगा लेकिन ये दावे के साथ कह सकता हूं कि सुशांत सिंह राजपूत केस के पश्चात यह समानता खासतौर पर ज्यादा ही देखने को मिलती है। एक चैनल ने मर्डर नैरेटिव चलाकर जब आम दर्शकों के सेंटीमेंट का हरण कर लिया और लॉकडाउन में घनीभूत हुई हताशा को उत्तेजक न्यूज-रंजन का डोज देना शुरू कर दिया तो दूसरे चैनलों के पास भी उसी नैरेटिव के साथ चलने के सिवा कोई चारा नहीं बचा। उस बीच जिसने भी उससे जरा भी इतर चलने की कोशिश की, उसे विरोधियों का अड्डा बताकर उसके खिलाफ सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक बायकॉट अभियान चलाया गया।
संकट टीआरपी से लेकर सत्ता और राजनीति के गलियारे तक गहराता दिखा। ऐसे में मजबूरी में बारी-बारी से सभी चैनल मर्डर नैरेटिव और उसके बाद ड्रग्स आदि के डिबेट में एक ही शैली, भाषा और सुर में आकर सेट हो गये। मैंने उस वक्त कई पुरुष और महिला एंकरों को आज के सबसे बदनाम चेहरे और उसके चैनल की भाषा और शैली की शब्दश: नकल करते देखा है। अपनी पहचान, अपना नाम, अपनी शैली, अपना ब्रांड सबकुछ को खोते देखा है। ना जाने आखिर क्यों?
कोई हैरत नहीं कि जो नैरैटिव उस वक्त सेट कर दिया गया, आज भी चैनल उससे हटे नहीं हैं। एक-दूसरे की नकल ज्यों का त्यों जारी है। सबकी भाषा और प्रस्तुति एक जैसी है। बस मुद्दे बदल रहे हैं-नैरैटिव एक ही रहते हैं सबके। किसी के पास अपना दृषिकोण या अन्वेषण नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारिता हमेशा से (पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में भी) सत्ता समाचार और पुलिस सूचना के साथ रही है, लेकिन कुछ ही साल पहले सारे मीडिया घरानों की कवरेज को देख लिजिए और आज की धार को भी देख लिजिये। कितना अंतर नजर आएगा? हर किसी के पास खोजी और एक्सक्लूसिव या स्टिंग ऑपरेशन आदि का अपना-अपना बैकअप होता था, लेकिन दिग्गज पत्रकार और मीडिया कर्मी यह बताएं कि क्या आज मीडिया घराने अपनी-अपनी मूल पहचान बचाने में सक्षम रह गये हैं? क्यों उनकी मौलिक पहचान गुम होती जा रही है? क्यों विश्वसनीयता खोती जा रही है?
एक छोटा-सा उदाहरण देखिये-लाल किला पर झंडा लहराने की शर्मनाक घटना के बाद से मीडिया में दीप सिद्धू की खबर को अंडरप्ले करके रखा गया लेकिन जैसे ही पुलिस ने इनाम घोषित किया, सभी उस पर आ गये। ये खबर है कि पुलिस सूचना का प्रचार? आखिर क्यों नहीं उसे रेगुलर फॉलोअप में रखा गया? क्या जवाब है इसका?
फेसबुक पर मैं ज्यादा लंबा नहीं लिखना चाहता। बस, इन्हीं सवालों के आलोक में केवल यह कहना चाहता हूं कि आज मीडिया एक ही रंग में रंगा क्यों नजर आता है? एक ही तरह की भाषा क्यों बोल रहा है? क्या कभी इस पर सेमिनार किया गया? मीडिया चिंतकों को इस पर मंथन नहीं करना चाहिये?
अक्सर लोग इसके पीछे सरकार और सत्ता का प्रैशर बताते हैं-प्रबंधन का दवाब भी कह दिया जाता है. जबकि यह बहुत आसान-सा जवाब है। बड़े मीडिया घरानों के संदर्भ में मुझे इन दोनों ही दलीलों पर ना जाने क्यों पूरी तरह से यकीन नहीं होता। छोटे मीडिया संस्थानों की कह नहीं सकता।
मुझे लगता है कि अगर ऐसा होता तो साल 2014 से ही सभी मीडिया घराने एक ही रंग में रंगे नहीं होते? लेकिन इसमें कुछ साल का वक्त लगा।
वास्तव में मुझे जो इसकी सबसे बड़ी वजह लगती है, वह है-कमजोर विज़न वाले हेड की प्लेसमेंट।
क्योंकि हेड अगर चाहें तो अपने पेशे में बैलेंस और जेनुइन रह सकते हैं! ऐसा मेरा नजरिया और अनुभव कहता है। लेकिन वो आज बैलेंस रहना ही नहीं चाहते। उन्हें डर इस बात का लगा रहता है कि अगर हमने दूसरों से जरा भी कम चमचागिरी दिखाई तो हम रेस में पीछे हो जाएंगे हैं।
जबकि मजबूत विज़न वाले हेड चमचागिरी में भी इंटलैक्ट का इफेक्ट दिखाकर रेस जीत लेते हैं-तभी तो आप दूसरों से पहचान अलग कर सकेंगे? कमजोर विजन वाले नकल को ही अपनी प्रतिभा मानते हैं जबकि मजबूत विजन के लोग चमचागिरी में भी अपना सुपाच्य विवरण पेश कर देते हैं।
जाहिर है अगर आप दूसरों से पहचान अलग नहीं करेंगे तो आपकी टीआरपी अलग कैसे होगी? आप दूसरों से अधिक तार्किक नहीं होंगे तो आप औरों से आगे कैसे होंगे?
यह सोचने और करने का वक्त है।
–संजीव श्रीवास्तव
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