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सुख-दुख

जानिए, भरी जवानी में क्यों मर रहा है आर्द्रा तारा!

सुशोभित-

कुछ दिनों पहले मैंने कहीं पढ़ा कि आर्द्रा तारा मर रहा है। यह सुनकर मुझे एक कोमल, पवित्र-सा विषाद हो आया। विषाद का वह नक्षत्र मेरे भीतर उगा और फिर डूबा नहीं। 550 प्रकाश-वर्ष की दूरी पर मौजूद एक तारे की आसन्न मृत्यु से मुझको भला क्यों दु:ख होने लगा? वैसे कारण तो कुछ नहीं। किंतु यह तारा मेरा नित्य का संगी है। इससे एक अनुराग-सा हो गया है। रोज़ शाम टहलने निकलता हूँ तो सिर के ऊपर मृग तारामण्डल सजा हुआ मिलता है, आर्द्रा उसी में जड़ा एक नगीना है। मैं जब-तब आँख उठाकर उसको निहार लेता हूँ। यह मेरे साथ-साथ चलता है। क्या मैं यह कहूँ कि इसके होने से मुझको एकान्त की अनुभूति नहीं होती? कदाचित् यह कहना ठीक नहीं होगा। उलटे उससे एकान्त और गहरा जाता है। मैं सोचता हूँ यहाँ धरती पर मैं अकेला हूँ, वहाँ अंतरिक्ष में आर्द्रा अकेला है। ये दो एकान्त हैं। तब, आकाश में अगणित तारे हैं तो कुल कितने एकान्त हुए?

सभ्यता के इतिहास में मनुष्य ने जिन नक्षत्रों को बारम्बार आश्चर्य से निहारा है, उनमें आर्द्रा अग्रगण्य है। इस पर स्वाति, रोहिणी, अभिजित, अगस्त्य, ध्रुव से कम चिंतन नहीं हुआ। सहसा मुझको जयशंकर प्रसाद की कहानी “पुरस्कार” याद आती है। इसका आरम्भ ही इस वाक्य से होता है- “आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष।” जयशंकर प्रसाद से कोई कहता कि आर्द्रा मर रहा है तो उन्हें भी उतने ही आकार का विषाद होता, जो मुझमें घर कर गया।

मैंने कहीं एक खगोलविद् की कहानी पढ़ी थी। अपने बचपन में वो एक रात यों ही निष्प्रयोज्य टहल रहा था। सहसा उसने आकाश की ओर नज़र उठाकर देखा। लाल रंग के एक तारे ने उसको देखकर पलकें झपकाईं। उस बालक को लगा, जैसे उसने उससे कुछ कहा है। एक सम्बंध-सा उससे बन गया। वो घर लौटा और नक्षत्र-मण्डल के चित्र खंगालने लगा। उसने वहाँ मृग तारामण्डल को खोज निकाला, जो किसी अहेरी जैसा दिखलाई देता था। इसीलिए वह कालपुरुष भी कहलाता है। उसकी अचकन में तीन बटन टंके थे- एक सीधी पंक्ति में तीन तारे। इसी से यह पहचाना जाता। हर तारामण्डल में एक तारा सबसे कान्तिमान होता है, किंतु कालपुरुष में दो तारे कान्तिमान थे। पश्चिमी खगोलविदों ने उनमें से एक को अल्फ़ा, दूसरे को बीटा कहा। वो लोग कालपुरुष को अरियन कहकर पुकारते हैं। तारामण्डल का जो सबसे चमकीला तारा था, वह बीटा अरियनिस कहलाया। अंग्रेज़ी में उसे रीगेल और हमारी भाषा में राजन्य तारा कहते हैं। उसका एक दूसरा नाम द्वितीय मृग भी है। तारामण्डल के कंधे पर एक लाल रंग का तारा है, जो अल्फ़ा अरियनिस कहकर पुकारा गया। उसे नाम दिया गया- बीटलगूज़, जो किसी फ़ारसी लफ़्ज़ का अपभ्रंश था। इसी को हम अपनी भाषा में आर्द्रा कहते हैं।

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वह बालक लौटकर फिर बाहर आया और इस बार उसने आर्द्रा तारे को एक आत्मीय मुस्कान से निहारा। कुछ पल पहले उस तारे ने उसे देखकर पलकें झपकाई थीं, और अब वो उसका नाम जान गया था। वो आकाश में टंगी कोई परिचयहीन प्रभा नहीं थी, उसकी एक इयत्ता थी, नामसंज्ञा थी। उसको लगा, जैसे उसकी उससे मैत्री हो गई है। आगे चलकर उस बालक ने इसी तारे के अनुसंधान को अपना जीवन-लक्ष्य बना लिया। पूरा जीवन इसका अध्ययन किया। इस पर पुस्तकें लिखीं। इसे दिन-रात निहारता रहा। जब उसको पता चला कि आर्द्रा तारा मर रहा है, तो उसका दिल धक्क से रह गया। उसने कहा, नहीं मेरे बंधु, तुम मर नहीं सकते। जब मैंने उसकी कहानी सुनी, तो मुझे लगा यह कहानी मेरे भीतर गूँज रही है।

हमारा सूर्य भी एक तारा है। बहुत ही उम्रदराज़ सितारा। 4.6 अरब साल इसकी बसर हो चुकी। सूर्य के बारे में सोचते हुए मुझको मंज़र भोपाली का वो शे’र याद आता है- “अनगिनत साल का जलता हुआ बूढ़ा सूरज / जाने क्यों रोज़ सबेरे मेरे घर आता है…।” सच में, यह सितारा अनगिनत साल से जल रहा है, और इसके बावजूद रोज़ सुबह ठीक वक़्त हमारी दहलीज़ पर चला आता है। हमारी ज़िंदगी की तमाम दियासलाइयाँ, लालटेनें और मशालें इसी से रौशन हैं। इसकी तुलना में आर्द्रा तारा बहुत ही नौजवान है। उसकी उम्र अभी कोई एक करोड़ साल ही हुई। तब भी वह मर रहा है। कह लीजिए कि ये एक जवान मौत है। जिसको कि कहते हैं- मर्गे-नागिहानी। ग़ालिब ने कहा था ना- “काते-ए-अमार हैं अकसर नुजूम (नुजूम यानी तारे), वो बला-ए-आसमानी और है, हो चुकी हैं ग़ालिब बलाएँ तमाम, एक मर्गे-नागिहानी और है।”

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जवान-मौत की शिद्दत ही और होती है। उससे अफ़साने बनते हैं।

ये आर्द्रा तारा भरी जवानी में इसलिए मर रहा है, क्योंकि ये बहुत बड़ा है। हमारे सूरज की जगह इसको रख दें तो धरती तक इसकी ज़द में आ जाए। ये हमसे परे तक व्याप जाए। धरती से हम देखते हैं तो यह कालपुरुष तारामण्डल का कंधा दिखलाई देता है, लेकिन अंतरिक्ष में ये जहाँ है, वहाँ पर ऐसी कोई तरतीब नहीं है। ये तो हमारे पर्सपेक्टिव से उभरा हुआ एक नक़्शा है, जिसको हम सच मान बैठे हैं। ये इतना बड़ा तारा है कि इसने ख़ुद को खपा दिया है। ये एक ऐसी मशाल थी, जो दोनों सिरों से जली। इसकी सम्मिलित नियति में ही तेज है, तृष्णा है, तिरोहित हो जाने की अभीप्सा है। अब इसके आख़िरी दिन हैं। लेकिन ये आख़िरी दिन भी कितने हज़ार सालों के होंगे, ये कौन जानता है। वो कहते हैं, मुमकिन है आर्द्रा तारा कल मर जावे, या हो सकता है कुछेक लाख साल और जीए।

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ऐसा है कि तारे तरह-तरह से मरते हैं। जो तारे बहुत बड़े होते हैं, वो या तो मरने के बाद अपने भीतर धंस जाते हैं और ब्लैकहोल बन जाते हैं। या वो सुपरनोवा वाली आतिशबाज़ी का मुज़ाहिरा और इश्तेहार करके विदा होते हैं। हमारा सूरज इतना छोटा है कि मरने के बाद ये ना ब्लैकहोल बनेगा, ना सुपरनोवा, ये केवल एक सफ़ेद बौना (व्हाइट ड्वार्फ़) बनकर रह जाएगा। उस दिन हमारी धरती के तमाम अलाव ठंडे हो जाएंगे। हमारी धमनियों में एक ठंडी मौत पैठ जाएगी। लेकिन आर्द्रा तारा सुपरनोवा बनकर मरेगा, और जिस दिन यह होगा, वो अंतरिक्ष के इतिहास की वैसी सबसे नायाब घटना होगी, जो मनुष्यों ने अपनी आँख से देखी।

इसके बावजूद भला कौन होगा, जो उस आतिशबाज़ी की बटजोही करेगा? मैं तो नहीं कर सकता। वो खगोलविद् भी नहीं कर सकता, जिसने बचपन में सबसे पहले आर्द्रा तारे को पहचाना था और उससे दोस्ती कर ली थी। ऐसे सैकड़ों-हज़ारों मनुज हैं, जो मन ही मन इस तारे को प्यार करते हैं, उससे एक सम्बंध बांधे हुए हैं। उससे उनकी एक गहरी, निजी आत्मीय संलग्नता है। कुछ दिन पहले मैं तारों का एक तुलनात्मक वृत्तचित्र देख रहा था, जिसमें एक-एक कर पिंड और नक्षत्र पटल पर उभर रहे थे। उसमें जैसे ही आर्द्रा तारा दृश्य में आया, मैं मुस्करा उठा। तब मुझको लगा, ये लाल तारा मेरा मित्र है, संगी है, बंधु है। जो धड़कन उसके भीतर है, वही मुझमें भी है। जो ऊष्मा उसे जिलाए हुए है, वही मेरे भीतर भी जीवन की आंच बनकर सुलगती है। इतनी दूरियों और असम्भवताओं के बावजूद मैं और वो इसी महासृष्टि का हिस्सा हैं। और मेरी तरह वो भी धीरे-धीरे मर रहा है। लेकिन हम दोनों में से पहले कौन जाएगा?

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मैं तो यही चाहूँगा कि मेरे जीवन की लौ जिस दिन टिमटिमाकर बुझे, उस दिन भी आकाश में आर्द्रा तारा मौजूद हो- कालपुरुष के कंधे पर कन्दील की तरह टिमटिमाता हुआ। और मैं इस संतोष से भरकर जाऊं कि इतनी लम्बी ज़िंदगी में एक तारा भी मुझसे गुमा नहीं, मेरी जेब आख़िर तलक कांच के कंचों से भरपूर रही!

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