मुसाफ़िर बैठा-
’फॉरवर्ड प्रेस’ नामक एक पत्रिका है जिसके मालिक एक ईसाई पिछड़ा (कोइरी/कुशवाहा) रहे हैं और उसका प्रबंध संपादक एवम् संपादक भी प्रमोद रंजन नामक एक कोइरी ही रहे हैं।
आप देखेंगे कि इस पत्रिका के मंच से जो ’ओबीसी साहित्य’ उगाने की कोशिश की गई उसमें प्रमोद रंजन के मुख्य हथियार एक अन्य कोइरी डा राजेंद्र प्रसाद सिंह रहे, जिन्हें कुछ पिछड़ों ने निर्लज्जता से अंतर्राष्ट्रीय स्तर का भाषा वैज्ञानिक भी करार दे रखा है। फिर, इन लोगों (ख़ासकर, प्रमोद रंजन, राजेंद्र प्रसाद सिंह एवम् कमलेश वर्मा) ने ’दलित साहित्य’ को scheduled caste literature कहते हुए गरियाने और महत्वहीन साबित करने की कोशिश की। यह भी कहा कि सवर्ण साहित्य की तरह ही दलित साहित्य ने साहित्य में पिछड़ों का हक–हिस्सा छीन रखा है।
ऐसा कहने वालों में खुद प्रमोद रंजन एवम् उनका एक साहित्यिक गुर्गा प्रो कमलेश वर्मा शामिल रहा। यह वर्मा सवर्ण यानी कायस्थ वाला वर्मा नहीं है, कोइरी या कुर्मी में से कुछ है।
इन्हीं श्रीमंत वर्मा ने फॉरवर्ड प्रेस की वेबसाइट पर ’प्रेमचंद की बहुजन कहानियाँ और जाति के प्रश्न’ शीर्षक से एक लेख लिख रखा है जिसमें हास्यास्पद रूप से किसान के रूप में पिछड़ा समाज की विरुदावली गाई गई है, जैसे कि किसानी में दलित और अन्य समाज का कोई योगदान हो ही नहीं। पता नहीं ये वर्मा जी प्रेमचंद को सवर्ण मानते हैं या पिछड़ा, उन्होंने प्रेमचंद की पिछड़ों के पक्ष की वीरगाथा प्रस्तुत करते हुए प्रेमचंद के और पिछड़ों की प्रशंसा के पुल बांधे हैं इस लेख में।
लेख के कुछ हिस्से नीचे दे रहा हूं। पूरा पढ़ने के लिए ’फॉरवर्ड प्रेस’ के वेब पेज पर जाएं।
लेख के अंश यूं हैं :
प्रेमचंद के साहित्य में किसान केवल पिछड़ी जातियों के लोग हैं. इसलिए कृषि-प्रधान देश और कृषि-संस्कृति का देश बनाने में सबसे बड़ी भूमिका पिछड़ी जातियों की मान ली जानी चाहिए. अगड़ी जातियों ने किसानों को तबाह किया है, इसलिए कृषि-व्यवस्था में उनकी भूमिका नकारात्मक ही मानी जा सकती है.
…..पिछड़ी जातियाँ जो किसान के रूप में मानवीय हैं, दलितों के प्रसंग में अमानवीय हैं. यह खुली बात है कि प्रेमचंद की रचनाओं में दलित जातियों को सतानेवाली जातियों के रूप में प्रायः अगड़ी जातियों को ही चिह्नित किया गया है, मगर कई जगहों पर पिछड़ी जातियों की दलित-विरोधी मानसिकता को भी उजागर किया गया है.
…प्रेमचंद के साहित्य का मुख्य आधार बहुजन समाज है. आप इस समाज को और उससे जुड़े विभिन्न पक्षों को यदि हटा दें, तो प्रेमचंद-साहित्य में कुछ भी बहुमूल्य नही रह जाता है. प्रेमचंद की कीर्ति और विश्वसनीयता का आधार बहुजन जीवन का चित्रण-विश्लेषण है.