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फाइनेंशियल टाइम्स ने कह दिया- अडानी पर अपनी खबर नहीं हटाऊँगा!

संजय कुमार सिंह-

राहुल गांधी ने चुनौती यूं ही नहीं दी है….

फाइनेंशियल टाइम्स की खबर का खंडन और उसके बाद के हालात दिलचस्प हैं। फाइनेंशियल टाइम्स के बहाने सभी छोटे-बड़े पत्रकारों को एक तरह से साध लिया गया और यह खबर फैल गई कि 20,000 करोड़ रुपए के संदिग्ध निवेश से अडानी समूह ने इनकार किया है। सबूत मांगने के इस दौर में सबूत ना किसी के पास हो सकता है ना है लिहाजा मामला ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश कामयाब लगती है। हिन्दी में फाइनेंशियल रिपोर्टिंग लगभग नहीं है और अब जो करते हैं वो अपने आप में व्यस्त है। ऐसे में अडानी का मामला भले ही गंभीर और दिलचस्प हो, बड़ी खबर हो पर इसे वैसे कवर नहीं किया गया जैसे किया जाना चाहिए था। लेकिन हिन्दी ही क्यों – अंग्रेजी में भी अडानी मामले पर कायदे से खबर हुई होती तो हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट कहां आ पाती और आई तो आई, उसके शेयर क्यों गिरते।

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इन सब बातों से वो सब कुछ साफ है जिसे लोग समझ नहीं रहे हैं और जो समझ रहे हैं वो छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। इसी में शामिल है – कानफाड़ू चुप्पी और बोलने वालों का हराभरा अकाल। ऐसा नहीं है कि इसपर बोल सकने वालों की कमी है पर कौन बोलकर परेशानी में फंसे। मशहूर पत्रकार परंजय गुहा ठकुराता इस बारे में बता चुके हैं और आकार पटेल जैसे ढेरों उदाहरण हैं जब सरकार कुछ नहीं कर पाई तो विदेश जाने से रोक दिया क्योंकि मोदी सरकार के खिलाफ किताब लिखी थी। तो इस बार हुआ यह कि एफटी मतलब फाइनेंशियल टाइम्स की खबर से जब मामला भारी पड़ता दिखा तो उसका औपचारिक खंडन कर दिया गया और उसकी कॉपी लगभग सभी संबंधितों को भेज दी गई। और यह अहसास करा दिया कि बच्चू इसका जवाब लिख पाओगे?

इसलिए सबको इंतजार था, फाइनेंशियल टाइम्स के जवाब का। 13 अप्रैल को एफटी के जवाब से संबंधित खबर यहां द टेलीग्राफ में और दूसरी जगह छपी है। अब लोगों को पता चलेगा और तब लोग तय कर पाएंगे कि उन्हें क्या करना है या करना चाहिए। हालांकि यह उनके लिए है जो अभी भी पत्रकारिता कर रहे हैं उनके लिए नहीं जिनकी लाइन तय है। उधर फाइनेंशियल टाइम्स ने वही कहा है जो उसे कहना था, जो कोई अखबार इस तरह के खंडन पर कहता था। उसकी चर्चा करने से पहले संक्षेप में बता दूं कि मामला है क्या, क्यों गंभीर है तथा क्यों बोलती बंद है। सबसे पहले तो शेल कंपनियां बंद कराने का प्रचार। सरकार ने खूब ढिंढोरा पीटा कि उसने शेल कंपनियां बंद करा दी हैं। मोटे तौर पर प्रचार यह था कि इनसे देश में कालाधन आता है और कायदे से निवेश हो जाता है।

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दरअसल कहानी यह बताई और बनाई गई कि रिश्वत का पैसा विदेश में लिया जाता है और वहीं से किसी शेल कंपनी के जरिए भारतीय कंपनी में निवेश कर दिया जाता है। इसे पकड़ना और साबित करना मुश्किल है इसलिए शेल कंपनियों के खिलाफ सख्ती के प्रचार से भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ सख्ती का प्रचार होता। जनता ताली थाली बजाती रही। मनी लांड्रिंग के आरोप में सत्येन्द्र जैन और शराब नीति बदलने के लिए 100 करोड़ लेने और कुछ बरामद नहीं होने के बावजूद मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से जुड़ा मामला यही है कि पैसा तो लिया गया है भले ही मिल और दिख नहीं रहा हो। लेकिन शेल कंपनी के जरिए अडानी की कंपनी में निवेश का मामला सरकारी सहयोग से जानकारी में हुआ है। इसलिए, सवाल तो उठेंगे ही। इसीलिए जांच महत्वपूर्ण है और सुप्रीम कोर्ट जो जांच करा रही है उसका दायरा सीमित है। इसलिए उससे वह सब पता नहीं चलेगा जो पता होना चाहिए। मामला करोड़ों का नहीं हजारों करोड़ का है। इसलिए कौन क्या किसलिए बोल रहा है समझना मुश्किल है। कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाने का मामला भी हो सकता है। दूसरी ओर, सरकारी प्रचार का मकसद पहले तो काले धन और भ्रष्टाचार का विरोधी होना ही लगता था लेकिन अब लगता है कि असल में यह अडानी के फायदे के लिए भी किया गया होगा। जांच जरूरी है। गंभीर बात यह है कि मामले में पारदर्शिता नहीं है और इसके बिना शेयरों के भाव बढ़ना भी सामान्य नहीं है।

यही नहीं, शेल कंपनियां बद कराने का प्रचार और अदानी के मामले में शेल कंपनियां बंद नहीं होना भी महत्वपूर्ण है। विदेशी शेल कंपनी से निवेश की बात आई तो सरकार ने कह दिया कि विदेशी शेल कंपनियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है और उनके खिलाफ कार्रवाई का प्रश्न ही नहीं है। ऐसे में विदेशी शेल कंपनी से अडानी की कंपनियों में आए निवेश के बारे में क्या माना जाए। भारतीय शेल कंपनियों को बंद कराना किस तरह से देखा जाए। वह भी तब जब शेल कंपनी की परिभाषा ही तय नहीं है और बंद कराने का कोई मतलब नहीं है। इससे संबंधित कई सवाल अनुत्तरित है। तभी विदेशी शेल कंपनी से अडानी की कंपनी में 20,000 रुपए के निवेश का मामला सामने आया। जो हालात हैं उसमें इसपर कोई बोलता नहीं लेकिन यह इतना गंभीर है कि राहुल गांधी इसे छोड़ नहीं पाए या तमाम अपमान झेलकर और जोखिम उठा कर भी इसे छोड़ा नहीं। बदले में सरकार की दमनात्मक कार्रवाइयों के बारे में आप जानते हैं। वह सब अभी मुद्दा नहीं है। मेरा मकसद सिर्फ यह बताना है कि राहुल गांधी ने अगर अपनी सदस्यता दांव पर लगाई है और जेल जाने के लिए तैयार हैं तो यह मामला है ऐसा कि इसपर सरकार से जवाब मांगा जाए। और जवाब होता तो सरकार को यह सब करना नहीं पड़ता।

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फाइनेंशियल टाइम्स अपनी रिपोर्ट पर डटा है

भारतीय जनता पार्टी के शासन में अगर अडानी का नेटवर्थ कई गुना बढ़ा और वे दुनिया के दूसरे-तीसरे नंबर के पूंजीपति बन गए तो यह सरकार के सहयोग के बिना संभव नहीं है। मामला इतना खुला था कि हिन्डनबर्ग ने इसमें कमाई देखी और उसके घपलों-घोटालों की रिपोर्ट कई पन्नों में है। एक पुस्तिका बन जाए। पुराने समय में इसे अखबारों ने किस्तों में छापा होता। पर कुछ नहीं हुआ – और यही इसकी गंभीरता बताता है। दूसरी ओर, मामले को खत्म करने या ठंडे बस्ते में डालने की कोशिशों को कोई ना कोई झटका लग ही जाता है। ताजा मामला फाइनेंशियल टाइम्स की खबर का है। इसके बाद कुछ दिन शांति रही लेकिन 13 अप्रैल 2023 को पता चला कि फाइनेंशियल टाइम्स अपनी खबर नहीं हटायेगा। यहां भारत सरकार ऐसे कानून बनाने जा रही है जिसके तहत अगर भारत सरकार की संबंधित एजेंसी ने कह दिया कि खबर गलत है तो संबंधित पोर्टल या संस्थान को वह खबर हटानी होगी। इस लिहाज से एफटी अगर भारत में होता तो उसे शायद यह खबर हटानी पड़ती। पर वह अलग मुद्दा है।

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द टेलीग्राफ के अनुसार फाइनेंशियल टाइम्स की खबर का शीर्षक था, “आंकड़ों से पता चलता है कि अडानी का साम्राज्य विदेशी फंडिंग पर आश्रित है”। यह खबर 22 मार्च 2023 को छपी। इससे पहले अडानी पर राहुल गांधी का भाषण एक्सपंज किया जा चुका था। बीच में राहुल गांधी की सदस्यता गई, बंगला खाली करने का नोटिस आया, ललित मोदी ने कहा कि वे लंदन में राहुल गांधी पर मुकदमा करेंगे। उनके वकील रहे सुषमा स्वराज के पति और दोनों की बेटी बांसुरी को भाजपा में पद मिला। यह सब 30 मार्च तक चला। उधर, 31 जनवरी को शुरू हुआ संसद का सत्र राहुल गांधी के बोले और माफी मांगे बगैर 6 अप्रैल को अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया। 10 अप्रैल को अडानी समूह ने फाइनेंशियल टाइम्स से कहा कि अपनी रिपोर्ट हटा ले। इसकी कॉपी तमाम पत्रकारों को भेजी गई। कुछ अखबारों में इस आधार पर खबर भी छपी और सरकार समर्थक लोग कहने लगे कि विदेशी निवेश की खबर गलत है।

फाइनेंशियल टाइम्स को खंडन जारी होने के बाद और इस आधार पर खबर को गलत कौन कहे। लोग प्रचार करते रहे। इस तथ्य के बावजूद कि एफटी की खबर की शुरुआत इस तरह हुई थी, “गौतम अडानी के संघटन का तकरीबन आधा विदेशी प्रत्यक्ष निवेश विदेशी कंपनियों से आया है जो उनके परिवार से जुड़े हुए हैं।” इससे समझा जा सकता है कि समूह में आने वाले धन के प्रवाह की जांच करने वालों की भूमिका कितनी मुश्किल है। एक विश्लेषण के अनुसार 2017 से 2022 तक भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश मद में आए भुगतान का 45.4 प्रतिशत अडानी से जुड़ी विदेशी कंपनियों से आया है। इस अवधि में कुल राशि 5.7 अरब डॉलर बताई गई है। इस आंकड़े से यह तथ्य रेखांकित होता है कि अडानी को अपना विशाल समूह बनाने में किस तरह की मदद मिली है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह मदद किसी और को मिली होती तो भी सवाल उठते। अडानी प्रधानमंत्री के मित्र हैं। इसे तो उन्होंने तब भी नहीं छिपाया था जब वे पत्नी और भाइयों का भरा पूरा परिवार होते हुए दावा कर रहे थे कि उनका कोई नहीं है।

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परिवार से जुड़े विदेशी संस्थाओं से अडानी समूह में धन प्रवाह की पूरी मात्रा और अधिक होने की संभावना है क्योंकि एफडीआई डेटा केवल विदेशी निवेश के एक हिस्से का ही होता है। हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट 23 जनवरी को आई थी और तथ्य है कि सितंबर 2022 तक, अडानी समूह भारत के सबसे बड़े धन प्राप्तकर्ताओं में से एक था। इसे आधिकारिक तौर पर एफडीआई के रूप में दर्ज किया गया था, और देश में जो आया उसका छह प्रतिशत अडानी को गया। 12 महीने की अवधि में समूह ने जो एफडीआई सूचीबद्ध की है वह $2.5 बिलियन है और इसमें से, $526 मिलियन अडानी परिवार से जुड़ी मॉरीशस की दो कंपनियों से आए हैं जबकि लगभग $2 बिलियन अबू धाबी की इंटरनेशनल होल्डिंग कंपनी से आए हैं। यह एफटी की रिपोर्ट का भाग है जिसे द टेलीग्राफ ने 13 अप्रैल को बताया है।

अडानी कंपनियों में अस्पष्ट विदेशी निवेश की पूरी सीमा इससे भी अधिक होगी। आधिकारिक एफडीआई आंकड़ों में न तो विदेशी पोर्टफोलियो निवेश शामिल हैं और न ही सूचीबद्ध कंपनियों में उनकी चुकता पूंजी के 10 प्रतिशत से कम के निवेश शामिल हैं। संघटन को एफडीआई की आपूर्ति करने वाली अधिकांश अपतटीय शेल कंपनियों को अडानी के ‘प्रवर्तक समूह’ के हिस्से के रूप में दिखाया गया है, जिसका अर्थ है कि वे अडानी या उनके निकट परिवार से करीब से जुड़े हुए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अपतटीय संस्थाओं की भूमिका पहले से ही एक ऐसे साम्राज्य की तरह है जहां सब कुछ दिखावे के लिए क्योंकि सम्राट ही अकेला शासक है। अडानी समूह की सैकड़ों सहायक कंपनियां हैं और हजारों संबंधित- लेनदेन का खुलासा किया गया है। इससे पूरे मामले में पारदर्शिता और कम हो जाती है। इतनी कि इसके बावजूद उसके शेयर कैसे बढ़े यह आश्चर्यजनक है।

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दूसरी ओर, एक दिलचस्प खुलासा है और वह यह कि, अडानी के अनुसार ये सारे लेन-देन हमारे खातों में पूरी तरह घोषित हैं और 2015 से चले आ रहे हैं। यही तो मुद्दा है। 2015 में कंपनी ने अगर एलान किया कि उसके पास विदेशी शेल कंपनी से निवेश आए हैं तो इसकी जांच होनी चाहिए थी। अगर इसमें कुछ गलत था तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। चुप रहना ही तो शिकायत है और इसीलिए गंभीर है कि 2015 में इसका खुलासा हुआ। चूंकि खुलासा किया जा चुका है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि सब ठीक है और यही मिलीभगत का संदेह पैदा करता है। यही नहीं, अडानी हिन्डनबर्ग के आरोपों से सख्ती से इनकार करते हैं पर यह बताने से मना कर दिया कि इतने बड़े अनुपात में विदेशी पैसे उन कंपनियों से क्यों आए हैं जिनके पैसे का अंतिम स्रोत स्पष्ट नहीं है।” यही राहुल गांधी का सवाल है।


अडानी समूह की कंपनियों और अकाउंटिंग का जाल

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संसद सत्र समाप्त हो गया। यह सब कैसे हुआ आप जानते हैं और क्यों हुआ यह भी किसी से छिपा नहीं है। अडानी समूह में विदेशी शेल कंपनियों के जरिए 20,000 करोड़ रुपए का निवेश हुआ है और यह पैसा किसका है यह सरकार बदल सकने वाला सवाल है। इसलिए जवाब नहीं है। इस मामले में फाइनेंशियल टाइम्स में खबर छपी तथा संसद सत्र खत्म होने के बाद अडानी समूह ने इसका खंडन कई पत्रकारों मीडिया संस्थानों को जारी कर दिया। इस आधार पर यहां के अखबारों में खबर छप गई कि 20,000 करोड़ रुपए अज्ञात स्रोत से आने की खबर गलत है। पर आज यहां के अखबारों में छपा है कि फाइनेंशियल टाइम्स ने अपनी खबर हटाने से मना कर दिया है। यानी उसका दावा है कि खबर सही है। तो मामला फिर उलझ गया है। क्या है यह मामला – समझना चाहें तो वीडियो देखिये 26 मिनट खर्चिये। मुझे जो समझ में आया वह यह कि अडानी समूह की कंपनियों और अकाउंटिंग का जाल इतना उलझा हुआ है कि उसे समझना मुश्किल है। और स्पष्टीकरण यह कि सब कुछ रिकार्ड में है 2015 से और यही लोचा है। 2015 से क्यों और जो रिकार्ड में नहीं है वह क्यों नहीं? यह उलझन इसलिए है कि पारदर्शिता नहीं है और यह सब अनुचित व अस्वाभाविक है। सरकार जांच कराए या नहीं, गड़बड़ी माने या न माने मामला तो दिलचस्प है ही और एक दिन कोई ना कोई करवट लेगा। देखें वीडियो –

https://youtu.be/qPUlX0FGdxs

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