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जीएसटी का सच (पार्ट 25 से 36 तक) : छोटे अखबारों पर डीएवीपी के जरिए जीएसटी की मार

जीएसटी से बेरोजगारी की कगार पर खड़े एक पत्रकार की डायरी

जीएसटी का सच (25) सरकार की डीएवीपी पॉलिसी 2016 और जीएसटी के कारण 90 फीसदी अखबार बंद होने की कगार पर हैं

संजय कुमार सिंह
[email protected]

जीएसटी से छोटे अखबार भी परेशान हैं। सरकारी विज्ञापनों पर आश्रित इन अखबारों को डीएवीपी (विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय) के जरिए विज्ञापन दिए जाते हैं। केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद डीएवीपी ने विज्ञापन जारी करने के नियमों में सख्ती लाई है और इससे कई प्रकाशन पहले से मुश्किल में हैं। अब उनपर जीएसटी का डंडा भी चल रहा है। खास बात यह है कि डीएवीपी 20 लाख से कम टर्नओवर वाले प्रकाशकों पर भी जीएसटी पंजीकरण कराने के लिए दबाव डाल रहा है। डीएवीपी का कहना है कि बिना जीएसटी में पंजीकृत हुए सरकारी विज्ञापन उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। दूसरी ओर, एक छोटी पत्रिका के संपादक के मुताबिक जनवरी 2017 से अब तक मात्र 250 सेंटीमीटर विज्ञापन दिया गया है, जिसकी कीमत सर्कुलेशन के आधार पर 1500 सौ से 5000 रुपये है। ऐसे में डीएवीपी जीएसटी को लेकर छोटे अखबारों से क्यों जबरदस्ती कर रहा है यह प्रकाशकों की समझ से बाहर है। वो भी तब जब उनका टर्नओवर ही ढाई-तीन लाख से दस-बारह लाख तक ही है, और इसकी सीए ऑडिट, वार्षिक विवरणी हर साल ऑनलाइन और फिजिकली डीएवीपी को भेजी जाती है।

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जीएसटी का सच (28) कंपोजिशन स्कीम के एक प्रतिशत का गणित

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संजय कुमार सिंह
[email protected]

आइए आज सामान्य कमाने-खाने वालों की अर्थव्यवस्था पर कंपोजिशन स्कीम के एक प्रतिशत का गणित समझें। आप मानेंगे कि जीएसटी अव्यावहारिक ही नहीं, असंभव भी है। जीएसटी लागू होने से पहले 10 लाख तक के कारोबार पर किसी पंजीकरण की जरूरत नहीं थी। जीएसटी में इसे 20 लाख कर दिया गया है। इससे आप इस छूट का महत्व समझ सकते हैं पर कई नए कारोबार और कारोबारियों को जीएसटी के दायरे में लाने के साथ कुछ खास किस्म के काम करने वालों के लिए जीएसटी पंजीकरण जरूरी कर दिया गया है। कंप्यूटर से काम करना और पेशेवर सलाह देना इसमें शामिल है। ये समाज का वो वर्ग है जो कमाता कम और सामाजिक कारणों से खर्च ज्यादा करने को मजबूर है और इसलिए हमेशा आर्थिक दबाव में रहता है। कहने की जरूरत नहीं है कि अंशकालिक सेवा प्रदाताओं और 10 लाख रुपए साल से कम का कारोबार करने वालों पर भी जीएसटी लागू है। आइए देखते हैं, 10 लाख रुपए साल का कारोबार करने वाला सबसे सुविधाजनक बताए जा रहे कंपोजिशन स्कीम का “लाभ” ले तो क्या होगा। नियम है कि ऐसे कारोबारी अपने ग्राहकों से टैक्स नहीं लेंगे और अपने कुल कारोबार का एक निश्चित प्रतिशत बतौर टैक्स अदा करेंगे।

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आइए देखें, अधिकतम 10 लाख रुपए प्रति वर्ष (इससे ज्यादा कारोबार वाले पहले से सर्विस टैक्स में पंजीकृत होंगे। इसलिए उनकी बात नहीं कर रहा) कमाने वाले के कारोबार का मतलब हुआ औसतन सात लाख रुपए प्रति वर्ष मुनाफा। इसपर आयकर / टीडीएस अलग है। मैं अभी उसकी चर्चा नहीं कर रहा। इसलिए मानकर चलिए कि खर्च के लिए उपलब्ध राशि और कम है। सात लाख रुपए साल का मतलब लगभग 60 हजार रुपए महीना। जीएसटी के जरिए सरकार चाहती है कि इस 60 हजार की कमाई में पहले जो आयकर लगता है उसके अलावा औसतन 80 हजार रुपए प्रति माह के टर्नओवर का एक प्रतिशत (कुछ मामलों में यह ज्यादा भी है और 2.5 प्रतिशत तक है) यानी लगभग आठ सौ रुपए जीएसटी दे दिया जाए। आय में किसी वृद्धि और मुद्रास्फीति की किसी कटौती के बिना। 60 हजार रुपए में से 52 बजार बचे इसमें तमाम सेवाओं पर 15 प्रतिशत से 18 प्रतिशत जीएसटी के ढाई-तीन प्रतिशत वैसे बढ़ा दीजिए।

अगर आप घर से ही कारोबार करते हैं (ऐसा बहुत कम होगा, फिर भी) तो औसतन 1500 वर्ग फीट के घर का दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा या गुड़गांव में आरडब्ल्यू का चार्ज डेढ़ रुपए प्रति वर्ग फीट औसतन के हिसाब से 2250 रुपए और इसपर 18 प्रतिशत जीएसटी 350 रुपए औसत मान लीजिए। ज्यादातर मामलों में आरडब्ल्यूए पर सर्विस टैक्स नहीं लग रहा था पर जीएसटी लागू होने के बाद से इसके सख्त नियमों के कारण इसकी वसूली शुरू हो गई है या इसका प्रावधान कर लिया जाना चाहिए। 60,000 रुपए महीने में से 2600 रुपए औऱ निकल गए जो नया खर्च है। इस तरह 10 लाख रुपए टर्न ओवर वाला अगर 60 हजार रुपए महीने कमाता है और इसमें अपना खर्चा चला रहा था तो उसपर करीब 4000 रुपए का नया खर्चा आ गया है।

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कहने के लिए कंपोजिशन स्कीम में जीएसटी एक प्रतिशत है लेकिन कुल प्रभाव ज्यादा है। अभी ऑफिस का खर्च नहीं जोड़ा है तब। जो अपने खर्च से कम कमाता है या जिसके खर्चे ज्यादा हैं वो क्या करे? इसी तरह अगर जीएसटी में पंजीकरण करवाकर ग्राहकों से टैक्स लिया जाए तो कागजी काम इतना ज्यादा है कि इसके लिए अंशकालिक अकाउंटैंट की सेवाएं लेनी पड़ेगी और उसका खर्चा 12,000 रुपए महीने से कम नहीं बैठेगा। इस बारे में मैं पहले लिख चुका हूं। क्या लगभग 60,000 रुपए महीने कमाने वाले के लिए 11-12 हजार रुपए प्रति माह का यह नया खर्चा उठाना संभव है? स्पष्ट है कि कंप्यूटर से इंटरनेट के जरिए एक-राज्य से दूसरे राज्य में काम करने वालों के लिए पंजीकरण की अनिवार्यता घातक है और अपंजीकृत सेवा प्रदाताओं से सेवा लेने वालों पर रीवर्स चार्ज मेकैनिज्म के तहत आपूर्तिकर्ता की जगह सेवा प्राप्तकर्ता पर टैक्स चुकाने का बोझ डालना अव्यावहारिक है। इसमें 5000 रुपए प्रतिदिन की सेवा को मुक्त रखने की छूट अंतरराज्यीय सेवा प्रदाता के लिए भी होनी चाहिए।

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