Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

विवाह संस्था के विरुद्ध स्त्री बोलती तो है लेकिन वह उससे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाती!

सुदीप्ति-

हंस साहित्योत्सव के तीसरे दिन हमारे समय की महत्वपूर्ण स्त्री कथाकारों के साथ ‘परंपरा और आधुनिकता के बीच की स्त्री’ विषय पर बातचीत थी। इस बातचीत की धारा कब और कैसे विवाह संस्था की ओर मुड़ गई यह मुझे ठीक-ठीक याद तो नहीं लेकिन लंबा हिस्सा विवाह और दांपत्य के बारे में बातचीत का रहा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मैं बाद में भी लंबे समय तक यह सोचती रही विवाह संस्था में ऐसा क्या है जो एक विवाहित स्त्री के लिए इतना दमघोंटू है कि वह उसके विरुद्ध बोलती तो है लेकिन फिर भी वह उससे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाती है? माना कि हमारे समाज में ज्यादातर स्त्रियाँ समाज, परिवार और पिता-भाइयों पर निर्भरता के कारण इससे मुक्त नहीं है। लेकिन अक्सर दिखता है कि आज की जो आत्मनिर्भर और स्वायत्त स्त्री है वह भी लंबे प्रेम संबंधों की परिणति विवाह में ही ढूंढती है। मैं ऐसे खुदमुख्तार स्त्रियों को जानती हूँ जो दो असफल विवाहों के बाद भी तीसरी बार कर लेती हैं। स्त्रियों की कौन कहे अक्सर समलैंगिक रिश्तो में वाले कपल भी भी कहीं ना कहीं विवाह करने की चाह से भरे दिखते हैं? इस संबंध या संस्था में ऐसा क्या है?

क्या मौजूद समय और समाज में यह भावनात्मक संबंधों की अंतिम परिणति का आखिरी विकल्प है इसलिए? या फिर वर्तमान में भी यह एक विकल्पहीन संस्था है इसलिए?
मनुष्य की स्थायित्व की चाह सतत है इसलिए या फिर वह व्यक्तिगत संपत्ति हस्तांतरित करने का ज़रिया है इसलिए?
जो भी है चाहे फोमो का दबाव हो चाहे परंपरा का स्वीकार भर जो इससे मुक्ति चाहते हैं वे भी इसके असर में ही हैं। अभी तो यही दिखता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस मसले पर क्यों, क्या और कब का जवाब मेरे पास नहीं। मैं कोई समाज-विज्ञानी भी नहीं, न मैंने कोई शोध किया, न मेरे पास किसी किस्म के आंकड़े हैं मैंने तो जो देखा है अपने आसपास उसी पर लिख रही हूं। आपका अनुभव दूसरा है तो आप बिना किसी कड़वाहट के साझा कर सकते हैं।

और रही बात की इस पर मेरी क्या राय है? तो जब मैं किसी चीज में शामिल हूं तो उससे तटस्थ/निरपेक्ष रहकर कैसे विचार व्यक्त कर सकती हूँ?

Advertisement. Scroll to continue reading.

मैं स्वयं विवाह संस्था के भीतर एक दांपत्य जीवन जी रही हूँ। और जहाँ तक दिखता है खुश भी हूँ।

तो ऐसे में बहुत मुश्किल है तटस्थ रहकर इस पर विचार व्यक्त करना। इसके खिलाफ लिखते हुए हिप्पोक्रेट लगूँगी हालांकि जीवन में आप सिर्फ अपना अनुभव नहीं देखते हैं। जो आसपास दिखता है वह भी आपके विचारों में शामिल होता है। और जो दिखता है वह बताता है कि इसमें सब कुछ सुंदर और उजला ही नहीं है। लेकिन फिर वही बात आती है कि क्या जिसमें सब कुछ सुंदर और उजला नहीं होता है उस सब कुछ को हम उखाड़कर फेंक तो नहीं देते हैं न? कोशिश करते हैं बेहतर और बेहतर करते जाने की। यह एक सतत प्रक्रिया है। गैरबराबरी से बराबरी की ओर जाने की।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement