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सुख-दुख

पत्रकार हत्यारे की भूमिका में कोई पहली बार नहीं आए हैं!

Premkumar Mani-

उत्तरप्रदेश में अतीक हत्या -काण्ड के बाद पत्रकारों के मामले में सरकारों को नये तरीके से विचार करने की जरूरत है. जिस तरह पत्रकार बन कर घटना को अंजाम दिया गया,वह हमारे लोकतान्त्रिक समाज के समक्ष आने वाली कुछ मुश्किलों को इंगित करती हैं. इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.

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पार्टी दफ्तरों , सरकारी महकमों और लोकसभा से लेकर विधान मंडलों के परिसरों में पत्रकारों की आवाजाही होती रहती है. मैंने देखा है कि नई तकनीक के विकास और विस्तार ने पत्रकारों की तादाद बेतहाशा बढ़ा दी है. कुछ साल पूर्व प्रेस -कॉन्फ्रेंस में प्रायः पंद्रह -बीस पत्रकार होते थे. आज छोटे नेताओं के प्रेस-कॉन्फ्रेंस में भी सौ -दो सौ पत्रकार जुट जाते हैं. मोबाइल फोन से ही जब सारा काम हो जाता है तो हर शहर में सैंकड़ों की संख्या में यू -ट्यूब चैनल चल रहे हैं. जिसे कोई काम नहीं मिल रहा,वह पत्रकार बन जाता है. इन पर निगरानी नहीं रखी गई ,तो आने वाले समय में जाने कितनी दुर्घटनाएं हो सकती हैं.

समस्या यह भी है कि इसे संभालने केलिए यदि कोई प्रेस-सुधार कानून बना तो इसका भी विरोध होगा. लेकिन आज न कल यह तो करना ही होगा. अन्यथा वास्तविक पत्रकार और नकली पत्रकार का भेद मिट जाएगा और मुश्किलें सच्चे और निष्ठावान पत्रकारों को झेलनी होंगी. सूचना विभाग को पत्रकारों केलिए नियमावली में संशोधन भी करना चाहिए कि कहीं प्रेस के माध्यम से कोई चौकड़ी तो विकसित नहीं की जा रही है. भाषा की मर्यादा और दूसरी नैतिकताओं केलिए भी आवश्यक निदेश-अनुदेश होने चाहिए.

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उत्तरप्रदेश के अतीक मामले में तीन गुंडों ने पत्रकार बन हिस्सा लिया. गौर करने की बात यह है कि मेरे जानते तीनों की उम्र ऐसी है,जिसमें इन्हें रिपोर्टर का प्रेस-कार्ड नहीं मिलना चाहिए. कैसे मिल गया ? एक की उम्र तो केवल अठारह साल है. उसके बारे में यह भी खबर छपी कि उसके माता-पिता की मृत्यु बीस साल पहले हो चुकी है! ” माता-पिता की मौत के दो साल बाद जन्मा ” यह देवदूत पत्रकार बन जाता है. ऐसे अराजक परिवेश में कुछ भी अनहोनी हो सकती है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे राजनेता इन बारीकियों पर नहीं ध्यान देकर एक अपराधी को मजहबी रूप देने में दिलचस्पी ले रहे हैं.

पत्रकार हत्यारे की भूमिका में कोई पहली बार नहीं आए हैं. गांधीजी का हत्यारा नाथूराम मूलतः एक पत्रकार था. राजीव गांधी हत्याकांड की साजिश रचने वाला शिवरासन भी पत्रकार था. एक अफगानिस्तानी नेता की तालिबानियों ने इंटरव्यू लेते समय हत्या कर दी थी. जहाँ तक मुझे स्मरण है उस मामले में कैमरा में ही बन्दूक लगा था. इसलिए उत्तरप्रदेश की इस घटना से सरकारों को सबक लेना चाहिए. पत्रकारों पर लगाम लगनी चाहिए. उनके कार्ड -पास बहुत जांच कर ही निर्गत होने चाहिए. राजनेताओं को भी किसी अनजाने और ऐरे-गैर पत्रकार के सामने नहीं आना चाहिए. यह नहीं हुआ तो आने वाले समय में वास्तविक पत्रकार ही खतरों में पड़ जाएंगे. कोई राजनेता किसी तेजस्वी पत्रकार को अपने संतरी से गोली मरवा देगा कि वह हत्या के इरादे से आया था. लोगों का क्या ;वे विश्वास भी कर लेंगे.

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