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सुप्रीम कोर्ट के इस Unjustice को ignore करना किसी के लिए भी असम्भव! इंडियन एक्सप्रेस की संपादकीय टिप्पणी देखें!

दया शंकर राय-

आज के इंडियन एक्सप्रेस में गांधीवादी हिमांशु कुमार के न्याय मांगने पर जेल और जुर्माना देने पर यह संपादकीय..! सुप्रीम कोर्ट में न्याय और संविधान को लेकर जरा भी शर्म और फ़िक्र बची हो तो अपने फैसले को सुधारते हुए मुँह छुपाने का अब भी उसके पास थोड़ा वक़्त है..!

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इस जरूरी संपादकीय का सार इस तरह है…

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए इस धारदार संपादकीय में कहा गया है कि यह निर्णय न्याय मांगने वालों को हतोत्साहित करने और राज्य के उस नजरिये को सुदृढ करने वाला है जो सवाल उठाने वालों और न्याय मांगने पहुंचे लोगों को ही किन्हीं अन्य हितों से संचालित मानता है। ऐसे में न्याय के हित में यह जरूरी हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट न्याय के पहरूए की अपनी अर्जित क्षवि को बरकरार रखे..!

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विजय शंकर सिंह-

दरवाज़े पर न्याय मांगने गए फरियादी को ही दंडित करना अन्याय है. जस्टिस भगवती ने जब जनहित याचिकाओं की परंपरा शुरू की थी तो, वह न्यायपालिका के क्षेत्र में एक नया प्रयोग था जिसका परिणाम न्याय और जन अधिकारों सहित अन्य क्षेत्रों में, उत्साहजनक और बेहतर रहा। पर अब सुप्रीम कोर्ट ने अपना पैटर्न बदल दिया है या राज्य ने उसकी स्वतंत्रता पर कुदृष्टि डालनी शुरू कर दी है, पर एक बात तो साफ है कि ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि, अदालत, राज्य के एक तंतु के रूप में परिवर्तित होते दिख रहा है। हिमांशु कुमार की याचिका पर आज के इंडियन एक्सप्रेस का यह संपादकीय पठनीय है। मैने हिंदी में अनुवाद करने की कोशिश की है उसे तो आप पढ़ ही रहे हैं, पर मेरे अनुवाद पर ही निर्भर न रहें, अखबार की पेपर कटिंग की फोटो भी पढ़ लें।

अन्याय

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याचिकाकर्ता को दंडित करने का सुप्रीम कोर्ट फैसला, इस मामले के जो भी मेरिट हो, अन्यायपूर्ण है। यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए एक, भयावह संकेत देता है।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 2009 में दंतेवाड़ा में माओवादी विरोधी अभियानों के दौरान छत्तीसगढ़ पुलिस और केंद्रीय बलों द्वारा कथित यातना और न्यायेतर हत्याओं की सीबीआई जांच की मांग की गई थी। जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने इसके बाद क्या किया? परेशान करने वाले प्रश्न। इसने मुख्य याचिकाकर्ता पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया। अदालत ने न केवल यह कहा कि जांच से यह संकेत मिले हैं कि, 17 सितंबर और 1 अक्टूबर 2009 को अलग-अलग घटनाओं में 17 लोगों की हत्या के लिए, सुरक्षा बल नहीं, बल्कि माओवादी जिम्मेदार थे। अदालत ने, याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार पर जुर्माना भी लगाया, जो दंतेवाड़ा में, एक एनजीओ चलाते हैं।

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अदालत द्वारा लगाया गया यह भारी जुर्माना उन सभी लोगों के लिए एक भयावह संकेत भी है, जो भविष्य में राज्य के खिलाफ, अपने कष्टों के लिए, एक याचिका दायर करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं। यह याचिकाओं को स्वीकार करने के अदालत के अपने ही दृष्टिकोण को, कहीं से भी, किसी भी रूप में, यहां तक ​​कि एक न्यायाधीश को संबोधित पोस्टकार्ड के रूप में या एक समाचार पत्र की रिपोर्ट के रूप में दी जा सकने वाली याचिका के मूल अधिकार को ही बदल देता है।

सच तो यह है अदालत में दायर एक जनहित याचिका का असर व्यापक होता है और उसका क्षेत्राधिकार, याचिकाकर्ता को अक्सर उस मामले के लिए प्रासंगिक बना देता है। क्योंकि अदालत जब उस मामले को अपने हाथ में लेती है तो, स्थानीय वकील आयुक्तों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति, तथ्यों की पड़ताल के लिए करती है, साथ ही, सत्य की खोज में उचित परिश्रम सुनिश्चित भी करती है। याचिकाकर्ता पर लगाए गए कठोर दंड इस में राज्य के रुख को भी, प्रतिध्वनित करता है और उन सभी लोगों के लिए, एक भयावह संकेत है, जो सवाल उठाते हैं, और जवाब मांगते हैं, न्याय चाहते हैं।

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दंतेवाड़ा मामले में याचिकाकर्ता पर जुर्माना लगाना, एक बदलते हुए न्यायिक पैटर्न का हिस्सा है। इसमें गुजरात 2002 के एक मामले में पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला भी शामिल है। इधर, शीर्ष अदालत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार को एसआईटी की क्लीन चिट को बरकरार रखा और राज्य के उच्च पदाधिकारियों द्वारा एक बड़ी साजिश के आरोपों को खारिज कर दिया। लेकिन अदालत यहीं नहीं रुकी, इसने याचिकाकर्ताओं के लिए सजा की बात भी कही। इसने उन लोगों को कटघरे में खड़ा कर दिया, जो अदालत के विचार में, “बर्तन को उबालते रहते हैं” (मामले को जिंदा रखते हैं) “स्पष्ट रूप से उल्टे डिजाइन के लिए” और, राज्य से यह आग्रह भी किया कि उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। जैसे कि, यह पहले से ही तय हो, मानवाधिकार कार्यकर्ता, तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात के पूर्व डीजी आरबी श्रीकुमार को अगले ही दिन गिरफ्तार कर लिया गया। प्राथमिकी भी, शीर्ष अदालत के फैसले से ही, बड़े पैमाने पर उद्धृत भी की गईं।

मामले के मेरिट, चाहे जो भी हों, इसके बावजूद, अदालत में यह मामला चाहे टिके या न टिके, याचिकाकर्ता को घेरना और दंडित करना अन्यायपूर्ण और अनुचित है। यह मूल रूप से, नागरिक और अदालत के बीच लोकतंत्र में बुनियादी समझौते का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट, व्यक्तिगत और मौलिक अधिकारों तथा, स्वतंत्रता का संरक्षक है और उन्हें राज्य द्वारा इन अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ जनता की रक्षा करनो चाहिए। लेकिन अदालत के हालिया दृष्टिकोण से पता चलता है कि, व्यक्तियों को नहीं, बल्कि राज्य को ही अदालती सुरक्षा की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट को, अपने दृष्टिकोण के, इस चिंताजनक बदलाव पर विचार करना चाहिए और संवैधानिक जांच और संतुलन के धारक के रूप में, कड़ी मेहनत से अर्जित प्रतिष्ठा को और अधिक हानि पहुंचे, इसके पहले इस पर रोक लगा देना चाहिए। हर याचिकाकर्ता जो राज्य के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाता है, उसकी बात सुनी जानी चाहिए, न कि उसे इस तरह से दंडित किया जाना चाहिए।

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~ इंडियन एक्सप्रेस.

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