रंगनाथ सिंह-
आज सुबह एक प्रौढ़ लेखक द्वारा एक 85 साल के बुजुर्ग लेखक काशीनाथ सिंह के लिए अपशब्द प्रयोग करने पर एक पोस्ट लिखी तो उसमें ‘दरियागंज की दलाली’ शब्द-युग्म का प्रयोग किया। एक मित्र को वह उपन्यास का शीर्षक बनाने के काबिल लगा। तब मुझे नहीं पता था कि उस भावी उपन्यास का एक अन्य अध्याय इंस्टाग्राम पर लिखा जा रहा है। मेरी पोस्ट पढ़ने के बाद एक अतिप्रिय मित्र ने अभिनेता-लेखक मानव कौल के इंस्टा पोस्ट का लिंक भेजा। मानव कौल की पोस्ट हिन्दी के एक दूसरे बुजुर्ग लेखक के बारे में थी। एक संयोग यह भी है कि इन दोनों लेखकों का जन्म एक जनवरी 1937 को हुआ था। दोनों ने अपने-अपने तरीके से हिन्दी को नया मुहावरा-शिल्प-शैली-कथ्य दिया। ये दूसरे लेखक हैं, हिन्दी को आधुनिक क्लासिक देने वाले, विनोद कुमार शुक्ल।
हिन्दी के दो सबसे बड़े प्रकाशकों राजकमल और वाणी ने उनकी कुल नौ किताबें छापी हैं। पिछले साल इन दोनों बड़े प्रकाशकों ने इन नौ किताबों की विनोद जी को कुल मिलाकर 14 हजार रुपये रॉयल्टी दी। मानव कौल की पोस्ट पब्लिश होने के बाद पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने विनोद कुमार शुक्ल से बात करके विस्तृत ब्योरा निकाला, जिसके अनुसार वाणी प्रकाशन ने विनोद जी को तीन किताबों का 25 साल में औसतन पाँच हजार रुपये प्रति वर्ष दिया है। राजकमल प्रकाशन ने विनोद जी की छह किताबों के लिए चार साल में औसतन 17 हजार रुपये प्रति वर्ष दिये हैं। यानी हिन्दी के सबसे सम्मानित लेखक को उसकी नौ किताबों से औसतन दो हजार रुपये महीने की भी रॉयल्टी नहीं मिलती!
चिल्लर रॉयल्टी तो एक बात है। विनोद जी के अनुसार प्रकाशक को वह कई पत्र लिख चुके हैं कि मेरी फलाँ किताबें मत छापो लेकिन वह मान नहीं रहा! प्रकाशक ने विनोद जी से कोई करार किये बिना उनकी किताबों का ईबुक बनाकर बेचना शुरू कर दिया!
कुछ साल पहले एक प्रकाशक ने किताब छापने को लेकर स्वदेश दीपक के परिजनों के संग अपमानजनक बरताव किया था। उसके पहले निर्मल वर्मा की मृत्यु पर उनकी पत्नी को पाँच हजार रुपये महीने रॉयल्टी देने का मामला आया था। उसके पहले, बाद और न जाने कितने और मामले आए-गए। हिन्दी लेखक का स्वाभिमान न जागा।
शुक्रिया मानव कौल का कि उन्होंने इस मामले को उजागर किया। वरना क्या दरियागंज के जिन दो बड़े प्रकाशकों का नाम आया है, उनके यहाँ उठने-बैठने-छपने वाले किसी ‘युवा लेखक’ को यह न पता चला होगा। हो सकता है, पता न चला हो। दरियागंज में लेखक बनाने के जो कारखाने चलते हैं, उनमें हुक्का भरने से फुर्सत मिले तब तो ऐसी बातें पता चलें।
हिन्दी के क्रान्तिकारी लेखक मोदी के खिलाफ लिख सकते हैं, योगी के खिलाफ लिख सकते हैं, ट्रम्प और पुतिन के खिलाफ लिख सकते हैं, जीवित-मृत मूर्धन्य लेखकों के खिलाफ लिख सकते हैं लेकिन उनके साहस की सीमा दरियागंज पहुँचते पहुँचते खत्म हो जाती है। वहाँ तक जाते जाते उनका कीबोर्ड जवाब दे जाता है। बड़े प्रकाशकों से जुड़ा मसला हो तो दिन-रात क्रान्ति फूँकने वाला उनका बिगुल पिपहरी की तरह भी नहीं बज पाता। विनोद कुमार शुक्ल के बहाने यह बात फिर प्रमाणित हो गयी।
आखिर इन कथित लेखकों को प्रकाशक ऐसा क्या देता है जिससे इनकी जबान को काठ मार जाता है? माइक-माला-मंच? और क्या? एक जमाने में दिन ढले का रसरंजन भी प्रकाशकों की खुशामद की प्रेरणा हुआ करता था लेकिन कोरोना काल में तो वह आकर्षण भी नहीं रहा। फिर क्यों?
जब विनोद कुमार शुक्ल की किताबों की कुल कमाई महीने की दो हजार नहीं आ रही तो बाकी उनसे दो, चार पाये नीचे के गल्प लेखकों का क्या हाल होगा, कहने की जरूरत नहीं। तो जाहिर है कि ये लेखक आर्थिक रूप से प्रकाशकों पर निर्भर नहीं हैं। फिर क्या वजह हो सकती है? किसी को पता हो तो जरूर बताये।
इनमें से कई जाली बातबीर दिन रात मीडिया के कुछ एंकरों को ट्रॉल करके खुद को खुद से क्रान्तिकारी घोषित करते रहते हैं। मीडिया के बदनाम एंकरों को उनके करे-धरे के बदले मोटी पगार मिलती है। हर महीने दो लाख, पाँच लाख, दस लाख, जिसकी जितनी लोकप्रियता उतनी कीमत। इन रणबाँकुरे लेखकों की चुप्पी तो महीने के डेढ़-दो हजार रुपये की भी नहीं पड़ रही।
खैर, एक सकारात्मक बदलाव जरूर हुआ है। पिछली बार जब एक प्रकाशक द्वारा लेखक के शोषण पर पोस्ट लिखी थी तो कुछ सस्ते पंटर (सौ-दो सौ वाले) यहाँ आकर मुझे ‘हिन्दी लिखना’ सिखाने लगे थे। अबकी बार ऐसा नहीं हुआ। खैर, अच्छा ही हुआ। इस बार मेरा भी मूड पहले से ज्यादा खराब है।
Dinesh fatehbadi
March 9, 2022 at 7:03 am
बिल्कुल सही लिखा है, इसे हिसाब जगह शेयर कर रहे है,कृपया आप भी पहल का हिस्सा बनें ,इंस्टाग्राम पर @TEAMPREMI की स्टोरी या recent post dekhe, अब वक्त आ चुका है साहित्य में क्रांति का
Dinesh fatehbadi
March 9, 2022 at 7:04 am
Hume yeh link send krdijiye
महेश दर्पण
March 9, 2022 at 7:55 pm
दुखद