आराधना मुक्ति-
इलाहाबाद में होली के आसपास के तीन-चार दिन हमें हॉस्टल में एक तरह से कैद रहना पड़ता था। हम कैम्पस तक में नहीं निकल सकते थे। मेस बंद रहता था तो रूखी-सूखी ब्रेड या तहरी खाकर काम चलाते थे।
बाहर लड़के तीन दिन तक होली के हुड़दंग में मस्ती करते थे। वीमेंस हॉस्टल के बाहर आकर लड़कियों को गाली देते थे। इलाहाबाद की कुर्ताफाड़ होली बहुत लोकप्रिय है, लेकिन सिर्फ़ पुरुषों में। औरतों को उसका अनुभव नहीं होता। वे बस आसपड़ोस में रंग खेल लेती थीं। हम भी हॉस्टल के अन्दर आज़ाद थे कुछ भी करने के लिए। होली के आसपास की बाहर की दुनिया अनजानी होती थी हमारे लिए।
दिल्ली आकर इस बात से राहत मिली कि कम से कम होली के दिन बाहर निकलकर माहौल तो देख सकते हैं। कभी-कभी रंग खेल लेते थे। लेकिन इस बार सारा दिन कमरे में बंद रहे। पहले त्योहार में अकेले रहने पर दुःख होता था, रोना आता था। कल बहुत गुस्सा आया। एक ओर लड़के होली के दिन ड्रिंक करके जय श्रीराम और भारतमाता की जय के नारे लगा रहे थे, दूसरी ओर होली के कारण हम महिला दिवस नहीं मना पाये।
क्या विडम्बना है कि ठीक महिला दिवस को ऐसा त्योहार पड़ा जिसमें अकेली महिलाएँ घर से बाहर नहीं निकल सकतीं।