बालेन्दु गोस्वामी-
ऐसा नहीं है कि मैं बगैर जाने ईश्वर को काल्पनिक कहता हूँ!
खूब अच्छी तरह जान समझकर और जीवन का एक लम्बा समय इस झूठी कल्पना पर बर्बाद करने के बाद कहता हूँ!
निश्चित रूप से ईश्वर नामक धोखे की असलियत जानता हूँ (यह अहंकार नहीं अनुभव की बात है) 30 से भी अधिक वर्ष धर्म-ग्रंथों के अध्ययन में बिताकर तब नास्तिक हुआ हूँ और उस विषय में नहीं बोलता जिसमें जानकारी नहीं हो!
आस्तिकों को कई बार देखा है कि वो अधिकांशतः कन्फ्यूज रहते हैं!
वह ईश्वर, जिसके लिए उनके ही धर्म-ग्रंथों में लिखा है कि “वह परमात्मा बोधगम्य नहीं है, मन बुद्धि और इन्द्रियों तथा तर्क से भी परे है”, उसके अस्तित्व को भी तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रयास करते हैं!
यानी कि अपने ही धर्म-शास्त्रों की बात नहीं मानते!
ठीक है यदि आप ईश्वर को मानते हैं तो मानते रहिये परन्तु कुतर्कों के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के प्रयास में व्यर्थ ही किसी का समय तो न जाया करिए!
ईश्वर मानने की चीज है बस माने रहिये जादा अकल खर्च करने की जरुरत नहीं है!
आस्तिक व्यक्ति ऐसा नहीं है कि तर्क नहीं समझता परन्तु बचपन से ही उसके अवचेतन ही नहीं बल्कि अर्धचेतन अथवा अविकसितचेतन मन में भय और लालच से ओतप्रोत जिस आस्था का निर्माण किया जाता है उसके चलते वो कहता है कि “पंचों की बात सिर माथे पर खूँटा यहीं गढ़ेगा” 🙂
वैसे आप यह न समझिएगा कि मैं यहाँ किसी को भी नास्तिक बनाने का प्रयास कर रहा हूँ!
मेरे लिए नास्तिकता एक अनुभव है जोकि किसी दूसरे के कहने से नहीं बल्कि तभी प्रत्यक्ष होती है जबकि व्यक्ति स्वयं आस्तिकता के उस भ्रम और झूठ के आवरण से मुक्त होने के लिए सत्य संकल्पित हो जोकि पैदा होने के समय से ही बिना उसकी इच्छा के उस पर मढ़कर उसे हिन्दू, मुसलमान इत्यादि बना दिया गया था!