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भोंपू को अख़बार न कहो प्रियदर्शन… जागरण कोई अख़बार है! : विमल कुमार

Vimal Kumar : दो साल की सज़ा या जुर्माना या दोनों एक साथ का प्रावधान है। ये लोग अदालत को मैनेज कर केवल जुर्माना देकर बच जाएंगे। जिसने विज्ञापन दिया उसे भी जेल की सजा हो। जागरण कोई अख़बार है, भोंपू को अख़बार न कहो प्रियदर्शन!

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Vimal Kumar : दो साल की सज़ा या जुर्माना या दोनों एक साथ का प्रावधान है। ये लोग अदालत को मैनेज कर केवल जुर्माना देकर बच जाएंगे। जिसने विज्ञापन दिया उसे भी जेल की सजा हो। जागरण कोई अख़बार है, भोंपू को अख़बार न कहो प्रियदर्शन!

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Maheruddin Khan : नेता तो किसी न किसी मामले में गिरफ्तार होते ही रहते हैं… एकाध सम्पादक को भी गिरफ्तार होने दो भाई। और एक पाले खड़े हो जाओ। यह नहीं चलेगा कि सम्पादक ने जो किया उसका समर्थन नहीं करते और गिरफ्तारी का विरोध करते हैं।

Dilip Khan : रत्ती भर भी असहमत नहीं हूं चुनाव आयोग के रुख से। क्राइम किया है। सज़ा मिलनी चाहिए। इसमें भागीदार बिग प्लेयर्स को भी सज़ा होनी चाहिए। क़ानून तोड़ने का ये हल्का मामला नहीं है बल्कि डेमोक्रेटिक तरीके से हो रहे चुनाव को प्रभावित करने का मामला है। उमलेश यादव केस में भी ये अख़बार बच गया था। अगर 2011 में ही इस पर कार्रवाई हो जाती तो फिर से ग़लती रिपीट नहीं करता। लेकिन प्रेस काउंसिल के पास नोटिस देने के अलावा और कोई पावर ही नहीं है। इस बार आचार संहिता के दौरान क्राइम किया है इसलिए सज़ा होनी चाहिए। पत्रकारिता के वृहत्तर लाभ के लिए मैं इस कार्रवाई के साथ हूं।

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वरिष्ठ पत्रकार विमल कुमार, मेहरुद्दीन खान और दिलीप खान ने उपरोक्त टिप्पणियां एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार प्रिय दर्शन की जिस पोस्ट पर की है, वह इस प्रकार है :

Priya Darshan : मीडिया संपादक पवित्र गाय या कानून से ऊपर नहीं हो सकते। जो जुर्म जैसा है, उसकी वैसी ही सज़ा होनी चाहिए। एक साथी ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि जागरण ने अपने सैकड़ों कर्मचारियों को मजीठिया के लाभ नहीं दिए और उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया। एक अन्य साथी ने बाबरी मस्जिद के दिनों में अखबार की तथ्यहीन रिपोर्टिंग की याद दिलाई। बेशक, इन सबकी लड़ाई लड़ी जानी चाहिए। इसलिए यह कहना जरूरी है कि यह पोस्ट जागरण के पक्ष में नहीं है। चुनाव आयोग के निर्देश के विरुद्ध एग्जिट पोल छापना अनुचित था- इस लिहाज से और ज़्यादा कि वह संस्थान के मुताबिक विज्ञापन यानी ‘पेड न्यूज’ था। लेकिन यह पूरा मामला मीडिया के और भी संकटों को उजागर करता है। १५ एफआइआर कराने और संपादक को गिरफ्तार करने का फ़ैसला कुछ ज़्यादा सख्त है- याद दिलाता हुआ कि व्यवस्थाएं जब चाहती हैं, मीडिया को उसकी हैसियत बता देती हैं। जो लोग शिकायत या गुमान करते हैं कि मीडिया बहुत ताकतवर है, वे देख सकते हैं कि एक गलती पर किस तरह उसकी बांहें मरोड़ी जा सकती हैं। जो लोग मीडिया पर नियंत्रण के लिए और कानूनों की ज़रूरत बताते हैं, उनको समझना चाहिए कि इस देश में मीडिया के खिलाफ कई कानून हैं, मगर मीडिया के लिए अलग से एक भी नहीं। जिस आजादी का मीडिया इस्तेमाल करता है, वह उसे कानूनों से नहीं, इस देश की उदार परंपरा से और विभिन्न मोर्चों पर अपने विश्वसनीय संघर्षों से मिली है। चिंता की बात बस यह है कि आज इस परंपरा पर भी चोट की जा रही है और मीडिया की विश्वसनीयता पर भी खरोंच पड़ी है।

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प्रिय दर्शन की उपरोक्त पोस्ट पर आईं कुछ अन्य टिप्पणियां इस प्रकार हैं :

Mangalesh Dabral यह फैसला कोई सख्त नहीं है. अखबार और हिंदी का तथाकथित सबसे बड़ा अखबार होने के नाते उतनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी का बोध अनिवार्य होना होता है. क्या वे नादान, अनपढ़ गरीब थे जिन्हें नियमों के बारे में नहीं भी मालूम हो सकता है. या जानबूझकर नियमों को धता बताने वाले राजनीतिक माफिया? आपको याद होगा, अयोध्या में बाबरी विध्वंस से कुछ दिन पहले हुई परिक्रमा और कार सेवा के दौरान गोली चली जिसमें चार-पाच लोगों के मारे जाने की अपुष्ट खबर आयी. हिंदी के एक अखबार के डाक संस्करण में यह संख्या छपी, फिर दूसरा ‘कारसेवक’ प्रभारी आया तो उसका यह संख्या देखकर मन नहीं भरा और उसने एक शून्य बढ़ा कर पचास मृतक बता दिए, फिर जब नगर संस्करण आया तो उसमें प्रभारी महोदय ने इसमें एक शून्य और जोड़कर मृतकों की संख्या पांच सौ कर दी.मकसद था तनाव, वैमनस्य और अंततः दंगा भड़काना. क्या यह पत्रकारिता है? यह विवरण महान कवी रघुवीर सही की उस रपट में दर्ज है जो उन्होंने प्रेस कौंसिल के निवेदन पर फैक्ट फाइंडिंग ईम के रूप- में लिखी थी.

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Abhiranjan Kumar सर, बात आपकी भी सही है। लेकिन समस्या यह है कि चुनाव में हर रोज़ बड़े नेता जाति और धर्म के नाम पर वोट मांग रहे हैं, जो सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले के मुताबिक भी अनुचित है, लेकिन चुनाव आयोग उन नेताओं को जेल में नहीं डाल रहा। आचार संहिता उल्लंघन में फंस गया एक संपादक, जिससे ग़लती तो ज़रूर हुई, लेकिन मेरी राय में उसका सिर्फ़ कंधा रहा होगा, बंदूक किसी और की रही होगी, जिसे दुनिया “मालिक” कहती है।

एक लक्ष्मण-रेखा तो सबके लिए होनी ही चाहिए। नेता, अभिनेता, ब्यूरोक्रैट, बिजनेसमैन… इन सबसे ज़रा-सी चूक हुई नहीं कि हम लोग उन्हें फ़ौरन कानून के चंगुल में देखना चाहते हैं, लेकिन अपनी ग़लतियों पर हम आज़ादी की दुहाई देने लगते हैं। इस मामले में संबंधित संपादक पर अधिक सख्ती हो गई, यह मानने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन फिर यह सवाल भी उठेगा कि क्या एक टीवी चैनल के संपादक पर भी अधिक सख्ती हो गई थी, जिन्हें शायद महीना भर या उससे भी अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा था? अनजाने में या अनभिज्ञता में किसी से भी ग़लती हो सकती है… हमसे भी और आपसे भी… पर जो ग़लतियां मीडिया के द्वारा इन दिनों जान-बूझकर की जाती हैं, क्या उनके प्रति भी हमें उतना ही सहिष्णु रहना चाहिए? ये कुछ सवाल उठाते हुए भी मोटे तौर पर मैं आपकी मूल भावना के साथ हूं। अगर पेड न्यूज़ का मामला है तो संपादक को नहीं, मालिक को जेल होनी चाहिए। कोई संपादक अपनी मर्ज़ी से पेड न्यूज़ छाप ही नहीं सकता। उस पर मालिकों का दबाव रहता है, इसलिए उसे ऐसे अनैतिक काम करने पड़ते हैं। अक्सर हमारी व्यवस्था गोली चलाने वालों को फांसी दे देती है, लेकिन गोली चलवाने वाले को सबूतों के अभाव में बरी कर देते हैं। कई बार बरी कर देना तो दूर, उनके गिरेबान तक हाथ तक नहीं पहुंच पाते और आप जो “पवित्र गाय” शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह वही “पवित्र गाय” बने रहते हैं।

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Ajeet Singh जहां कहीं भी सांप्रदायिक तनाव या विवाद होता है, वहां दैनिक जागरण की रिपोर्टिंग देखिए। ये एग्जिट पोल वाली ग़लती छोटी लगने लगेगी। केस स्टडी के तौर पर मुज़फ्फरनगर दंगों को ले सकते हैं। बहरहाल, इस मामले में अकेले संपादक को दोषी मानना सही नहीं है। किसी पार्टी या विचारधारा का मुखपत्र होना अपराध नहीं है। लेकिन जागरण या कई अन्य मीडिया समूह विश्वास और उदारता की परंपरा के साथ जो खिलवाड़ कर रहे हैं, वह कहीं ज्यादा खतरनाक है।

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Aflatoon Afloo CrPC की धारा 144 का उल्लंघन करने पर IPC की धारा 188 के अन्तर्गत सजा होती है। अधिकतर उसी दिन कोर्ट उठने तक की और अधिकतम हफ्ता भर की।मेरी स्पष्ट मान्यता है कि उन्हें झूठ बोलने की भी आजादी है।उसके साथ यदि उससे देश का कोई कानून टूटता हो तो उसे कबूलना भी चाहिए। अधिकतम दो साल की सजा के प्रावधान की पूरी सजा कितनो को मिली है यह जानने लायक है।

Mahesh Punetha मेरा मानना है कि संपादक से पहले अखबार पर कार्यवाही होनी चाहिए. संपादक तो बेचारा है, मालिक जैसा कहे उसे वैसा करना है.

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Ramesh Parashar ये व्यापारियों और चाटुकारों का दौर है! मीडिया इस गंदगी मे निर्लज्जता की हद तक लोट लगा रहा है! सामाजिक ज़िम्मेदारी या राष्ट्रीय हित जैसी बातें उसके लिये बेमानी हैं? चारण भांड की भूमिका से भी उसे परहेज़ नहीं? सियासत ने अपनी गंदगी से उसे भी नहला दिया! लोगों का भरोसा भी अब उस पर नहीं! वैसे ‘ जागरण ‘ पर पार्टी विशेष का ठप्पा तो वर्षों से है, निष्पक्ष तो रह नहीं गया?

Jeevesh Prabhakar चुनाव संपन्न होने यानि 11 मार्च तक अखबार के प्रकाशन पर रोक लगा दो…चूलें हिल जायेंगी ….विज्ञापन विभाग तो बहाना है….. बिना मालिक की अनुमति के ऐसा कर पाना संभव ही नहीं है…. मालिक को भी जेल होनी चाहिए…

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पूरे मामले को जानने-समझने के लिए नीचे दिए शीर्षकों पर क्लिक करें :

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