सीधे लफ़्ज़ों में आपके बता दूँ कि जनसत्ता अखबार की वेबसाइट में छपी उपरोक्त ख़बर फेक है। कोरी अफ़वाह है। लेकिन, दुख है कि इस न्यूज़ पोर्टल ने सारा कांड होने जाने के बाद इसे अपने पेज से डिलीट किया।
लोगों के जज़्बे का चीर-हरण करके ये पोर्टल कल को माफ़ी भी माँग ले, लेकिन अफ़वाह-गैंग को जो इसने खुराक दे दी है, वह माफ़ी लायक़ बिल्कुल नहीं है। जब ख़बरों को बिना तफ्तीश के प्रकाशित किया जाए और मंसूबा केवल हिट लाने का हो तो ऐसे ‘पाप’ होंगे ही।
यह काम किसी छोटे-मोटे संस्थान ने किया होता तो मामला इतना तूल नहीं पकड़ता। मसला तो ये है कि जनसत्ता जैसे संस्थान ने ये किया है। लोग इसी बात का हवाला देकर अफ़वाह पेल रहे हैं। लेकिन, मैं अपने भद्र तथा ‘अभद्र’ साथियों को बता दूँ कि जनसत्ता अब वो संस्थान नहीं है। निजी अनुभव से बता रहा हूँ। संपादकीय के नाम पर सिर्फ़ हिट लाना मक़सद है।
बिना तफ्तीश के ख़बरें पेलने का प्रचलन है। मसला ये है कि संपादक चिरकुट तो ख़बरें भी चिरकुट। लिहाज़ा, इसे पत्रकारिता का फैंटम मानने की भूल बिल्कुल मत कीजिए। यह वो “न्यूज़ फ़ैक्टरी” है जहाँ पर पत्रकार नहीं, बल्कि एक दिन में 10 ख़बरें लिखने वाले कॉपी राइटर हैं।
आख़िर में —- याद है आप लोगों को वो उमा खुराना केस? एक चैनल ने एक स्कूल प्रिंसिपल का फेंक स्टिंग किया था। आरोप लगा कि स्कूल प्रिंसिपल बच्चियों से धंधा कराती हैं। स्टिंग ऑन-एयर होते ही लोगों ने प्रिंसिपल को बुरी तरह पीटा था।
बाद में साफ़ हुआ कि स्टिंग फ़र्ज़ी था। चैनल एक महीने के लिए बंद भी हुआ। आज वह प्रिंसिपल कहाँ हैं ? किस हालत में हैं? यह किसी को नहीं पता। हाँ, लेकिन उन्हें बदनाम करने वाला संपादक आज बड़े संस्थान का संपादक है और अब फेक न्यूज़ बनवाने का कारोबार बड़े स्तर पर कर रहा है।
सवाल- क्या जनसत्ता शाहीन बाग़ में बैठी माताओं और बहनों से सार्वजनिक तौर पर माफ़ी माँगेगा? या चुपके से ख़बर डिलीट करके हर बार कि तरह बच निकलेगा?
वेब जर्नलिस्ट अमृत तिवारी की एफबी वॉल से.