विमल मिश्र-
पत्रकार जो मुंबई विश्वविद्यालय का ‘वाइस चांसलर’ बना… इमरजेंसी के बाद के दिन। पूरा मुंबई विश्वविद्यालय फीस वृद्धि और विभिन्न छात्र मुद्दों को लेकर दहक रहा था। इसी हंगामी समय में एक दिन छात्र समुदाय ने वाइस चांसलर को अलग-थलग कर खुद को विश्वविद्यालय परिसर में बंद किया और अपने ही एक नेता को ‘वाइस चांसलर’ नियुक्त कर उनकी कुर्सी पर ला बिठाया। यह छात्र नेता थे सरोज त्रिपाठी। गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के एक छात्र। इसका खामियाजा सरोज त्रिपाठी को आजीवन भुगतना पड़ा। विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी सारी डिग्रियां जब्त कर लीं और फरमान जारी किया कि वे आइंदा विश्वविद्यालय में पढ़ नहीं सकेंगे। सरोज जी को मजबूरन कानून की अपनी डिग्री पुणे विश्वविद्यालय से लेनी पड़ी।
दीगर बात है, सरोज जी ने न सिर्फ उसी मुंबई विश्वविद्यालय में पढ़ाया- जिसने उन्हें बैन किया था – बल्कि उसके विख्यात गरवारे इंस्टिट्यूट में – उसके हिंदी पत्रकारिता कोर्स के प्रमुख भी बने। मित्रों से घिरे, मन की मौज आने पर वे अब भी यह बताया करते थे, ‘मैं अब भी वाइस चांसलर हूं, क्योंकि जिस कमिटी ने मेरी नियुक्ति की, उसने मेरे कार्यकाल के बारे में नहीं बताया है।’
नवभारत टाइम्स, मुंबई में यह उदासियों का दौर है। कुछ महीने पहले कैंसर से कैलाश सेंगर के अलविदा कह देने के बाद आज सुबह सरोज त्रिपाठी की बलि कोरोना ने ले ली है। पिछले महीनों में पहले वे डेंगू का निशाना बने, फिर कोरोना के। पहले मीरा रोड के टेंभा कोविड सेंटर और फिर वोक्हार्ट हॉस्पिटल में 150 हॉर्ट बीट और 50 /30 ब्लड प्रेशर पर भी उन्होंने अंतिम दम तक संघर्ष किया। पर प्रभु की इच्छा कुछ और ही थी।
‘नवभारत टाइम्स’ से सात वर्ष पहले रिटायर हुए। सरोज जी जर्नलिस्ट थे, पर उसके भी पहले ऐक्टिविस्ट। सिद्धांतों के गजब के हामी – एक बार अड़ जाने के बाद उन्हें टेक से विरत करना असंभव जैसा था, चाहे सामने कोई भी हो। उनके इस मिजाज का मुझे कई बार भान हुआ। मैं उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ में सिटी एडिटर था और वे न्यूज डेस्क पर। एक देर रात हम दोनों नाइट ड्यूटी खत्म कर सीएसटी स्टेशन के ठीक सामने टाइम्स ऑफ इंडिया की आइकोनिक बिल्डिंग से हिमालय ब्रिज (26 /11 आतंकवादी हमले के दौरान कसाब के खुंख्वार फोटो के लिए विश्वप्रसिद्ध) चढ़कर नीचे प्लेटफार्म पर खड़ी लोकल ट्रेन में जा बैठे। बेभानी में ध्यान में ही नहीं रहा कि यह तो लेडीज कोच है। भायखला स्टेशन पर रेलवे पुलिस ने हमें निकाल बाहर किया। रेलवे सिपाही ने बाद में हमारे आई कार्ड देखे तो पत्रकार जानकर हमें छोड़ देने को उद्यत हो गया, और सरोज जी इस बात पर कि हमसे गलती हुई है, हमसे जुर्माना लो, या गिरफ्तार कर लो।
सरोज जी जनवादी लेखक संघ और सीपीएम (माओवादी -लेनिनवादी) जैसे संगठनों से भी जुड़े। विचारधाराओं से मोहभंग हो जाने के बाद वे पत्रकारिता से जुड़े और फिर पत्रकारिता अध्यापन से। उपभोक्ताओं के मुद्दों पर वर्षों चले अपने साप्ताहिक स्तंभ से उन्होंने कितनों को ही इन्साफ दिलाया। ‘मुल्ला ऐंड मुल्ला’ और ‘धानुकाज़ ऐंड सिंघवीज़’ जैसी मुंबई की जानी-मानी लॉ फर्मों में काम के अनुभव और वर्षों मुंबई हाई कोर्ट की रिपोर्टिंग से कानून की बारीकियों का उनका यह ज्ञान ‘नवभारत टाइम्स’ और अन्यत्र उनके मित्रों के हमेशा काम आता रहा।
शांत, सरल, सादे व सहज व्यक्तित्व के धनी, पत्रकारिता के आदर्श शिक्षक, विचारक, अभ्यासक, लेखक और वेतन का बड़ा हिस्सा पुस्तकों पर खर्च करने वाले गजब के पढ़ाकू – सरोज जी सिविल राइट्स से लेकर उपभोक्ता आंदोलन तक से जुड़े। अपने सारे संस्कार उन्होंने अपने पिता और वर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रधानमंत्री प्रो. अनंतराम त्रिपाठी से पाए थे, तीन महीने पहले जिनके आकस्मिक निधन ने उन्हें हिला दिया था।
सरोज जी से जुड़ी कई और व्यक्तिगत यादें हैं। उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय के गरवारे पत्रकारिता संस्थान में मुझे कई बार गेस्ट लेक्चरर बनाया और उसके चयन और परीक्षक पैनलों में रखा। उनका हमेशा आग्रह रहा कि मैं अपने लेखों को अपनी दूसरी पुस्तक का रूप दूं। एक दिन एक सादा कागज लेकर ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखकर उन्होंने मुझसे इसका प्रण भी करा लिया। अब यह अफसोस हमेशा रहेगा कि उनके जीते-जी यह प्रण पूरा नहीं कर सका।
अपने क्रांतिकारी विचारों और जनहित लेखन में सरोज जी जितने मुखर थे व्यक्तिगत जीवन में उतने ही अंतर्मुखी। उनके अभिन्न मित्र भी उनके पारिवारिक जीवन के बारे में जानने का दावा नहीं कर सकते। सबसे अधिक परहेज उन्हें पुरस्कारों और प्रचार से था। इसके लिए उन्होंने प्रमोशन भी ठुकरा दिया था। अगर उन्हें यह पता होते उनके निधन पर मैं यह शोक लेख लिखूंगा तो वे मेरा हाथ पकड़ कर रोक लेते।
… अपनी विद्वता व सिद्धांतों की अडिगता के अलावा हर जगह फैले अपने मित्र और शिष्य वर्ग के साथ अपनी सादगी और निश्चल मुसकान के साथ हमेशा याद आएंगे आप सरोज जी …।