मनोज अभिज्ञान-
कड़वा है, लेकिन सच है! एलएलबी कर रहे किसी भी स्टुडेंट से पूछिए कि वह आगे क्या करना चाहता है? विरला ही कोई होगा जो कहेगा कि कोर्ट में प्रैक्टिस करना चाहता है। आप किसी भी लॉ कॉलेज जाकर इसकी तस्दीक़ कर सकते हैं। बेशक इस मामले में वो लोग अपवाद हैं जिनके परिवार से कोई न कोई सदस्य पहले से प्रैक्टिस कर रहा होता है।
लॉ करने के बाद तमाम क्षेत्रों में हाथ पांव मारने के बाद जब कहीं मामला नहीं बन पाता तब एलएलबी पास स्टूडेंट कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर देता है। हायर ज्यूडिशियरी के लिए जजों की नियुक्ति इन्हीं थके हारे और हर जगह से नाकाम होकर कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू करने वालों के बीच से कोलेजियम सिस्टम के तहत की जाती है। न कोई परीक्षा, न कोई इंटरव्यू।
अब ऐसे में आप समझ सकते हैं कि ज्यूडिशियरी में शीर्ष पदों पर जो लोग पहुंचते हैं और उनका अध्ययन कितना गहरा होता है। वे कोलेजियम सिस्टम के प्रोडक्ट होते हैं। इस तरह जुगाड़ से बने जज ही ऐसे फैसले देते हैं जिनके अनुसार गाय ऑक्सीजन छोड़ती है, मोर के आंसू से बच्चा पैदा होता है, बच्चे खुद ही तलवारों पर गिर पड़ते हैं कटने को और वार एंड पीस जैसी युद्धविरोधी रचना खतरनाक किताब बन जाती है।
डिस्क्लेमर : लेखक स्वयं अधिवक्ता हैं और अपने सहयोगियों के बीच इस पोस्ट के लिए सालों पहले ही लानत मिल चुकी है। इन सबके बावजूद लेखक का मानना है कि देश में यही एकमात्र पेशा ऐसा पेशा है जिसमें सबसे अधिक स्वतंत्रता और फ्लेक्सिबिलिटी के साथ साथ सिस्टम के किसी भी हिस्से से लड़ने की क्षमता होती है। पोस्ट का आशय महज़ इतना है कि लोकतंत्र के इस स्तंभ में आमूलचल बदलाव हो।
Hem
June 21, 2022 at 9:35 am
बिलकुल सटीक विश्लेषण. जज को हमने गूगल पर एक्ट को सर्च करते देखा है!