रीवा सिंह-
लॉकडाउन में एक निहायत ही घटिया फ़िल्म देखने का अवसर प्राप्त हुआ। फ़िल्म थी – राजा की आयेगी बारात। नाम सुन रखा था तो देख लिया और जैसे-जैसे देखती गयी फ़िल्म के सभी पात्रों, कलाकारों व निर्देशक पर तरस आने लगा। एक लड़की के बलात्कारी को रिहाई मिल जाती है क्योंकि वह लड़की से विवाह करने को तैयार हो जाता है। लड़की इसे ही तराज़ू का सर्वोचित इंसाफ़ मानती है और बाद में ‘भला है बुरा है मेरा पति मेरा देवता है…’ के तर्ज़ पर उस बलात्कारी पति के लिये समर्पित रहती है। एक लड़की के शारीरिक व मानसिक शोषण व उत्पीड़न का इससे अधिक महिमामंडन नहीं हो सकता था।
मुझे याद नहीं कि सन् 1997 में जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी लेकिन अचंभा हुआ कि लेखक-निर्देशक सहित एक पूरी टीम ऐसे उत्पीड़न का महिमामंडन कैसे कर सकते हैं। कोर्ट ने संज्ञान क्यों नहीं लिया!
कल, 24 वर्ष बाद कोर्ट ने ऐसे ही एक केस पर संज्ञान लिया और उनका इंसाफ़ का तराज़ू जिस तरह हिंडोला बनकर लगातार गर्त में जा रहा है उसके लिये, माननीय सुप्रीम कोर्ट बधाई की पात्र है। विधायिका और कार्यपालिका से निराश होकर नागरिक न्यायपालिका का रुख करते हैं लेकिन न्यायपालिका के लोग अगर ख़ुद राज्यसभा पहुँचने की होड़ में हों तो ऐसे चौपट राज्य में नगरी का अँधेर होना सुनिश्चित है।
अपने विरुद्ध सुनना सुप्रीम कोर्ट को नागवार होगा और कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट माना जाएगा इसलिए माननीय सुप्रीम कोर्ट और माननीय मुख्य न्यायाधीश को मेरी और अपनी ओर से जितना सम्मान देना हो दे लें लेकिन उनकी कर्मण्यता उन्हें माननीय नहीं रहने देती। एक नाबालिग के बलात्कार के आरोपी से जस्टिस बोबड़े ने पूछा कि क्या वह पीड़िता से विवाह करेगा? क्योंकि उसकी सरकारी नौकरी बचाने का एकमात्र तरीका यही है कि उसपर चार्ज न लगाये जाएं। भीमराव अंबेडकर, राजेंद्र प्रसाद और समूची कॉन्स्टिट्युएंट एसेंबली आज होती तो ढूंढती रह जाती कि संविधान में इस तरह के न्याय का ज़िक्र कहाँ है। कल मैंने आईपीसी की किताबें उलट-पलट लीं यह देखने को कि बलात्कारी से विवाह करना न्यायोचित कैसे है। इसके बाद मिस्टर बोबड़े कहते हैं कि – यही एकमात्र विकल्प है, सोच लो। तुम्हें बलात्कार करने से पहले सोचना था कि तुम्हारी नौकरी जा सकती है। यह न समझना कि हम दबाव डाल रहे हैं।
इस दौरान लड़की से पूछा भी नहीं जाता कि उसे विवाह करना है या नहीं तो मुझे याद आ जाते हैं विश्व के वे तमाम सदन जहाँ महिला-विषयक विधेयक लाये गये, चर्चे होते रहे और सदन से महिलाएं नदारद रहीं। ग़ौरतलब है कि आरोपी की ओर से यह बताया गया कि लड़की ने विवाह के लिये मना कर दिया है और आरोपी अब विवाहित है इसलिए यह संभव नहीं है। कोर्ट ने फ़िलहाल आरोपी को गिरफ़्तारी से अंतरिम सुरक्षा प्रदान कर अभिभूत किया है और कहा है कि वह ज़मानत के लिये आवेदन कर सकता है।
यह है हमारे ‘माननीय’ न्यायालय की स्थिति। फूलकर कुप्पा हो लें इसकी निष्पक्षता पर। जिस न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने अपने विरुद्ध उत्पीड़न के मुकदमे की सुनवाई स्वयं की और स्वयं को बाइज्ज़त बरी कर दिया और आज राज्य सभा सांसद बन बैठे हैं उस न्याय के घर को लेकर आशांवित होना स्वयं को धोखा देना है। बॉम्बे हाईकोर्ट की मैडम ने कुछ दिन पहले ही स्किन-टू-स्किन टच वाली प्रताड़ना की नयी परिभाषा से अवगत कराया था। अब मिस्टर बोबड़े को चैरिटी करने का अवसर मिला है सो कर रहे हैं। महिलाओं संग न्याय इस समाज के लिये अंतिम वरीयता है। कभी सेवानिवृत्त न्यायाधीश ऐसे सरकारी पद लेने से सविनय मना करते हुए न्यायपालिका का सम्मान रखते थे। अब सभी को पोस्ट रिटायरमेंट प्लान चाहिए तो चेक एंड बैलेंस बचा किधर? सिर्फ़ एनसीइआरटी की किताबों में।
कहाँ जाएं लड़कियाँ अपने हिस्से की धूप, छाँव और आसमान माँगने? किधर नहीं रखी जाती है सहानुभूति शोषकों से? बेंच में जब मुख्य न्यायाधीश साक्षात् विराजमान होकर ऐसे फैसले सुना रहे हैं तो लड़कियों को अपने लिये अंतिम दरवाज़ा क्यों न बंद दिखायी पड़े? कितनी सभ्यताएं और खपेंगी तो समाज यह समझ सकेगा कि स्त्री का सृजन शोषित की परिभाषा को चरितार्थ करने के लिये नहीं हुआ!