सरकार के इस निगरानी आदेश पर मुझे लेस्ली उडविन की फिल्म ‘इंडियाज डॉटर’ की याद आ रही है। आम आदमी के जीवन में नाक घुसाने का शौक रखने वाले कुछ लोग ऐसे कानून चाहते हैं और उसका हश्र क्या होता है वह इस कहानी में हुआ था। आपमें से बहुत लोग इसे जानते हैं पर याद नहीं होगा। अभी इसकी याद दिलाकर मैं यह भी बताना चाहता हूं कि सिर्फ कानून बनाने से कुछ नहीं होता है उसे लागू करना भारी मुश्किल है। कानून बनाकर आप लोगों को कहां-कहां रोकेंगे और आखिरकार इसी लिए समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली धारा 377 को हटा दिया गया।
वेश्यावृत्ति से लेकर कन्या भ्रूण पहचान रोकने तक के कानून हैं और बलात्कारी विधायक छह महीने से जेल में रहने के बावजूद सत्तारूढ़ दल का सदस्य बना हुआ है। मैं नहीं जानता निकाला गया कि नहीं लेकिन निकाल भी दिया गया हो तो चुनाव लड़ने और वोट के लिए तमाम दांव पेंच करने वाली पार्टी को यह बताने की जरूरत नहीं महसूस हुई कि बलात्कार के अपराध में बंद विधायक को पार्टी से निकाल दिया गया है। खास कर तब जब एक महिला नेता के लिए अपशब्दों का प्रयोग करने पर उसी पार्टी को अपने नेता को पार्टी से निकालना पड़ा था हालांकि, फिर पार्टी में वापस ले लिया गया।
कानून और कानून का पालन की स्थिति असल में यही है – एक सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के मामले में जो हर चीज के लिए कानून बनाना चाहती है या कहती है कि पिछली सरकार ने बनाया था हम तो उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं। उसे भी नहीं लगता कि बेकार के कानूनों को खत्म कर दिया जाना चाहिए। क्यों नहीं लगता – यह वैसे तो बड़ा विषय है लेकिन मोटे तौर पर नेता और अधिकारियों की ताकत कानून ही है। वे इसका दुरुपयोग करते हैं और इसी से अपनी दुकान चलाते हैं और इसमें राष्ट्रद्रोह तक का मामला शामिल है। भ्रष्टाचार रुक जाए तो ऐसे कानूनों की जरूरत और इनका दुरुपयोग भी रुक जाएगा पर कोई चाहे तब तो।
पानी में रहकर मगर से बैर संभव नहीं है तो देश में रहने वाला कोई राष्ट्रद्रोह कैसे करेगा? और करेगा तो उसके लिए अलग से कानून की क्या जरूरत? पर उसके लिए भी कानून है और उसका उपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा होता है। और दुरुपयोग नेता तथा उनके मुंह लगे अधिकारी ज्यादा करते हैं। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस कानून के दुरुपयोग की कहानी आप जानते हैं। यही हाल अवमानना कानून का है और ना जाने कितने ऐसे कानून है। समय के साथ नए कानून की जरूरत हो सकती है। पर पुराने को खत्म करते जाते तो नए कानून पर कौन सवाल उठाता। लेकिन सरकार को नए कानून चाहिए पुराने नहीं हटाएंगे।
आइए, इस बहाने आपको बताऊं कि कानून के पालन का क्या हाल रहा है और पूरी तरह भद्द पिटने के बावजूद सरकार ने कुछ नहीं किया और दूसरी ओर, नए कानून बनाने की चाहत कम नहीं हुई है। असल में फिल्म निर्माताओं ने बलात्कारियों में से एक का साक्षात्कार भी लिया था। वह तिहाड़ जेल में बंद था और साक्षात्कार अनुमति लेकर किया गया था। अनुमति की शर्त थी कि पूरी रिकार्डिंग अधिकारियों को सौंपी जाए। बताया जाता है कि पूरी रिकार्डिंग जो कई घंटे की थी सौंपी गई और उसके बाद घंटे भर से भी कम की जो फिल्म बनी उसमें बलात्कार के आरोपियों में से आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे एक, मुकेश सिंह का भी साक्षात्कार था। विकिपीडिया के अनुसार, साक्षात्कार में उसने कहा था कि, “बलात्कार के दौरान उसे (निर्भया को) विरोध नहीं करना चाहिए था। उसे शांत रहकर बलात्कार होने देना चाहिए था। तब वे ‘उसे करके’ छोड़ देते और केवल लड़के (निर्भया के साथी) को ही पीटते।” बलात्कारी का यह ‘दर्शन’ वह भी वैसे मामले में सरकार कैसे दिखाने देती? उसने अपने अधिकारों का उपयोग किया और रोक लगा दी।
दूसरी ओर, तमाम कानूनों, प्रतिबंधों और आदेशों व शर्तों के बावजूद फिल्म बन गई थी और बीबीसी ने आठ मार्च की बजाय चार मार्च को ही प्रसारित करवा दिया। यह फिल्म यूट्यूब पर भी लगा दी गई और विभिन्न सामाजिक माध्यमों से इसका वृहद स्तर पर त्वरित प्रसार हो गया। पांच मार्च को भारत सरकार ने यूट्यूब को भारत में इसके प्रसारण को निरस्त करने का निर्देश दिया। यूट्यूब ने इसका पालन किया। पर नुकसान तो हो चुका था। वह भी तब जब फिल्म निर्माता ने कहा था कि यह फिल्म बलात्कार जैसी घटना के प्रति भारतीय जनता द्वारा दिखाए गए आक्रोश व असहिष्णुता का सम्मान करती है। इसीलिए उन्होंने इस घटना से जुड़े सभी लोगों के साक्षात्कार किए जिनमें मुकेश का साक्षात्कार भी एक था।
मेरा मानना है कि तिहाड़ जेल के अधिकारियों ने अपनी ताकत की धौंस में पूरी रिकार्डिंग जमा कराने का आदेश तो दे दिया पर उसे देख नहीं पाए या देखा ही नहीं या देखकर भी एक अंश को जाने दिया जो बाद में आपत्तिजनक माना गया। यह पूरी तरह विवेक का मामला था और इसे कानून से रोकना पड़ा। एक ऐसे कानून से जो पहले से बना हुआ था और लागू है। संबंधित पक्षों ने उसका सम्मान भी किया (8 मार्च से पहले दिखाकर भी) और किसी ने बिलावजह पंगा नहीं लिया। पर सरकार है कि उसे कानून ही चाहिए। अगर भाजपा सरकार ने ठोंक देने का आदेश दे रखा है तो आप समझ सकते हैं कि इस चाहत का अंत कहां होगा और इसका विरोध क्यों जरूरी है।
संजय कुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली